मेरी एक फेसबुक दोस्त ने बताया हुआ किस्सा. वो लडकी एक बुटीक चलाती है और उसके पास शांतीप्रिय समुदाय की दो लड़कियां सिलाई का काम सीखने आती है. नाम उसके कहने पे नहीं दे रहा हूं. आगे पढीये उसी के शब्दों में:
"मेरे यहां शांतीप्रिय समुदाय की दो लड़कियां सिलाई का काम सीखने आती है l दो चार दिन पहले में लाइब्रेरी से "कृष्ण" ये किताब पढ़ने के लिए लेकर आई थी, खाली वक़्त मिलता है तो पढ़ लेती हुं l किताब कभी टेबल पर कभी मशीन पर रखी हुई होती है |
दो दिन से में देख रही हुं, किताब मशीन पर रखी हुई थी, तो कल तो एक लड़की ने उठाकर मुझे दे दी l पर आज दुसरी लड़की को मशीन पर काम था, आज भी किताब वही पर थी, पर उसने हाथ नहीँ लगाया l मुझसे कहा, आपकी किताब है, ले लीजिए l
मतलब क्या सीखाते क्या है इन लोगों को?
हद है यार .."
हमें क्या सिखाते है? या फिर हमें सिखाना ही नहीं पडता? मेरे खयाल से ये सब चीजें हमारे गुणसूत्रों में ही होतीं है. सहिष्णुता. कैसे? अब आप ही सोचिये, अगर हमें ऐसी कोई किताब मिल जाए तो हम क्या करेंगे?
ज्यादा सोचने की जरूरत ही नहीं है. १९७१ के भारत पाकिस्तान युद्ध के एक घटना पर आधारित "बॉर्डर" यह सिनेमा तो देखा ही होगा आप ने. उसमें युद्ध शुरू होने पर हिंदूस्तानी सैनिक सीमा के आसपास के गावों को खाली करवाते हैं और लोगों को सुरक्षित निकलने में मदद भी करते हैं. लोंगेवाला बी.एस.एफ पोस्ट के अफसर कमाडंट भैरों सिंग इस काम मेलग जाता है. पाकिस्तानी बमबारी से आग लगे एक घर से एक आदमी को सही सलामत निकालने के बाद उस आदमी को ध्यान मे आता है की उसका कुरान शरीफ अंदर रह गया है. कमाडंट भैरों सिंग जान की परवाह न करते हुए जलते हुए घर में घुसकर कुरान भी सही सलामत निकाल लाता है और उस आदमी को सौंप देता है. वो आदमी भौंचक्का रह जाताहै की की एक हिंदू होकर उस अफसरने कुरान के लिये जान की बाजी लगा दी. "साहबजी, आप तो हिंदू हो". उसपर भैरों सिंग कहता है, "सदियों से यही करता आ रहा है हिंदू".
तो अब सोचने की बात है, की सदियों से हम जो करते आ रहे हैं, उसपर विचार करने का समय आ गया है या फिर और मार खाने की जरूरत है? कितने और संघ स्वयंसेवक, कितने और प्रशांत पुजारी, कितने और डॉक्टर नारंग हमसे छीनें जाएंगे? कब तक सहेंगे जब कोई सामनेवाला आपको आपकी किताब के विषय के कारण उसको हाथ भी नहीं लगाता और ऐसी धृष्टता रहता है की आपको ही वो किताब उठाने को कहे, तब क्या यह बात अकलमंदी की बनती है की आप उनसे किसी भी प्रकार का व्यवहार रखें?
ज्यादा नहीं लिखूंगा इस पहले हिंदी ब्लाग पोस्ट में. आगे आप को सोचने पे छोड देता हूं.
© मंदार दिलीप जोशी
वैशाख शु. १०, शके १९३८
"मेरे यहां शांतीप्रिय समुदाय की दो लड़कियां सिलाई का काम सीखने आती है l दो चार दिन पहले में लाइब्रेरी से "कृष्ण" ये किताब पढ़ने के लिए लेकर आई थी, खाली वक़्त मिलता है तो पढ़ लेती हुं l किताब कभी टेबल पर कभी मशीन पर रखी हुई होती है |
दो दिन से में देख रही हुं, किताब मशीन पर रखी हुई थी, तो कल तो एक लड़की ने उठाकर मुझे दे दी l पर आज दुसरी लड़की को मशीन पर काम था, आज भी किताब वही पर थी, पर उसने हाथ नहीँ लगाया l मुझसे कहा, आपकी किताब है, ले लीजिए l
मतलब क्या सीखाते क्या है इन लोगों को?
हद है यार .."
हमें क्या सिखाते है? या फिर हमें सिखाना ही नहीं पडता? मेरे खयाल से ये सब चीजें हमारे गुणसूत्रों में ही होतीं है. सहिष्णुता. कैसे? अब आप ही सोचिये, अगर हमें ऐसी कोई किताब मिल जाए तो हम क्या करेंगे?
ज्यादा सोचने की जरूरत ही नहीं है. १९७१ के भारत पाकिस्तान युद्ध के एक घटना पर आधारित "बॉर्डर" यह सिनेमा तो देखा ही होगा आप ने. उसमें युद्ध शुरू होने पर हिंदूस्तानी सैनिक सीमा के आसपास के गावों को खाली करवाते हैं और लोगों को सुरक्षित निकलने में मदद भी करते हैं. लोंगेवाला बी.एस.एफ पोस्ट के अफसर कमाडंट भैरों सिंग इस काम मेलग जाता है. पाकिस्तानी बमबारी से आग लगे एक घर से एक आदमी को सही सलामत निकालने के बाद उस आदमी को ध्यान मे आता है की उसका कुरान शरीफ अंदर रह गया है. कमाडंट भैरों सिंग जान की परवाह न करते हुए जलते हुए घर में घुसकर कुरान भी सही सलामत निकाल लाता है और उस आदमी को सौंप देता है. वो आदमी भौंचक्का रह जाताहै की की एक हिंदू होकर उस अफसरने कुरान के लिये जान की बाजी लगा दी. "साहबजी, आप तो हिंदू हो". उसपर भैरों सिंग कहता है, "सदियों से यही करता आ रहा है हिंदू".
तो अब सोचने की बात है, की सदियों से हम जो करते आ रहे हैं, उसपर विचार करने का समय आ गया है या फिर और मार खाने की जरूरत है? कितने और संघ स्वयंसेवक, कितने और प्रशांत पुजारी, कितने और डॉक्टर नारंग हमसे छीनें जाएंगे? कब तक सहेंगे जब कोई सामनेवाला आपको आपकी किताब के विषय के कारण उसको हाथ भी नहीं लगाता और ऐसी धृष्टता रहता है की आपको ही वो किताब उठाने को कहे, तब क्या यह बात अकलमंदी की बनती है की आप उनसे किसी भी प्रकार का व्यवहार रखें?
ज्यादा नहीं लिखूंगा इस पहले हिंदी ब्लाग पोस्ट में. आगे आप को सोचने पे छोड देता हूं.
© मंदार दिलीप जोशी
वैशाख शु. १०, शके १९३८