Thursday, February 9, 2017

डर

डर, खौफ, भय...क्या क्या कराता है और क्या क्या करने नहीं देता इसकी सूची बडी लंबी है. और अगर डर न हो तो आदमी क्या क्या करता है इसकी भी.

हर किसी का चढता समय होता है, फिर उसका चरम समय होता है और अंत मे अस्त की ओर जाता ढलता समय. परंतु पेशवा बाजीराव के पराक्रम के केवल पहले दो प्रकार के समय थे, चढता और चरम. उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी पराजय का मूंह तक नहीं देखा. श्रीमंत पेशवा बाजीराव का डर पुरे हिंदूस्थान में फैला हुआ था और उन्हें डर नामकी चीज पता नहीं थी. इसका केवल एक ही उदाहरण प्रस्तुत करता हूं.

यह कथा उस समय की है जब श्रीमंत बाजीराव की माताजी श्रीमंत राधाबाईसाहब साठ वर्ष की उम्र को पार कर चुकी थीं. यह ऐसा समय होता है जब मनुष्य को अपने जीवन का दूसरा किनारा नजर आने लगता है और तीर्थयात्रा की इच्छा होने लगती है. श्रीमंत राधाबाईसाहब को भी औरों की तरह यही अनुभूती होने लगी थी. इस यात्रा में चार महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थल समझे जाते थे और वह थे मथुरा, गया, प्रयाग, एवं काशी.  इस यात्रा को काशीयात्रा कहा जाता था और उसका कारण था काशी का अंतिम पडाव होना. काशी में अगर यात्री की मृत्यू हो तो उसकी आत्मा का मोक्ष सुनिश्चित माना जाता था.

यह बात ध्यान मे रखिये की उस समय यातायात के साधन बहुत कम थे और कोई भी लंबी यात्रा खतरों से भरी रहती थी. यह तीर्थस्थान मुघल प्रदेश और उनके नियंत्रण में होने के कारण यात्रा से बिना कोई नुकसान पहुंचे लौटना बहुत ही कठीन था. अपने राज्य से बादशाही प्रदेश में जाना बहुत ही खतरनाक इस लिये भी था क्योंकी मुघल सरदार या किसी और राजा के सैनिकों से जान और माल दोनों को खतरा बना रहने के साथ साथ घने जंगल और असुरक्षित रास्तों पर न जाने कब जानवर, ठग, डकैत, चोर उचक्के मिल जायें. इसी लिये लोग बहुत बडे झुंडमें अथवा किसी मुहीम पर निकले हुये सैन्य के साथ ही जाया करते थे, लेकिन सब को यह अवसर कैसे प्राप्त हो?! इन्हीं कारणवश घर का कोई वृद्ध तीर्थयात्रा पे जाने की बात भी करता तो उसके घरवाले उदास हो जाते थे क्योंकि जानोमाल का खतरा तो था ही, परंतु यात्रा में बहुत समय - यहां तक की कुछ वर्ष - लगने के कारण यात्रा का जो अंतिम पडाव वाराणसी अर्थात काशी हुआ करता था वहां तक पहुंचते पहुंचते मनुष्य का अंतिम समय आ ही जाता था.

ऐसे समय में श्रीमंत राधाबाई माताजीने अपने पेशवा पुत्र के सामने उन्हें तीर्थयात्रा पर भेजने का प्रस्ताव रखा. चूंकि बाजीराव को डर नामकी चीज पता नहीं थी, उन्होंने तुरंत हामी भर दी. सन १७३५ के फरवरी महीने में श्रीमंत राधाबाई माताजी इस तीर्थयात्रा पर निकल पडीं. उनक साथ उनकी कन्या और बाजीराव की छोटी बहन भिऊबाई, भिऊबाई के पती आबाजी नाईक जोशी, और आबाजी के भाई बाबूजी नाईक थे.

नर्मदा पार करने के पश्चात श्रीमंत राधाबाई माताजी और उनके सहयात्री माळवा से होते हुए १८ मै को उदयपूर पहुंचे. वहां के राणाजीने माताजी को पूरे सन्मान के साथ राजप्रासाद मे ले जाकर गहने, वस्त्र, एवं नगद पैसे और अनेक भेटवस्तुएं देकर अतिउत्तम आदरसत्कार किया. उदयपूर में माताजी ने वर्षा ऋतू के पूरे चार माह बिताए. उदयपूर के पश्चात जयपूर के सवाई जयसिंगने भी माताजी का बहुत बढिया आदरसन्मान करते हुए एक हाथी और ढेरों रुपए दिये. अब इस बात पर ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा की राधाबाई केवल पेशवा खानदान की एक बेचारी विधवा नहीं थीं अपितु राजनिती एवं कूटनीती की उच्च कोटि की जानकारी रखनेवाली चतुर महिला थीं. शनिवारवाडा में उनके राय को विशेष महत्त्व हुआ करता था. उदयपूर और जयपूर में उन्होंने स्वयं एवं अपने साथ आये पेशवा के राजनितीज्ञों द्वारा पर्याप्त राजनिती की बातचीत अवश्य की होगी. इस  पश्चात उदयपूर से निकलते समय जयसिंगने अपने वकीलों मे माध्यम से मुघल प्रदेश मे यात्रा आसान होने हेतू राधाबाई माताजी के लिये पारपत्रों का प्रबंध किया तथा उनके सुरक्षा के लिए कुल मिलाकर चार हजार सैनिकों को भेजा.

इसके बाद तीर्थयात्रा में राधाबाई माताजी का पहला पडाव था मथुरा. अब यहां जो हुआ वह पढकर आपको बहुत अचरज होगा परंतु वह बताने से पहले मैं आपसे अनुरोध करुंगा की आप इस लेख का पहला वाक्य फिरसे पढें - डर, खौफ, भय...क्या क्या कराता है और क्या क्या करने नहीं देता इसकी सूची बडी लंबी है.

मथुरा में उन्हे मिला वह मुघल सरदार जिसे श्रीमंत बाजीराव ने रण मे एक से अधिक बार पराजित किया था - महंमद खान बंगश. बंगश बाजीराव का शत्रू था. अगर रण मे वह सामने मिलते तो बाजीराव का सर काटने को वह उत्सुक होता. यहां तक कि किसी और समय में बाजीराव पेशवा के माताजी को वह आगे भी जाने न देकर वापस लौटा सकता था, या अपहरण कर बाजीराव से कुछ राजनयिक लाभ उठा सकता था. लेकिन बाजीराव के पराक्रम का डर पूरे हिंदूस्थान मे ऐसा फैला हुआ था कि श्रीमंत राधाबाई माताजी के मथुरा पहुंचते ही महंमद खान बंगशने उनका केवल आदरपूर्वक स्वागत ही नहीं किया अपितु माताजीका आग्रा की तरफ की यात्रा सुरक्षित हो इसका पक्का प्रबंध भी किया. इतना ही नहीं, पेशवा बाजीरव के दूत सदाशिव बल्लाळ ने पेशवा को लिखे खत मे कहा है की महंमद खान बंगश ने कहा की "मैं पेशवा की मां को मेरी मां से बिलकुल अलग नहीं समझता."


बंगशने माताजी एवं उनके सहयात्रीयों को पैसे की किसी प्रकार की कमी ना हो इसलिये उन्हें कुछ रुपये और भेंट वस्तुयें भी दी. महाराष्ट्र में खासकर ब्राह्मणों की विधवा औरतें एक विशिष्ट प्रकार की लाल साडी पहनती थीं जिसे "लाल आलवण" कहा जाता था. सर मुंडा हुआ होने के कारण उसी साडी के पहलू से हमेशा ढका हुआ रहता था. महंमद खान बंगश ने जो वस्तुएं माताजी को भेंट की उनमें ऐसी ही एक लाल साडी भी थी. अब उस समय में न तो इंटरनेट था और न टीव्ही. लेकिन किसी न किसी तरह बंगश को यह जानकारी थी की एक विधवा महिला को किस तरह की साडी देनी चाहिये और उसने वैसीही साडी को भेंट दी भी. कहा था न - डर, खौफ, भय...क्या क्या कराता है और क्या क्या करने नहीं देता इसकी सूची बडी लंबी है!

इस पश्चात माताजी एवं उनके सहयात्री काशी पहुंचे, उन्होने वहा बडा दानधर्म किया और अनेक घाट बनवाए तथा कई घाटों की मरम्मत करवायी. फिर दख्खन लौटने के पहले गया होकर वे १७३६ के  मई महिनें में पुणे लौटीं. लौटनें पर उनका पुणे के लोगों ने और शनिवारवाडा पर बडा आदरसत्कार किया गया.

यह केवल एक तीर्थयात्रा थी? बिलकुल नहीं. यह एक तीर्थयात्रा होने के साथ साथ श्रीमंत पेशवा बाजीराव के लिये एक राजनयिक विजय भी था. इस यात्रा में माताजी ने और उनके साथ गये दूतों ने न केवल राजनयिक बातचीत की उसका परिणाम ये हुआ कि दिल्ली के बादशहा महंमद शाह के दरबार में बाजीराव के पक्ष में सोचनेवाले सरदारों का एक गुट तैय्यार हुआ. आजकल लॉबींग का जो प्रभाव दिखता है यह कुछ उसी प्रकार की चीज थी.

डर, खौफ, भय...क्या क्या कराता है और क्या क्या करने नहीं देता और अगर डर न हो तो आदमी क्या क्या करता है इसका उदाहरण तो हमने देख लिया. अब अगर डर न हो तो आदमी क्या क्या करता है इसकी भी आज के समय का एक उदाहरण देखकर हम चर्चा करते हैं.

संजय लीला भन्साली के पास उसीके कथन के अनुसार बारह साल थे बाजीराव-मस्तानी फिल्म के विषय मे अनुसंधान करने हेतू. इंटरनेट के होते हुए, आधुनिक पुस्तकालय के होते हुए बारह साल के अनुसंधान के बाद उसने अपनी फिल्म में क्या दिखाया? श्रीमंत महापराक्रमी बाजीराव पेशवा की आदरणीय माताजी को सफेद साडी पहने हुए और मुंडन किये हुए सर को खुला छोड घूमनेवाली एक पागलपन का दौरा पडे महिला के रूप में पेश किया. फिल्म में पागलों की तरह कई दृश्यों मे हसते हुए दिखाया. अब माताजी को जो नहीं छोडता वह पेशवा के बाकी रिश्तेदारों को कैसे छोडता. बाजीराव की प्रथम पत्नी श्रीमंत काशीबाई साहेब के पैरों मे हमेशा दर्द रहा करता था जिस कारण वह ठीक से चल भी नहीं सकतीं थी. उन्हें मस्तानी के साथ अंग प्रत्यंग का घिनौना प्रदर्शन करते हुए नाचते हुए दिखाया गया. बाजीराव खुद मानसिक रूप से असंतुलित और उनके पुत्र नानासाहब दुष्ट और दुर्व्यवहारी दिखाया गया. और भी बहुत सी चीजें है लेकिन आप को और ज्यादा बोर नहीं करना चाहता.

जो जानकारी आजसे लगभग ढाईसो साल पहले महंमद खान बंगश को थी वह आज अनुसंधान के सारे आधुनिक संसाधन उपस्थित होते हुए भी भन्साली को नहीं होगी? सारे विश्व की खबर रखने वाले बॉलिवुडीया भन्साली को क्या यहां की औरते कैसे कपडे पहनती थीं इसकी जानकारी नहीं थी? क्या उसे बाजीराव के पुत्र नानासाहेब तथा प्रथम पत्नी काशीबाई के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं थी?

थी. अवश्य जानकारी थी. नहीं था तो केवल डर, खौफ, भय. गोलीयों की रासलीला रामलीला (रामलीला), बाजीराव-मस्तानी, और अब पद्मिनी जो महारानी पद्मिनी बन रही है, वो भी पद्नावती ऐसे नाम बदलकर, इन फिल्मों के जरीये भन्साली ने पूरे हिंदू समाज को खुलकर चुनौती दी है कि "देखो भै, मैं तो नही डरता आप असे. और जब डर न हो, तो आदमी क्या क्या करता है ये तो आपने देख ही लिया है. अरे  भै आप जैसे ही तो मेरी फिल्में हिट कराते हैं!"

दाऊद इब्राहीम और बाकी के अंडरवर्ल्ड का खौफ उनको व्हिलैन की तरह दिखाने की इजाजत नहीं देता, और हिंदूओं का डर रहा नहीं इसी लिये हिंदू महापुरुष और महिलाओं पर विकृत फिल्में बनाने की उद्दंडता बढती जाती है.

डर, खौफ, भय...क्या क्या कराता है और क्या क्या करने नहीं देता इसकी सूची बडी लंबी है. और अगर डर न हो तो आदमी क्या क्या करता है इसकी भी. अब दूसरे प्रकार का उदाहरण भी आपने देख लिया.

सोचिये, अगर हमारे राष्ट्रपुरुषों एवं महिलाओं का अपमान रोकना है, तो डर कैसे पैदा करना है. या फिर क्रियेटिव्हीटी देखने फिल्म देखनी है, तो देखिये. कुछ ही सालों बाद डर आपके दरवाजे तक होगा. सोचिये. बाकी जो है, सो हैई है.

इस विषय पर एक अलग लेख:  https://mandarvichar.blogspot.com/2017/02/blog-post_3.html

© मंदार दिलीप जोशी
माघ  शु. १३, शके १९३८