इस विडियों में कुछ त्रासदीयां एवं विरोधाभास समाये हुये हैं. त्रासदी यह है कि दशकों के वामपंथी शासन के बाद पश्चिम बंगाल राज्य की ये अवस्था है कि आज भी यहां मनुष्यों को रिक्षा खिंचनी पडती है. वामपंथ गरीब को गरीब बनाये रखता है, जिसके कारण जो रिक्षावाला कल खुद रिक्षा खिंचता था वो आज भी यही कर रहा है. पर्यटन के लिये आकर्षण का विषय होना एक बात है, परंतु उद्योगों के नष्ट होने के कारण एवं पीढी दर पीढी पेट पालने के लिये किसीको यह करना पड रहा है तो इसका दोष साम्यवादी व्यवस्था को ही जाता है. गरीब को गरीब ही बनाये रखना – वामपंथ की यही तो खासीयत है!
विरोधाभास यह है कि सदैव पक्षी तथा प्राणीप्रेम से ग्रस्त मिडिया की निद्रा केवल हिंदू उत्सवों के समय खुलती है, जैसे संक्रांत एवं दिवाली को. वामपंथी मिडिया को पतंग के डोर के कारण पक्षीयों को एवं पटाखों के कारण अनुष्का शर्मा के कुत्ते को होने वाली तकलीफ बहुत बडी दिखती है, परंतु प्रत्यक्ष कोई मानव आज भी रिक्षा स्वयं खींचने को विवश है, इसपर मिडिया ध्यान तो देती नहीं परंतु वो इसके मजे भी लूटते हैं. आप देख सकते है, सीएनएन न्युज १८ की पल्लवी घोष किस निर्लज्जता से मानवी रिक्षा के मजे लेते हुए यह बात कर रही हैं कि किस प्रकार पश्चिम बंगाल में चुनाव के मुद्दे हैं जय श्रीराम बनाम जय सियाराम, रविंद्रनाथ ठाकुर तथा सुभाषचंद्र बोस!
चलो कम से कम यह मनुष्य मेहनत की कमा रहा है, परंतु क्या सीएनएन न्युज १८ पल्ल्वी घोष को यह असाइनमेंट नही दे सकते थे की उस रिक्षावाले का ही साक्षात्कार लें, उसकी व्यथाओं को जाने, यात्रिओं से लदी रिक्षा खींचने चकर लोगों के आवागमन मे सहय्यता करने की उसकी विवशता को सबके सामने लायें? क्या ऐसा इंटरव्यु लेकर जनता को यह ज्ञात क्यूं नहीं कराया गया कि किस प्रकार जैसे होस्ट के मरने पर परजीवी वायरस या जंतु दुसरे होस्ट को अपन घर बना लेता है, उसी प्रकार कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं ने....क्षमाप्रार्थी हूं....कम्युनिस्ट पार्टी के गुंडोंने पार्टी का राज समाप्त होने पर तृणमूल काँग्रेस मे स्थलांतर कर दिया था, वैसे ही कम्युनिस्ट पार्टी के नीतियों ने भी तृणमूल काँग्रेस के राज में भी अपना प्रभाव कायम रखते हुये गरीब को गरीब रखने की परंपरा कायम रखी है?
परंतु वे ऐसा तभी करेंगे, वे इस रिक्षावाले की गरीबी एवं विवशता को तभी हाईलाईट करेंगे, जब कोई निजी बस चलाने की बात करेगा की देखीये निजीकरण के कारण कैसे इस गरीब की, जिसे गाडी चलाना नहीं आता, रोटी छीनी जा रही है, उसे गरीबी में जीने पर मजबूर किया जा रहा है. यदि पश्चिम बंगाल राज्य में चुनाव के माध्यम से वास्तविक क्रांती हो जाये और भाजप सत्ता में आ जाये, तो यही मिडिया इस रिक्षावाले को लेकर स्टोरी चलायेगा कि देखो कैसे सबका विकास करने की बात करनेवाले मोदी सरकार के राज में आज भी एक रिक्षावाले को स्वयं यात्रियों को ढोना पड रहा है. दुसरे किसी चॅनल पर ऐसा नॅरेटिव्ह चलाया जाने की पूरी संभावना है कि निजीकरण के कारण कैसे गरीब रिक्षावाले को गरीब रहना पड रहा है और यही बात उठाते हुए राहुल गांधी अदानी-अंबानी को कोसेंगे. यदि बसें सरकारी हों, तो यह भी हो सकता है कि मिडीया यह बात चलाये कि देखो बसे चली तो इंडिया और भारत के बीच की खाई और गहरी हो गयी. कैसे कैसे नॅरेटिव्ह चलेंगे इसकी संभावनाएं तो असंख्य हैं.
तो वामपंथ एवं वामपंथ से ग्रस्त मिडिया की यही विशेषता है कि जो बोलो उसे स्वयं करो नहीं, जो ना करने के लिये बोलो उसे घोष मॅडम की तरह निर्लज्जता से करो उपर से लोगों को वही बात करने पर अपराधगंड से ग्रस्त रखो. यही वामपंथ की पहचान है.
अन्य राज्यों में, जहां पर वामपंथी सरकारें नहीं हैं, वहां पर मानवी रिक्षाओं के स्थान पर सायकिल रिक्षायें लायीं गयीं, और आज कई स्थानों पर सायकिल रिक्षाओं के स्थान पर मोटराइज्ड रिक्षायें चलती हैं. काम करने के लिये मानवी श्रम को कम करने का यशस्वी प्रयास वामपंथ कभी नहीं करता. 'नया दौर' लाना है तो टांगे के लिये शॉर्टकट सडक बनाने पर लोगों को अपना समय एवं श्रम बरबाद करने पर मजबूर करना विवेक नहीं है, अपितु मानवी श्रम कम करने की तकनीक आती है तो हुनर सीखकर आगे बढनें में ही भलाई है. 'नया दौर' साम्यवाद से नहीं आता, वो आता है व्यापार की स्वतंत्रता से जिसे बडे प्यार से वामपंथीयों ने पूंजीवाद का लेबल लगाया है.
© मंदार दिलीप जोशी