Saturday, October 31, 2015

हाक

हाकेसरशी धावून येणं
सदैव पाठीशी असणं
काहीच पुरेसं नव्हतं
मान्य

तुझ्या आर्त मूक हाका
ऐकू आल्या नाहीत
खोट्या हास्यामागचं
वेदनांनी होरपळलेलं मन
दिसू शकलं नाही
मान्य

तरीही इतकं सारं बिघडण्याआधी
स्वतःहून साद घालणं
फार कठीण होतं का?

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© मंदार दिलीप जोशी

अश्विन कृ. ५, शालीवाहन शके १९३७
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