कुछ बातें ऐसी हो जाती है, जिससे पता चलता है कि हिन्दू अपने धर्म से आसानी से च्युत नहीं होते!
आज ऑफिस जाते हुए एक बड़ी प्यारी घटना हुई।
पहले इस की कुछ पृष्ठभूमि बता दूँ - मैंने ट्विटर और फेसबुक पर पढ़ा था कि बगैर भूले माथे पर तिलक धारण कर के ही घर से निकलें, यह अपने धर्म के चिन्ह को गर्व के साथ दिखाने वाली बात है। कई वर्षों से मेरा यह नित्यक्रम रहा है, सो आज भी तिलक लगा कर पूजा कर मैं घर से निकला।
रस्ते में मेरी कार ने पैट्रोल माँगा, और धमकाया कि यदि न मिला, तो लौटते समय परेशानी करवाऊँगी! मजबूरन मैं पैट्रोल पम्प की ओर मुडा। पैट्रोल डलवा कर हवा भरवाने रुका था, कि अटेंडेंट ने कौतूहलवश पूछा, "जी, क्या आप पुणे से हैं?" मैंने हामी भरी, और उसके कुतूहल का कारण पूछा। उसने मेरा तिलक देखा था, और शायद उसके पूछने कर अर्थ यह था कि और शहरों के, ख़ास कर मुंबई के लोग अपने धार्मिक चिन्हों का इतना दिखावा नहीं करते है।
उसके बाद उस की नजर मेरी कार पर लगे हनुमान २.० वाले स्टिकर पर पड़ी, और पूछने लगा कि क्या यह कार्टून है या कोई साधारण चित्र! मैंने उसे बताया कि केरल के किसी कलाकार ने इसे बनाया था, और आंतरजाल के माध्यम से यह विश्वभर फैल गया है, और आज कोई भी इसे बाजार से खरीद सकता है।
आंतरजाल से शायद वह उतना परिचित न हो, यह जानकर मैंने मेरे पास के स्टिकर्स से एक हनुमान २.० का अंडाकार स्टिकर निकाल कर भेंट किया। उसे पा कर उसकी बाँछे खिल उठी!
इसी बीच गाडी में रखे रामचरितमानस को देखकर उसने पूछा क्या आप रोज पढ़ते हो? मैने कहा एखाद पन्ना रोज पढ़ लेता हूं.
मेरे कार के एक पहिए के वाल्व की टोपी गिर गई थी, सो उस ने खुद से नई लगा कर दी, और जब अगली बार खरीदने जाएं तो कौन सा ब्रैंड बेहतर होगा उस के बारे में भी बताया। हम ने फिर एक दुसरे की विदा ली, और मैं अपनी राह चलता बना।
मेरे १० वर्ष के वाहन चालन के इतिहास में किसी पैट्रोल पम्प अटेंडेंट से यह मेरी पहली इतनी लम्बी बातचीत थी। और वह भी मुस्कुराते हुए, बंधुत्व की भावना से! सिर्फ मेरे माथे के तिलक और कार पर सजे हनुमान २.० वाले स्टिकर की वजह से!
सोचा, यहां से अवश्य उभर सकते हैं हम.
दिन के इस से बेहतर प्रारम्भ की मैं कल्पना नहीं कर सकता हूँ!
जय श्रीराम! जय हनुमान!!
मूल लेखन ©️ मंदार दिलीप जोशी
हिंदी रुपांतर: ©️ कृष्ण धारासूरकर
जेष्ठ कृ. ८, शके १९४०
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