Tuesday, December 13, 2016

ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी | यह सब है ताडन के अधिकारी ||

बुद्धिभेद किस तरह किया जाता है, ये दिखाने हेतू आदरणीय श्री सच्चिदानंद शेवडे गुरुजी ने कुछ दिन पहले रामायण से एक श्लोक उसके संदर्भ एवं अर्थ के साथ दिया था.

यः स्वपक्षं परित्यज्य परपक्षं निषेवते।
स स्वपक्षे क्षयं याते पश्चात् तैरेव हन्यते॥ [वाल्मीकि रामायण, युद्धकांड, ८७|१६]

जो व्यक्ती स्वपक्ष को छोड दूसरे पक्ष मे जाता है, उसके पहले वाले पक्ष का नाश होने पर, स्वयं उस व्यक्ती का नाश, वह व्यक्ती जिस नये पक्ष मे शामिल होता है, उस हे हातों होता है.

चूंकि शेवडे गुरुजी धर्म तथा आध्यात्म क्षेत्र में मानी हुई हस्ती हैं, अनेक लोगों ने बहुत अच्छी टिप्पणीया कीं. कुछ लोगों ने उसका संबंध आजकल के राजनिती से जोडकर देखा और उन्हे लगा की यह आज के दलबदलू लोगों के लिये रामायणीय चांटा है. कुछ लोगों ने प्रश्न किया की दल तो बिभीषण ने बदला था परंतु उसका क्या बुरा हुआ, और कुछ लोगों मे पूछा की सत्य एवं न्याय के पक्ष मे जाना क्या बुरा है? व्हॉट्सॅप और फेसबुक के माध्यम से ऐसे अनेक प्रश्न पूछे गये. बहुत कम लोगों ने इसका सटीक संदर्भ  पूछा. तथापि केवल चंद्रशेखर व.वि. नामक एक महाशय ने इस श्लोक पर संशोधन कर यह प्रतिपादन किया की यह श्लोक रामायण की सीख का भाग नहीं है. और यही अपेक्षित था.

यह है रामायण का वह भाग है जिसमें रावणपुत्र इंद्रजीत तथा बिभीषण इन चाचा-भतीजा के बीच का संवाद है. उपर दिये हुए श्लोक वह वाक्य है जो इंद्रजीत अपने चाचा बिभीषणसे कहता है.

अपने भतीजे की इस आलोचना का उत्तर देते हुए बिभीषण कहते हैं:

राक्षसेन्द्रसुतासाधो पारुष्यं त्यज गौरवात् ।
कुले यद्यप्यहं जातो रक्षसां क्रूरकर्मणाम् ।
गुणो यः प्रथमो नृणां तन्मे शीलमराक्षसम् |

हे अधम राक्षसकुमार! अपने से आयु मे बडों का सन्मान ध्यान मे रखकर तुम इस कठोरता का त्याग करो. यद्यपि मेरा जन्म राक्षसकुल में अवश्य हुआ है परंतु मेरा शील एवं स्वभाव राक्षसों जैसा नहीं है. सत्पुरुषों का जो प्रमुख गुण होता है, सत्त्व, उसी का मैनें अंगीकार किया है.

परस्वहरणे युक्तं परदाराभिमर्शनम् ।
त्याज्यं आहुः दुरात्मानं वेश्म प्रज्वलितं यथा | [युद्धकांड ८७-२१ ते २३]

(हे इंद्रजीत) जिस प्रकार हम अग्नि मे लिप्त घर को त्याग देते हैं, उसी प्रकार जो दूसरे का धन लूटता है तथा परस्त्री को स्पर्श करता है ऐसे दुष्ट आत्मा धारण करने वाले को त्यागना ही उचित है.

उपर लिखे हुए दो श्लोकों से यह सीधा सीधा अर्थ निकलता है की बिभीषण ने को किया, उचित ही किया.

कई बार कुछ भारत विखंडन वाले हिंदूविरोधी तथा जातीवादी 'प्रबुद्ध जन' हिंदू धर्म को नीचा दिखाने हेतू पुस्तके लिखते हैं और उन में ऐसे ही संदर्भहीन श्लोक छाप देते हैं. हिंदू तो संदर्भ के साथ अपने ही ग्रंथ पढने से रहे. तो जब ये पुस्तके पढते हैं तब स्तब्ध रह जाते है, और धीरे धीरे हमारे धर्म के प्रती इन्फिरिओरिटी कॉम्प्लेक्स होने लगता है. लेकिन कोई भी मूल ग्रंथ पढकर उसका सटीक संदर्भ नहीं देखता. बुद्धीभेद करने वालों को सफलता ऐसे ही मिलती है. मूल संदर्भ, उसका हेतू, घटनाएं, वह शब्द कहने वाला पात्र, उस सारे प्रसंग का कार्यकारणभाव और ग्रंथ रचयिता का हेतू ये सारी चीजें ध्यान मे रखकर श्लोक तथा संवादों को पढा जाए तब जाकर हमें उसका सत्यार्थ समझ में आता है.

इसका सर्वपरिचित एक उत्तम उदाहरण संत तुलसीदासजी पर किया गया एक आरोप है. जानते है इस आरोप के विषय में.

ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी |
यह सब है ताडन के अधिकारी ||  [सुन्दरकाण्ड]

यह उदाहरण देते हुए कुछ लिबरल फिबरल लोग हिंदू धर्म महिलाओं का किस प्रकार दमन करता है ऐसे ढोल पीटते रहते हैं. परंतु सत्य कथा यह है की यह ना तो रामचरितमानस की सीख है न तो यह संत तुलसीदासजी का कहना है. किस्सा कुछ इस प्रकार है कि प्रभू राम ने जब लंका पहुंचने हेतू समुद्र देवता से विनती की, की आप पीछे हट जाईये, तब उन्होंने प्रभू श्री राम की बात नहीं मानी. बहुत मिन्नतें करने के पश्चात भी जब समुद्र देवता ने बात नहीं मानी तो प्रभू राम को क्रोध आ गया और उन्होंने अपने धनुष्य पर बाण चढाकर प्रत्यंचा तान ली. जब तक प्रभू राम केवल विनतीयां कर रहे थे, तब तक समुद्र देवता ध्यान नहीं दे रहे थे. परंतु जब प्रभू राम नें शस्त्र उठाया, तब समुद्र देवता कांप गये और इसी भयभीत एवं लाचार मनस्थिती में कुछ भी अनापशनाप बकने लगे. उसी अनर्गल बकवास का एक भाग यह दो लाईने हैं.

आज के जमाने में कहा जाए तो अगर किसी फिल्म का एक छोटा कलाकार या व्हिलैन अगर कहे की "औरत होती ही है भोगने के लिए" तो इसका मतलब यह तो नहीं की यह वाक्य फिल्म के हीरो के माथे मढ कर इसे फिल्म का संदेश मान लिया जाए या फिर इस वाक्य को निर्देशक या लेखक का प्रतिपादन. इस का एक ही अर्थ होता है की यह वाक्य उस फिल्म मे किसीने किसी से कहा है. ठीक उसी प्रकार यह दो लाईने हैं.

कुछ व्हॉट्सॅप तथा फेसबुकीय विद्वान ऐसे होते हैं जिन्हें हिंदू धर्म पर उंगली उठाने हेतू ऐसी ही कुछ लाईने चिपकाने की आदत होती है. अगर कोई ऐसा करे, तो कृपया उसे सटीक संदर्भ पूछना मत भूलीयेगा.

सत्य, तर्क, एवं सटीक संदर्भ से वे डरा करते हैं.

मूल मराठी पोस्ट लेखकः © Dr Satchidanand Shevde 
हिंदी भावानुवादः © मंदार दिलीप जोशी

मार्गशीर्ष शु. १४, शके १९३८, श्री दत्त जयंती

Friday, December 9, 2016

घरवापसी के शत्रू

इस विषय में मैं बहुत आगे की सोच रहा हूं. परंतु इतिहास में की गयी मूर्खतापूर्ण गलतीयों से अगर हम आज नहीं सीखेंगे तो पहले जो संकट आये थे उस की तूलना में कई अधिक तीव्रता के संकटों का हमको सामना करना पडेगा. और इस बार जो होगा वह सर्वनाश की ओर ले जाने वाला संकट होगा.

इस्लाम किस तरह से धर्म परिवर्तन करता है यह हम कई सालों से देखते आ रहे हैं. इतिहास में दीन के बंदों ने तलवार की जोर से कईं धर्म परिवर्तन किए. आज तलवार का जोर शायद न चले इसी लिए लव्ह जिहाद जैसे शातिर तरीके अपनाए जा रहे हैं. इसाई धर्मपरिवर्तन करने वालोंने इनसे अधिक बुद्धिमान एवं संयमी होने के कारण तलवार से साथ साथ शांतीपूर्ण मार्ग भी अपनाये. परंतु हमें सिर्फ तलवार का मार्ग दिखाई देता है, दिमाग का नहीं. तलवार से किए हुए धर्मपरिवर्तन की घरवापसी हमें शिवाजी महाराज के सरदार नेताजी पालकर के उदाहरण के रूप मे दिखती है (फिर भी वह घरवापसी महाराज ने की थी, और महाराज के सामने बोलने की किसकी हिंमत हो सकती है? जाने दीजीए, यह विषय परिवर्तन हुआ.) लेकिन दिमाग से किए हुए धर्मपरिवर्तन की घरवापसी पर हमनें अपनें ही कर्मों तथा वचनों से ताला लगा दिया.

हमारे महाराष्ट्र में हुए कुछ घटनाओं को सुनकर मेरा खून खौल उठता है. भारतवर्ष में ब्रेड यानी की पाव लाया अंग्रेजों ने. जब अंग्रेजों का राज आया तो यहां कोई भी ब्रेड नहीं खाता था क्युंकि वह तो गोरे लोगों का यानी की इसाईयों का खाना था. हमारे शत्रू का खाना था. लोगों ने यह ठान लिया की जो भी व्यक्तिविशेष ब्रेड खाता है वह हमारा शत्रू है. इस बात का शातिर दिमाग अंग्रेज फायदा न उठाते तो ही आश्चर्य की बात थी. उन्होंने एक बडी जबरदस्त कल्पना को अंजाम दिया जिससे कम से कम कष्ट में धर्मपरिवर्तन का कार्य बडी आसानी से कर सकते थे. किसी तरह बहला फुसला के ब्रेड खिलाना, और फिर यह बात फैलाना की फलाना आदमी ने ब्रेड खाया है यह बात उस ब्रेड खाने वाले व्यक्ती का सामाजिक बहिष्कार कराने के लिए पर्याप्त थी. इसका परिणाम आगे बताता हूं. लेकिन इस उपाय से भी एक बडा आसान उपाय था. जब लोग ब्रेड खाने से मना करने लगे तो अंग्रेज ब्रेड या उसके टुकडे गांव के किसी चहल पहल वाले कुए में फेका करते थे जहां बहुत लोग पानी पीने आते हों. ऐसे जगह हुई घटनाएं गांव में ऐसे फैल जातीं जैसे गर्मी के मौसम में किसी वन में अग्नि का फैल जाना. जैसे की पहले लिखा है, ऐसे व्यक्ती या व्यक्तीयों का सामाजिक बहिष्कार किया जाता यह समझकर की वह व्यक्ती ब्रेड से 'दूषित' जल को प्राशन करके इसाई बन चुका/के हैं. यह हमारी ऐतिहासिक मूर्खता नहीं तो और क्या है? अजि ब्रेड को फेंक दिजीये और पानी पी कर काम पे लग जाईये. लेकिन ऐसी सूझबूझ उस समय के बहुतांश लोग नहीं दिखा पाये और लगभग शून्य कष्ट करके इव्हॅन्जलिस्ट लोगों ने कईयों को अपनी गिरोह में सम्मिलित किया. हां गिरोह में. क्युंकि जो धार्मिक पुस्तक यह कहता है कि अगर तुम हमारे भगवान को नहीं मानते हो तो तुम जीवित होते समय आध्यात्मिक दृष्टीसे एवं मरणोपरांत नर्क में कयामत तक आग में झुलसोगे, तो ऐसे लोगों को धर्म नही गिरोह ही कहना उचित होगा.

तो मैं यह कह रहा था, कि उस समय के पुरोहितों ने या समाज के बडे बूढों ने क्या यह कहना उचित नहीं था की अरे ब्रेड खा लिया तो क्या हुआ? चलिये ब्रेड को फेंकिये और एक स्नान कर लिजीये, और कुछ अधिक की अशुद्धता का आभास हो तो एक दिन का उपवास रख लिजीए, तो आप हो गये शुद्ध. या फिर अगर ऐसा मानना हो की आप ब्रेड खाने से इसाई हो गये हैं तो चलिये एक पूजा रखते हैं जिससे की आप फिरसे आपने आर्य सनातन धर्म में आ जायेंगे. या फिर एक यज्ञ का आयोजन करते हैं जिससे आप पुनः शुद्ध बनकर हिंदू हो जायेंगे.

परंतु बाकी विषयों मे पारंगत हमारे गुरुजनों तथा समाज के प्रबुद्ध नागरिकों ने इसमें से कोई भी उपाय नहीं किया. अगर किया तो बताईए, क्युंकि मुझे नहीं पता. ब्रेड खाने वाले व्यक्ती एवं ब्रेड या ब्रेड का टुकडा पडे हुए कुए में से पानी पीने वाले का तत्काल बहिष्कार किया गया और उसे अपने हिंदू धर्म में वापसी करने के सारे मार्ग बंद कर दिये गये.

ऐसी अनेक कल्पनाएं होंगी जिससे धर्मपरिवर्तन कर दिया गया होगा. तो अब आप सोचेंगे इसका ट्रिपल तलाक तथा कॉमल सिव्हिल कोड से क्या संबंध?

यह रामायण बताने का उद्देश यह है कि अगर कम इस इतिहास से सीख लें तो इस्लाम से घरवापसी करने वाले लोगों को हिंदू समाज मे सहजतापूर्वक सम्मिलित (assimilate) कर सकेंगे. मान लिजीये की कोई मुस्लीम युवती हिंदू हो जाती है. लेकिन उसके भविष्य का उसे सोचना ही होगा. अगर उसे विवाह करना है तो उसे हिंदू वर कैसे मिलेंगे? इसके दो पहलू हैं. एक तो सामाजिक स्तर पर जैसे जातीयों से संबंधित विवाह मॅरेज ब्युरो होते हैं, उसी तरह दूसरे धर्म से हिंदू धर्म में आने वाले युवाओं के लिये विवाह मार्गदर्शन संस्थाओं का होना आवश्यक है. यह आवश्यक नहीं की ऐसी संस्थाएं रजिस्टर्ड हों. यह भी आवश्यक नहीं है की संस्थाएं ही हों, उन के साथ साथ अनौपचारिक गुटों का भी योगदान हो सकता है. अकेले व्यक्ती भी मार्गदर्शक हो सकते हैं. लेकिन अधिक परिणाम के हेतू संस्थाओं का होना आवश्यक होगा.

हमारे हिंदू समाज से कोई आगे आकर उसे धर्मपत्नी के रूप मे स्वीकार करने का साहस कर सकेगा? क्या उसके घरवाले, कल्पना किजीये की आप ही ऐसे युवक के माता पिता हैं, क्या आप ऐसी मुस्लीम अथवा इसाई युवती को अपने घर की लक्ष्मी, अपनी बहू बनाके का ढाढस बंधा पाएंगे? उसे बहू बनाकर अपने संस्कारों मे ढालने का कष्ट उठा पायेंगे? अगर आपका उत्तर 'नहीं' है, तो घर में पंखे के नीचे या एसी में बैठे बैठे घरवापसी पर पोस्ट पेलना व्यर्थ है.

मुझे यह ज्ञात है कि जैसे कपडे बदलते हैं वैसे इस्लाम को छोडना संभव नहीं. दमन क्या होता है यह इस्लाम में रहने से ही समझ में आता हैं. हिंसा भी होगी अगर ऐसे लोग इस्लाम छोडने लगे.

इस हिंसात्मक प्रतिक्रिया का मुझे पूर्ण रूप से ज्ञान है. लेकिन मेरा उद्देश्य कुछ अलग है. मुझे हिंदूओं की उस मानसिकता पर उंगली उठानी है, जिससे हम जीते हुए युद्ध हमारे ही तकियानूसी खयालातों के कारण हार जाते हैं, जबकि बाकी सारे कारण हमारे पक्ष में होते हैं. जैसे की अर्थशास्त्र में हर सिद्धांत "Other things being equal..." इन शब्दों से शुरुवात होती है.

बहुत बोल चुका, लेकिन एक और उदाहरण देना आवश्यक समझता हूं. टेनिस खिलाडी विजय अमृतराज आपको याद होंगे ही. १९७३ में वह विम्बलडन सिंगल्स विजेता बनते बनते रह गये थे. क्वार्टर फाइनल मे जॅन कोड्स के सामने खेलेते हुए विजय के सामने ऐसा क्षण आया की कोड्स के शॉट पर उन्हे सिर्फ एक आसान सा स्मॅश मारना था. अगर वह स्मॅश सफलतापूर्वक मारते, तो उनके लिये वह मॅच जीतना तय था. लेकिन ऐन समय पर हिंमत हार कर उन्होंने यह मौका गवां दिया और मॅच हार गये. कोड्स आगे जाकर विम्बलडन का किताब जीत गये.

कुछ समझ में आया? अगर आया तो ठीक, वरना जो है, सो हयई है!

© मंदार दिलीप जोशी
मार्गशीर्ष शु. १०, शके १९३८

ट्रिपल तलाक और घरवापसी

ट्रिपल तलाक और समान नागरी कायदे को लेकर मुझे एक बात बहुत दिनों से खाए जा रही है.

एक भी हिंदू नेता - हां - एक भी हिंदू नेता - ना राजनेता, ना योगीबाबाजी, ना कोई साधू महाराज - मुस्लीम महिलाओं तथा सामान्य मुसलमानों से यह नहीं कह रहे हैं की अगर ऑल इंडिया मुस्लीम पर्सनल लॉ बोर्ड आपके मानवाधिकारों का दमन कर रहा है, और आप इस बात को मान चुके हैं की इस्लाम में तीन बार तलाक और हलाला हो या और किसी अधिकार की बात, सुधार की कोई संभावना नहीं है, तो इस्लाम छोड हिंदू धर्म मे प्रवेश किजीए. यहां आपको न केवल समान अधिकार मिलेंगे बल्कि आपके अधिकार पुरुषों से भी अधिक होंगे तथा न्याय व्यवस्था भी आप के याने महिलाओं की तरफ पक्षपात करेगी.

हां, इस घोषणा या यह परिणाम संभव नहीं की हजारों की संख्या में मुस्लींम महिलाएं और कुछ मुस्लीम पुरुष बगावत करके हिंदू धर्म मे प्रवेश करें. इसके कारण अनेक हैं जिस विषय में मेरे फेसबुक मित्र Anand Rajadhyakshaजी ने बहुत समय पहले लिखा था. परंतु किसी प्रभावशाली नेता या साधूबाबा के केवल ऐसी घोषणा करने के सकारात्मक मनोवैज्ञानिक परिणाम संख्या तथा प्रभाव में बहुत बडे हो सकते हैं.

युद्ध केवल शस्त्रों से अर्थात शरीर से नहीं अपितु मनोवैज्ञानिक अस्त्रों से भी खेला जाता है. लेकिन हम इसमें पीछे छूट रहे हैं. इस विषय में मुझे पुरानी पडोसन फिल्म के एक सीन का स्मरण हो रहा है. संगीत शिक्षक मास्टर पिल्लई का किरदार निभाने वाले मेहमूद अपने प्रेम प्रतिस्पर्धी भोला याने सुनील दत्त से एक झगडे के दरम्यान कईं बार कहतें हैं, "तुम आगे नै आना", "तुम आगे नै आना". लेकिन भोला और आगे आता जाता है. आखिर में मास्टरजी के "तुम आगे आना?" इस प्रश्न पर भोला डटकर कहता है, "हां". इस पर हार मानते हुए मास्टरजी, "तुम आगे आना? अच्छा तो हम पीछे जाना" यह कहकर पीछे हट जाते हैं.

तो है कोई माई का लाल ऐसी घोषणा करने वाला? या फिर "तुम आगे आना?" इस प्रश्न पर हम ही "पीछे जाना" करेंगे? कुछ समझे? अगर समझे तो ठीक. वरना जो है, सो हयई है!

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अगला भाग: घरवापसी के शत्रू
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© मंदार दिलीप जोशी
मार्गशीर्ष शु. १०, शके १९३८

Wednesday, November 9, 2016

शबरीमला मधे स्त्रीयांना प्रवेश का नाही?

मूळ लेखकः © सुप्रिया पिल्लै
मराठी रुपांतर/भाषांतरः © मंदार दिलीप जोशी

मी एक हिंदू स्त्री आहे आणि देवभूमी म्हणून ओळखले जाणारे केरळ राज्य ही माझी जन्मभूमी. आणि मला शबरीमला मधे प्रवेश नको आहे. आणि हो, माझ्यासारख्या अनेक स्त्रीया तुम्हाला केरळात आणि इतरत्र भेटतील. उच्चशिक्षित, व्यवसायिक, लेखक, वगैरे अनेक माझ्या या मताशी सहमत आहेत. का? याचं कारण जाणून घ्यायचं असेल तर तुम्हाला केरळ आणि मल्याळी लोकांची संस्कृती जाणून घ्यावी लागेल.

आम्ही केरळी लोक मातृसत्ताक पद्धत पाळत होतो. लग्न झाल्यावर पुरुष बायकोच्या घरी रहायला जायचे, मुले आईचे आडनाव लावायची, घरातल्या संपत्तीवर स्त्रीयांचा पहिला अधिकार असायचा. केरळात एक देऊळ आहे ज्याचे पुजारी वर्षातून एकदा तिथे येणार्‍या प्रत्येक स्त्रीचे पाय धुवायचे, कारण स्त्री ही देवीचे प्रातिनिधिक रूप मानण्याची आमच्याकडे पद्धत आहे. मन्नारशाला इथल्या एका देवळात फक्त स्त्रीया पुजारी होऊ शकतात. आमच्याकडे फक्त स्त्रीयांसाठी असा एक उत्सव आहे ज्याचं नाव आहे थिरुवथिरा. तो साजरा होत असलेल्या ठिकाणीच नव्हे तर आसपासही पुरुषांना प्रवेश निषिद्ध आहे. थिरुअनंतपुरम् येथे पोंगल पूजेत लाखोंच्या संख्येने स्त्रीया भाग घेतात. थिरुअनंतपुरम् मधे देवळात इतक्या संख्येला पुरे पडू शकत नाही म्हणून रस्ते या गर्दीने ओसंडून जातात आणि थिरुअनंतपुरम् काही काळासाठी चक्क बंद होतं. ते सुद्धा फक्त स्त्रीयांच्या प्रचंड संख्येमुळे. अशी उदाहरणे कमी नाहीत, पण शितावरुन भाताची परीक्षा करण्याची क्षमता तुमच्यात आहे हे गृहित धरुन मी असं समजते की आता केरळची स्त्रीप्रधान संस्कृती तुमच्या लक्षात आली असेल.

अशा वातावरणात शबरीमला हे एकच ठिकाण फक्त पुरुषांसाठी राखीव आहे. महाराष्ट्रात हळदीकुंकू समारंभात जसं फक्त स्त्रीयांना प्रवेश असतो तसं शबरीमला मधे आमच्यातले पुरुष जातात. पुरुषांसाठी हे ठिकाण आपापसात भेटण्या-मिसळण्याचे एक धार्मिक अधिष्टान असलेले स्थान आहे. कुटुंबातले वडिल, मुले, भाऊ, काका, आजोबा, सगळ्या प्रकारचे व वयाचे पुरुष जातपात, सांपत्तिक स्थिती, इत्यादी कोणत्याही भेदभावाविना तिथे जमतात. हल्ली काही पुरुष उत्तर भारतात करवा चौथचा उपास ठेवतात, तसंच इथे घरातल्या स्त्रीया कुटुंबातील पुरुषांना मानसिक पाठींबा म्हणून त्यांच्या सोबत चाळीस दिवस उपास करतात.

इतर ठिकाणी फक्त पुरुष एकत्र आले की बाई, बाटली, आणि धिंगाणा घातला जातो तसं इथे अजिबात नाही. या चाळीस दिवसात पुरुषांना मद्यपान, संभोग, व मांसाहार करता येत नाही. आणि ही बंधनं ते आनंदाने स्वीकारतात. घरातले सगळे पहाटे चार वाजताच दिवसाची सुरवात करतात. स्नान करुन पूजा केली जाते आणि मग घरातले सगळे जवळच्या देवळात देवदर्शनासाठी जातात सगळं कुटुंब एकत्र येतं. नात्यांमधले बंध धृढ होतात.

हे चाळीस दिवस फक्त पुरुषांसाठीच नव्हे, तर कुटुंबातल्या स्त्रीयांसाठीही detox सारखे ठरतात. मद्यपान वर्ज्य करणार्‍यांमधे फक्त अधुनमधून मद्यपान करणारेच नव्हे तर अट्टल दारुडेही सामील असतात. कल्पना करा, रोज दारू पिऊन येणारा पुरुष चाळीस दिवस अगदी शहाण्या बाळासारखा वागतो आहे, याचा कुटुंबावर आणि पर्यायाने समाजावर किती सकारात्मक परिणाम होत असेल? संध्याकाळी 'टल्ली' होण्याऐवजी घरातले सगळे जवळच्या देवळात भजनकीर्तनात तल्लीन होतात. पुन्हा सगळा गोतावळा एकत्र येतो. घरातले स्त्री व पुरुष दोघांनी नोकरी व्यवसायानिमित्त अर्थार्जन करण्याच्या या काळात या सगळ्याचं महत्त्व कधी नव्हे तेवढं आज आहे.

या चाळीस दिवसानंतर पुरुष शबरीमलात जातात. त्यांच्या सोबत वयोवृद्ध स्त्रीया आणि घरातल्या 'वयात न आलेल्या' मुली असतात. या काळात घरावर घरातल्या इतर स्त्रीयांचं एकछत्री राज्य असतं. शबरीमलात राहण्याचा काल किमान तीन दिवस ते पुरुषांना हवा तितका असा असू शकतो. आजच्या काळात याला काय म्हणतात बरं? हं, पुरुषांना आणि स्त्रीयांना त्यांचं हक्काचं "स्पेस" मिळणं. पण कसं आहे ना, आम्ही हे फार पूर्वीपासून पाळत आलेलो आहोत, फक्त आम्ही हे पाळतो आमच्या परंपरा व प्रथांना पूर्ण मान देऊन.  

तेव्हा शबरीमलात स्त्रीयांना प्रवेश हवाच ही आमची मागणी नाही. कधीही असू शकत नाही. आणि तसं वाटलंच तर त्यासाठी आमची थांबायची तयारी आहे. सर्वोच्च न्यायालयाने त्यात नाक खुपसण्याची गरज नाही.

मूळ लेखकः © सुप्रिया पिल्लै
मराठी रुपांतर/भाषांतरः © मंदार दिलीप जोशी
कार्तिक शु. ९, शके १९३८

मूळ इंग्रजी लेखनः

Why are women not allowed in Sabarimala

- beautiful explanation by Supria Pillai

14 January at 09:49

I am a Hindu Woman from Kerala and I don't want to go to Sabarimala....You will find hundreds of thousands of us in Kerala and elsewhere...highly educated, professionals, writers etc who will agree with me.....Why?Because...Kerala Hindu women have Temples and festivals exclusively for themselves...ours was a Matriarchal society where only the women inherited. We have a Temple where once a year the Preists there will wash the feet of every woman devotee who comes there because a woman is the representation of the Godess....we have a Temple in MAnnarashala where the Priests are exclusively women, We have Thiruvathira.......which is an exclusively women's festival...no men allowed in the vicinity...we have Pongala a pooja where lakhs and lakhs of women take part....in Trivandrum.....since the Temple cannot hold all these vast numbers...Trivandrum literally shuts down and it's streets are full of women...yes exclusively women........

Contrary to that ....Sabarimala....is the one place in Kerala which is exclusively for men.... This is where our men go together...it's a male bonding... Thing.. Fathers and sons, brothers,uncles, grandfathers all the male members in a family or community or friends...The whole community irrespective of caste, wealth, creed joins in....including the women...Yes...many of us keep fast with the men in our family.

These forty days are a source of great joy and peace for us.....in many homes....it is the only time of the year when men don't drink.....no non-veg food, every one gets up very early in the morning around 4:00 a.m, bathe, do your pooja....visit the nearest Temple......the family gets together....it brings family members in together......

Our men don't do this bonding by drinking, drugs or whoring
Instead it is through 40 days of detox... Every one is in it.. The women as well.

There is peace in society cos many alcoholics are detoxing... There is a bond not only in the family but in the community.You go for bhajans in the evening....again the family goes together. The community gets together.....very important in this day and age when everyone is working especially in Kerala.

After 40 days the men go to Sabarimala, sometimes taking their aged mothers with them and maybe the older children including gals who haven't yet menstruated..

The women have the home to themselves... 3 days or until the men come back to do as they please. What do they call this is modern terms.....? Yes.... men having their own space and women their own space and time out ...Well....we have been doing this for a long time....keeping our cultural ethos and values in mind while doing so...

Monday, October 24, 2016

लिबरल

जब एक ज्ञानी हिंदू को एक लिबरल ने
मानवता का पाठ पढाया
तो हिंदू फरमाया
की मेरे लिबरल भाया
अपनी औकात न भूल

तेरे जैसे तो उस पानी के गिलास की तरह है
जो समंदर से पूछ रहा हो
"तू जानता ही क्या है मेरे बारे में?"
तो मेरे लिबरल भाया, अपनी औकात मे रह
बचकानी बाते ना कर
मैं तो हूं विशाल बोधीवृक्ष
और तू सिर्फ मोह माया.

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© मंदार दिलीप जोशी

Monday, October 17, 2016

दिसत जावं माणसानं

हल्ली मोबाईल आणि सोशल मिडियामुळे भेटीगाठी अधिकच दुर्मीळ होऊ लागल्या आहेत. किंबहुना असंही म्हणता येईल की असे इतकं भेटणं होतं की प्रत्यक्ष नाही भेटलं तरी चालेल अशीच मानसिकता तयार होऊ लागली आहे. याच विषयावर एका मित्राने आज एक सुंदर हिंदी कविता पाठवली आणि विषय जिव्हाळ्याचा असल्यानं चटकन मराठी रुपांतर/भाषांतर सुचलं. आधी मराठी आवृत्ती आणि मग त्याची मूळ हिंदी कविता असं देतो आहे. हिंदी कवी कोण ते मात्र समजू शकलं नाही. मराठीत रूपांतर करताना एक कडवं अधिकचं जोडलं आहे.

दिसत जावं माणसानं

कालगतीच्या तीव्र प्रवाही
पोहत जावं त्वेषानं
क्षणभंगुर जीवनात या पण
दिसत जावं माणसानं

आठवणींचा साठा मोठा
क्षणात विस्कटू नये कधी
मैत्र जीवांचे होऊन हृदयी
बोलत जावं माणसानं

हसर्‍या चेहर्‍यांमागे काही
दु:ख मानसी बाळगती
हात घेऊन हाती मित्राचा
बसत जावं माणसानं

प्रत्येकाचे शल्य वेगळे
आनंद निराळा असतो रे
मित्रांचंही जगणे थोडं
वाटून घ्यावं माणसानं

कोण कुठवर सोबत असतो
कोणा असते ठावूक ते
भेटण्याची कारणे नित्यनूतन
विणत जावी माणसानं

ओझरती कधी भेट घडावी
रंगवावी मैफिल कधी
कधी हाकेसरशी खिडकीत
दिसत जावं माणसानं

भेटीगाठीतून आठवणींचा
साठा ताजा ठेवावा
म्हणून म्हणतो उगाचच्या उगाच सुद्धा
दिसत जावं माणसानं

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© मंदार दिलीप जोशी
अश्विन कृ. २, शके १९३८
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मूळ हिंदी कविता:

मिलते जुलते रहा करो

धार वक़्त की बड़ी प्रबल है,
इसमें लय से बहा करो,
जीवन कितना क्षणभंगुर है,
मिलते जुलते रहा करो।

यादों की भरपूर पोटली,
क्षणभर में न बिखर जाए,
दोस्तों की अनकही कहानी,
तुम भी थोड़ी कहा करो।

हँसते चेहरों के पीछे भी,
दर्द भरा हो सकता है,
यही सोच मन में रखकर के,
हाथ दोस्त का गहा करो।

सबके अपने-अपने दुःख हैं,
अपनी-अपनी पीड़ा है,
यारों के संग थोड़े से दुःख,
मिलजुल कर के सहा करो।

किसका साथ कहाँ तक होगा,
कौन भला कह सकता है,
मिलने के कुछ नए बहाने,
रचते-बुनते रहा करो।

मिलने जुलने से कुछ यादें,
फिर ताज़ा हो उठती हैं,
इसीलिए यारों नाहक भी,
मिलते जुलते रहा करो।

- कवी अज्ञात

Wednesday, October 12, 2016

मी आणि माझा होऊ पाहणारा शत्रूपक्ष

आमच्या सोसायटीच्या चेअरमनबाईंनी नुकतीच एक कुत्री पाळली आहे. तिचं नाव लायका. कुत्री असल्यामुळे नाव लायकी असावं असं मी म्हणालो, म्हणजे मनातल्या मनात म्हणालो. आम्ही मनातच म्हणायचे. पण अंतराळात गेलेला पहिला प्राणी म्हणजे रशियाने पाठवलेली (आणि परत न आलेली) लायका ही कुत्री म्हणून तिचे ते नाव तसे असल्याचे समजले.

परवा काही कामानिमित्त त्यांच्या घरी गेलो असता "ती काही करत नाही, आपण स्वस्थ उभं रहायचं" हे पुल्देश्पांडे नावाच्या द्रष्ट्या माणसाने लिहीलेलं वाक्य पुन्हा ऐकायला आलं. बरमुडा घालून गेल्याने दोन्ही पायांना गधडीने तेल आणि उटणं रगड रगड रगडल्यागत चाट चाट चाटलं आणि हा मनुष्यप्राणी उपद्रवी नसल्याची खात्री पटल्यावर पाडवा साजरा झाल्याचा आनंद झाल्यासारखी आत निघून गेली.

आत गेल्यावर काम करत बसलो होतो तेवढ्यात बाईसाहेब (म्हणजे लायका, चेअरमनबाई नव्हे) आतून परत बाहेर आल्या. लायकाला मी खूपच आवडलो होतो की काय कळेना कारण तिने माझ्याकडे मोर्चा वळवला. ते बघताच तिचा पट्टा धरून बाईसाहेब (म्हणजे चेअरमनबाई, लायका नव्हे) त्यांच्या ऑफिसातला एक तरुण डायनिंग टेबलवर बसला होता त्याच्याकडे बोट दाखवून "लायका, यु आर डुइंग अ व्हेरी बॅड बॅड काम बरं का" या चालीवर त्या म्हणाल्या, "अं हं, असं नाही करायचं, तिकडे जा तो बघ दादा आलाय!"

लायकाच्या दादाकडे माझी पाठ असल्याने त्याचा खर्रकन् उतरलेला चेहरा मला दिसू शकला नाही पण जाहीरातीत दाखवतात तसं इज्जत का फालुद्याची काच खळ्ळकन फुटल्याचा आवाज ऐकल्याचा भास मात्र नक्की झाला.

© मंदार दिलीप जोशी
कार्तिक शु. १, शके १९३८

Monday, October 10, 2016

दसरा सण मोठा, नसे विचारवांत्यांस* तोटा

चला, दसरा आला आणि सालाबादप्रमाणे आपट्याची पानं तोडू नका वगैरे नेहमीच्या बुद्धीभेद करणार्‍या पोस्टी नेटवर दिसू लागल्या.

तर्क आणि विज्ञानाला फाटा देऊन भावनिक बाबींवर भर दिला की असा काहीतरी विचित्र प्रकार निर्माण होतो. या सणाला अशा पोष्टी टाकायला "पहा पहा निसर्ग ओरबाडला जातोय" असं म्हणून भावनिक आवाहना बरोबरच मिथ्याविज्ञान अर्थात स्युडोसायन्सचा आधार घेतला जातो. इंग्रजीत एक म्हण आहे, "If you want to kill a dog, call it mad". तद्वत, हिंदू धर्मातील प्रथा एक एक करुन बंद पाडायच्या असतील तर "अमुक गोष्ट कुप्रथा आहे" हे आधी ठरवायचे आणि मग पद्धतशीरपणे हल्ला करायचा ही पद्धत आता नवीन नाही.

तारतम्य ठेऊन छाटणी केल्याने कोणत्याही झाडाची हानी होत नाही. आणि आपट्याच्या झाडाचं तर नाहीच नाही, कारण ते झाड खूप मोठं असतं. काही दिवसांनी पानं परत येतात. किंबहुना, हे सगळ्याच झाडांच्या बाबतीतलं शास्त्रीय सत्य आहे. आपट्याला आता कोवळी नुकतीच फुटलेली पालवी नाही. आता पाने जून झाली. अर्धामुर्धा पाला कापला तर झाडे अधिकच आटोपशीर वाढतील. पानांच्या कचर्‍याचाच प्रश्न असेल तर आपट्याची पाने हे उत्तम खत आहे. दुसर्‍या दिवशी टाकून देण्याऐवजी आपल्या कुंडीत पाने रिचवा.

छाटणी केल्यानंतर साधारण ४० ते ९० दिवसांत झाडांना नवी पालवी फुटते. अर्थात पालवी येण्याचे प्रमाण आणि वेळ झाडाच्या वयावर अवलंबून असते. नव्या पालवीला कीड लागण्याचा धोका असतो. त्यामुळे वातावरणात कीड नसलेल्या काळात पालवी येणे अधिक चांगले. त्यामुळे साधारणत: ऑक्टोबरमध्ये झाडांची छाटणी करावी. कारण पुढे येणाऱ्या थंडीत वातावरणातील किडीचे प्रमाण अत्यल्प असते.ही माहिती आपल्या पूर्वजांना देखील होती आणि म्हणूनच त्यांनी पाने वाटल्याने निसर्गाचे कोणतेच नुकसान होणार नाही उलट त्या झाडांचे संरक्षण होईल अश्या रीतीने ही परंपरा जपली असावी, परन्तु पुस्तक वाचून स्वतःला तत्वज्ञानी समजणारे आधुनिक पर्यावरण वादी आपल्या समोर वृक्षतोड होतांना बघत बसतात पण आपल्या सण उस्तव वेळी मात्र यांचे निसर्गप्रेम उफाळून येते, एरवी हजारो वृक्षतोडीची प्रकरणे घडतात पण तक्रार द्यायला हे पुढे येत नाहीत.

आता आपट्याच्या झाडाबद्दल जरा अधिक माहिती घेऊया. आपट्याला संस्कृतमधे अश्मंतक असं नाव आहे. हा झाला भाषा इतिहास. आपट्याची झाडं आशिया खंडातच आढळतात. हा झाला भूगोल. आता आपट्याच्या झाडाचा कशा कशासाठी उपयोग केला जातो ते पाहूया आणि वळूया विज्ञानाकडे.

आपटा हे औषधी वनस्पती म्हणून प्रसिद्ध आहे. आपट्याची पाने औषधी असतात. इतकंच नव्हे तर आपट्याच्या झाडाला येणार्‍या शेंगांच्या बिया,  तसेच फुले व झाडाची साल यांचा औषध म्हणून आणि विविध औषधी घटक म्हणून सर्रास वापर केला जातो. आपट्याच्या सालीपासून दोरखंड बनवतात. ज्या झाडांपासून डिंक मिळवला जातो त्यात आपट्याच्या झाडाचाही समावेश आहे. या झाडापासून टॅनीन मिळवतात. आता तुम्हाला अधिक परिचयाचा असलेला उपयोग सांगतो. आपट्याच्या पानांचा उपयोग विडी बनविण्याकरिता केला जातो. मग? बंद पाडायचे का हे सगळे उद्योग?

अश्मन्तक महावृक्ष महादोष निवारण | इष्टानां दर्शनं देही कुरु शत्रुविनाशनम् ||
अर्थ: आपट्याचा वृक्ष हा महावृक्ष असून तो महादोषांचे निवारण करतो.इष्ट(देवतेचे) दर्शन घडवितो व शत्रुंचा विनाश करतो.

वरच्या श्लोकातल्या महादोष निवारण या शब्दांचा निर्देश आपट्याचे औषधी गुण यांच्याकडे आहे.

जसं नारळाच्या झाडाचा नारळासकट एकूण एक भाग कामी येतो तसंच आपट्याच्या झाडाचे अनेक भाग मानवी उपयोगाचे आहेत. तेव्हा "नारळ काढू नका....पहा पहा निसर्ग ओरबाडला जातोय" हे जितकं अवैज्ञानिक विधान आहे, तितकंच खुळचट विधान "आपट्याच्या झाडाची पाने तोडू नका" हे आहे.

आणि अशा बकवास पोस्टी टाकणार्‍यांनी आपट्याची किंवा इतर किती झाडं लावली आणि जगवली आहेत? अशांना माझा फुकटचा सल्ला: उगा खुर्च्या उबवून लोकांनी काय करायचं त्याचे फुकटचे सल्ले देऊ नका. आधी अभ्यास करा आणि मग बोला. उगाच निसर्गप्रेमाचा आव आणून सणांवर घाव घालू नका.

यात रामायणातील सुद्धा संदर्भ आहे. कथा मोठी आहे तेव्हा संक्षिप्त स्वरूपात सांगतो. एकदा एका गुरूने शिष्याच्याच आग्रहावरुन त्याला चौदा कोटी मुद्रा गुरुदक्षिणा म्हणून द्यायला सांगितल्या. पण त्यात एक मेख होती. गुरूने अट घातली की त्या चौदा कोटी मुद्रा एकाच माणसाकडून आणल्या पाहीजेत. पण चौदा कोटी एकदम एकाच माणसाकडून कशा आणायच्या? ते फार अवघड. मग तो अयोध्येचे महाराज रघु यांच्याकडे पोहोचला. महाराज रघु हे दानशूर व विद्येची कदर करणारे आहेत अशी त्यांची ख्याती होती. पण नेमके त्याच वेळी महाराज रघुंनी यज्ञात सर्व संपत्ती दान केली होती. त्यामुळे त्यांनी त्या शिष्याला त्याची इच्छा पुर्ण करु शकत नसल्याबद्दल दु:ख व्यक्त केले. पण पराक्रमी असल्याने इंद्रावर स्वारी करुन तेवढ्या मुद्रा तुला देतो असे आश्वासनही दिले. यामुळे इंद्र घाबरला व त्याने अयोध्येबाहेर आपट्याच्या तसेच शमीच्या झाडांवर कुबेराला सांगून सुवर्णमुद्रांचा वर्षांव , आणि मग त्या सगळ्या मुद्रा त्या शिष्याला दिल्या. पण त्या चौदा कोटी पेक्षा खूप जास्त होत्या म्हणून गुरुंनी १४ कोटीच ठेवून घेतल्या. आता बाकीच्या मुद्रांचे काय करायचे? महाराज रघूंनी एकदा दिलेले दान परत घ्यायचे नाही म्हणुन त्या मुद्रा परत घेण्याचे नाकारले. म्हणून त्या शिष्याने त्याच दोन झाडांच्या खाली त्या मुद्रा ओतून लोकांना त्या न्या असे सांगितले. अचानक धनलाभ झाल्याने व त्या वृक्षांखाली झाल्याने लोकांनी त्या झाडांची पूजा केली व त्या मुद्रा लुटल्या. हा दिवस दसर्‍याचा होता.

शमीच्या झाडावर पांडवांनी शस्त्रे लपवली ही कथा महाभारतात आहेच.

बाकी, आपट्याचंच झाड का? शमीचं का नाही? याला उत्तर इतकंच की हीच गोष्ट "आपण तोंडातून का भोजन करतो व पार्श्वभागातून का मलविसर्जन करतो? त्या ऐवजी ढुंगणातून जेवण व तोंडातून का नाही हगता येत? हा आपल्या मुक्त इच्छेवर (फ्री विलवर) निसर्गाचा आघात नव्हे का? इथपर्यंत नेता येईल. 

परंपरा टाकून देण्याचा अट्टाहास धरण्यापेक्षा कालानुरूप योग्य बदल अवश्य करावेत. सीमोल्लंघन म्हणजे मोहिमेवर जाऊन पराक्रम गाजवून सोने लुटून आणण्याची कल्पना पर्याय म्हणून फुले देऊन कशी साधणार? त्यापेक्षा आपट्याचे झाड प्रत्येक संकुलात रुजवण्याचा निर्धार केला तर अधिक योग्य ठरेल. पावसानंतर जड झालेले ओझे माफक पद्धतीने कमी करू आणि आपट्याचीच पाने लुटून आपल्या पूर्वजांच्या पराक्रमाची जाण ठेवू.

© मंदार दिलीप जोशी
अश्विन शु. ८, शके १९३९ | दुर्गाष्टमी | खंडेनवमी

कठीण शब्दांचे अर्थः
विचारवांत्या = perverted thought diarrhea

Wednesday, October 5, 2016

महेश भट्ट का निरुपम सत्य

हाल ही में एक कन्नड कहावत पढने को मिली, "बेन्नु बिडद पिशाचि होन्नु कोट्टरे निंतीते". अर्थात, आप के पिछे पडा हुआ पिशाच्च उसको सोना देने से (वो जो करने निकला है वो करने से) रुक नहीं जाएगा. यह कहावत पढते ही कुछ दिनो पहले घटी हडकंप मचा देने वाली एक घटना याद आ गयी.

फ्लॅशबॅकः
२०१२ की आझाद मैदान की घटना याद है? यह घटना हम सब की आँखें खोलने के लिये पर्याप्त थी. लेकिन या तो हमने मन की आँखोंपर पट्टी बांध ली है या हमारी स्मरणशक्ती कमजोर है, क्योंकी आज हम महेश भट्ट और संजय निरुपम जैसों के देशविरोधी बकवास से आहत और गुस्सा हो रहें हैं.

इस घटना से पहले एस.एम.एस. और व्हॉट्सॅप के द्वारा कुछ भडकाई संदेश व्हारयल किये जा रहे थे. इस बारे में पुलिस को पथा था. घटना से एक दिन पहले पुलिस को यह सूचना मिल चुकी थी की जुम्मे के नमाज के समय लोगों को यह आवाहन किया गया था की म्याममार मे रोहिंग्या मुसलमानों पर हुए अत्याचारों के खिलाफ मोर्चें मे भारी संख्या में शामिल हो. इस मोर्चे का आयोजन करने वाले रझा अकादमीने पुलिसको यह कहकर आश्वस्त किया था की मोर्चे में सिर्फ करीब १५०० के आस पास लोग आयेंगे. लेकिन उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन शुरवात मे १,५०० नहीं, बल्कि १५,००० लोग आये, और धीरे धीरे यह संख्या ४०,००० तक पहुंच गये. जैसी अपेक्षा थी, मोर्चा हिंसक हो गया. जैसा कोई सैन्य काम करता हो वैसेही उस मोर्चे के लोग बर्ताव कर रहे थे. मोर्चे मे से एक भागने मिडिया के ओ.बी. व्हॅन तथा लोगों पर हमला किया. दंगाईयों ने गाडीयों को आग लगाना, बसों पे हमला करना, और पुलीस पे पथराव करना आरंभ किया. तीन ओ.बी. व्हॅन और एक पुलीस की गाडी को आग लगा दी गयी. पथराव के वजह से एक बेस्ट की बस, दो कारें, और पांच दुपहिया गाडीयों का भारी नुकसान हुवा. इतना ही नहीं, पाच महिला पुलिसकर्मियों के साथ दंगाईयों ने दुष्कर्म किया और उनपर हॉकी स्टिक, लोखंड के रॉड, पत्थर, और नुकिले लकडी की काठी से हमला किया. और अमर जवान ज्योती का इन शांतीप्रिय समुदाय के लोगों के क्या किया यह तो सर्वविदीत है.

सलीम अल्लारख्खां चौकिया (अली),  वह आदमी जिसने, एक पुलिसकर्मी के हाथ से एक सेल्फ-लोडिंग रायफल छीन के उससे फायरिंग की थी उसे १६ अगस्त को गिरफ्तार किया गया. अब्दुल कादीर महम्मद युनुस अन्सारी को बिहार से २८ अगस्त को अमर जवान ज्योती को नुकसान किये जाने के जुर्म में गिरफ्तार किया गया. क्या संजय निरुपम इस बात को झुठला सकते है की यह दोनो काँग्रेस पार्टी से रिश्ता रखते थे? क्या संजय निरुपम इस बात को झुठला सकते है की गिरफ्तार किये गये ४३ लोगों मे से बहुतांश लोग काँग्रेस पार्टी के सदस्य थे?  मौलाना अख्तर (उलेमा बोर्ड के अध्यक्ष) और सईद नुरी (रझा अकादमी के सेक्रेटरी) जिन्हे गुनाह करने की साजीश, खून करना, सार्वजनिक प्रॉपर्टी को नुकसान पहुंचाना, गैरकानूनी सभा, और हिंसा करने के आरोप लगाये गये थे - क्या संजय निरुपम इस बात को झुठला सकते है की उनका इन दोनों के साथ करीबी संबंध है? क्युं संजय निरुपमने बादमें इन्ही देशद्रोही इस्लामी धर्मांधों को भरी संसद में बचाव किया था?

माटुंगा डिव्हिजन की एक महिला ट्रॅफिक हवालदार सुजाता पाटील ने एक पुलिस द्वारा प्रकाशित किये जाने वाले संवाद नाम के मॅगजीनमें आझाद मैदान इसी नाम से एक कविता लिखी छपवाई:

हम न समझे थे बात इतनी सी,
लाठी हाथ में थी
पिस्तौल कमर पे थी,
गाड़ियाँ फूंकी थी
आँखे नशीली थी,
धक्का देते उनको तो भी वो जलते थे,
हम न समझे थे बात इतनी सी,
होंसला बुलंद था,
इज्जत लुट रही थी,
गिराते एक एक को,
क्या जरुरत थी इशारो की,
हम न समझे बात इतनी सी,
हम न समझे बात इतनी सी,
हिम्मत की गद्दारों ने,
अमर ज्योति को हाथ लगाने की,
काट देते हाथ उनके तो
फ़रियाद किसी की भी ना होती,
हम न समझे बात इतनी सी
भूल गये वो रमजान
भूल गये वो इंसानियत,
घात उतार देते एक एक को,
अरे, क्या जरुरत थी किसी से डरने की,
संगीन लाठी तो आपके हाथ में थी
हम न समझे थे बात इतनी सी,
हमला तो हमपे था,
जनता देख रही थी,
खेलते गोलियों की होली तो,
जरुरत न पड़ती रावण जलाने की,
रमजान के साथ दिवाली भी होती
हम न समझे थे बात इतनी सी,
सांप को दूध पिलाकर
बात करते है हम भाईचारा की,
ख्वाब अमर जवानों के,
जनता भी डरी डरी सी,
हम न समझे बात इतनी सी
हम न समझे बात इतनी सी

इस कविता की कुछ अपेक्षित लोगों ने जमकर आलोचना की. फिल्म निर्देशक महेश भट्ट ने उलटा चोर कोतवाल को डांटे इस कहावत को सच करते हुए इस कविता को अल्पसंख्य समुदाय के प्रति पुलीस के द्वेष का प्रतीक करार दिया और पुलिस को मनोविकार तज्ञ के कुर्सी पर ही बिठा देने का अनुरोध किया. लोगों, यही लोग हैं जो टॉलरन्स की बात किया करते हैं, दंगों को टॉलरेट कर सकते हैं, अमर जवान ज्योती पर हमला टॉलरेट कर सकते हैं, स्वयं की सुरक्षा हेतू पुलिस से रक्षा की अपेक्षा करते हैं लेकिन महिला पुलिसकर्मियों की इज्जत पर दंगाईयों द्वारा हमला होना टॉलरेट कर सकते हैं, लेकिन दंगाईयों के विरोध मे लिखे गये एक कविता को टॉलरेट नहीं कर सकते.

लोगों, अब आज की तारीख में लौट आईये. यह सिर्फ आप को याद दिला ने के लिये था की संजय निरुपम और महेश भट्ट जैसे नीच लोगों से जिनकी नियत क्या है उस पर अभी प्रकाश डाला है, उनके देशविरोधी वक्तव्योंसे आहत होना व्यर्थ है. इन सापों को दूध किसने पिलाया है? आपने. इनको व्होट किसने दिये हैं? आपने. इनकी फिल्में किसने देखी हैं और उस द्वारा इनकी जेबें किसने भरी हैं? आपने.

मित्रों, अपेक्षाभंग तभी होता है जब किसीसे कोई अपेक्षा हो. शुरवात में को वाक्य लिखा था वह फिरसे दोहराता हूं. "बेन्नु बिडद पिशाचि होन्नु कोट्टरे निंतीते". अर्थात, आप के पिछे पडा हुआ पिशाच्च उसको सोना देने से (वो जो करने निकला है वो करने से) रुक नहीं जाएगा. तो इस प्रवचन का तात्पर्य यह है की बिना किसी अपवाद के इन्हे सोना देना बंद करो. इन भूतों को सोना देने से कुछ फायदा नहीं. हम इन भूतों को बहिष्कार की लात जरूर मार सकते हैं. तो आगे क्या करना है, या फिर क्या नहीं करना है, आप को पता है.

बाकी जो है, सो हैयी है.

© मंदार दिलीप जोशी

Friday, September 30, 2016

मी - एक हिंदुस्थान


मी सहावीत होतो तेव्हाची गोष्ट आहे. पाचवी झाल्यावर सहावीत माझी शाळा बदलली. मुंबईतल्या आम्ही राहत असलेल्या विक्रोळीतल्या विद्या मंदिर या शाळेतून नाव काढून दादरच्या हिंदू कॉलनी मधल्या तेव्हाच्या किंग जॉर्ज आणि नामांतर करुन राजा शिवाजी विद्यालय झालेल्या प्रतिष्ठित शाळेत मला घालण्यात आलं. नवी शाळा असल्याने आणि घरापासून चांगलीच लांब असल्याने बर्‍यापैकी बावरलेल्या अवस्थेत सुरवातीला मी वावरत असे. सुरवातीला ओळखी पाळखी झाल्या, पण त्याच बरोबर रॅगिंग हा प्रकारही सुरू झाला. मी अरे ला ल्गेच का रे करणारा असल्यामुळे तोंडी रॅगिंगला बरं तोंड देऊ शकत असे.

पण खरी गंमत सुरू झाली चित्रकलेच्या तासाला. पांढर्‍या शर्टावर मागे रंगांचे फटकारे दिसू लागले. रंग तसे निरुपद्रवी असल्याने लगेच धुतलेही जात, पण तरी दिवसभर रंगीत झालेला शर्ट घेऊन वावरणे ही अपमानास्पद बाब होती. पण हा प्रकार नेमकं कोण करतं याचा सुगावा लागलेला नव्हता, कारण मागच्याला विचारावं तर तो आपण या गावचेच नाही असा चेहरा करत असे. सगळे अनेकदा एकमेकांकडे बोट दाखवत असत. त्यामुळे शिक्षिकेला सांगितलं तर तिचा गोंधळ व्हायचा. हा प्रकार सहन केल्याने आधी नकळत तर मग मला जाणवेल अशा प्रकारे शर्ट रंगवला जाऊ लागला. मागच्याला आणि मागे बसणार्‍या इतरांना कडक इशारे वगैरे देऊन झाले. एक दोनदा हात उगारूनही झाला. पण जो पर्यंत मी प्रत्यक्ष बघत नाही तो पर्यंत कुणी दाद देईना. शाळा नवी असल्याने पटकन पंगा घेता येईना.

पण एकदा पाठीवर कुणीतरी ब्रश फिरवतंय अशी पुसटशी शंका आली आणि मी हळूच हातातल्या कंपासच्या आत दडवलेल्या आरशात बघितलं, तर मागचा मुलगा माझ्या शर्टावर चित्रकलेचे प्रयोग करण्यात गुंगून गेला होता.

मला नक्की काय झालं, कोण माझ्या अंगात संचारलं माहीत नाही.

पण अचानक माझा उजवा हात उचलला गेला, हाताची मूठ वळली गेली, मी गर्रकन् मागे वळलो आणि त्याच्या तोंडावर एक जबरदस्त ठोसा मारला.

तो मुलगा बेंचवरुन खाली कोपर्‍यात पडला. त्याचा एक दात तुटला होता, आणि तो भयंकर भेदरलेल्या चेहर्‍याने एकदा माझ्याकडे आणि एकदा आजूबाजूच्यांकडे बघत होता. माझा एकंदर अवतार बघता त्याला कुणाला सांगण्याची सोय नव्हती. ना शिक्षिकेला, ना वर्गातल्या इतरांना. कुठल्या तोंडाने आणि काय सांगणार? मी शेण खाल्लं म्हणून मला शिक्षा झाली हे? ते काही असो, त्या ठोशानंतर माझ्या शर्टावरची चित्रकला बंद झाली हे खरंच.

काल जेव्हा भारतीय सैन्याने 'इनफ इज इनफ' म्हणत अतिरेक्यांची ज्या प्रकारे ठासली, तो काल मारलेला पाकिस्तानला ठोसा मला भूतकाळात घेऊन गेला. मी मारलेल्या ठोशाने त्या मुलाचा एक दात पडला, काल भारतीय सैन्याने मारलेल्या ठोशाने पाकिस्तानचे अडीचशेच्या आसपास दात पाडले. अजून बरेच पाडायचेत, पण एक मारा, लेकिन क्या सॉलिड मारा ना?

 - इनफ इज इनफ जोशी

© मंदार दिलीप जोशी


Friday, September 16, 2016

एका पुरोगाम्याचा कात्रज केला त्याची गोष्ट

पुरोगामी: मी माझ्या मुलीचं लग्न अमावस्येला रात्री बारा वाजता करणार आहे.

मी: अच्छा म्हणजे हा मुहूर्त आहे तर. बरं आहे सगळ्या निमंत्रितांना येता येईल.

पुरोगामी (आता चिडचिड सुरू झालेली आहे): मुहूर्तावर करायचं नाही लग्न म्हणून रात्री बारा वाजता करतो आहे.

मी: अहो म्हणजे शेवटी तो मुहूर्तच ना.

पुरोगामी (आता कपाळावर आठ्या स्पष्ट दिसू लागलेल्या आहेत): काहीही बोलू नका, अमावस्येला लग्न करुन काहीही अशुभ होत नाही हे मला दाखवून द्यायचे आहे.

मी: पण अमावस्या रात्री आठ बत्तीसला संपते आहे.

पुरोगामी (आता हा भडकला) म्हणून काय झालं?

मी: अहो रात्री बारा वाजता खरंच चांगला मुहूर्त आहे. रात्री ९ ते दुसर्‍या दिवशी पहाटे ५ पर्यंत शुभ काल आहे. झकास संसार होणार बघा तुमच्या मुलीचा.

पुरोगामी (पत्रिका माझ्या हातातून खेचून घेत): तुम्ही नाही आलात तरी चालेल.

मी: ख्या ख्या ख्या.

Wednesday, September 14, 2016

पंडित नामा ११ (अंतिम भाग): नदीमार्ग हत्याकांड

हा पंडित नामा मालिकेतला शेवटचा भाग. यात आपण काश्मीरी पंडितांच्या वेचून केलेल्या खूनांच्या दहा वेगवेगळ्या घटना बघितल्या. या भागात एका सामूहिक हत्याकांडाबद्दल आपण वाचणार आहोत. इथे फक्त दहाच अशा घटना वर्णन केलेल्या असल्या तरी अशा असंख्य घटना घडलेल्या आहेत. नोंदवल्या न गेलेल्याही अशा अनेक घटना आहेत पण मुळात हिंदूंच्या जीवाला किंमतच कमी असल्याने त्यांचा शोध घेण्याची तसदीही कुणी घेतलेली नाही.

काश्मीरी पंडित - त्यांना इथून जायचं नव्हतं. पाकिस्तान पुरस्कृत इस्लामी दशतवाद्यांनी त्यांना निर्वासित व्हायला भाग पाडलं. गोळीबार आणि बाँबफेकीने घडवलेल्या अत्याचार व हत्याकांडांच्या प्रभावातून राहती घरंच नव्हे तर सरकारी इमारती व शाळाही सुटल्या नाहीत. त्यांच्या घरातल्या स्त्रीयांवर त्यांच्या डोळ्यादेखत अमानुष बलात्कार झाले. त्यांना हाल हाल करुन ठार मारण्यात आलं. आमची मुंबई, आमचं पुणं, हमारा इंदोर, नम्म बँगळुरू, आमार बांगला, आपणो गुजरात अशा अस्मिता बाळगणार्‍या तुम्हा आम्हांसारखंच त्यांचंही त्यांच्या जन्मभूमीवर प्रेम होतं, काश्मीरवर प्रेम होतं. तिथल्या हिरव्यागार गवताच्या प्रत्येक पात्यावर, शीतल व स्वच्छ जलावर, जमीनीच्या प्रत्येक इंच मातीवर त्यांचं नितांत प्रेम होतं. काश्मीर खोरं सोडताना त्यांना किती मानसिक क्लेष झाले असतील याची कल्पना कदाचित आपण कधीच करु शकणार नाही. प्रेमाने बायकोच्या गळ्यात घातलेलं मंगळसूत्र असो वा घरात पिढ्यानपिढ्या चालत आलेले खानदानी दागिने असोत, कवडीमोल भावाने विकावे लागले...का?  फक्त जीव वाचवून पळून जाता यावं म्हणून. दिल में रखो अल्लाह का खौफ, हाथ में रखो कलाशनिकोव्ह यातल्या अल्लाहच्या खौफला दिलात ठेवायला काहीच आक्षेप नसणार्‍या पण दहशतवाद्यांच्या हातातल्या कलाशनिकोव्हच्या टप्प्यातून बाहेर पडता यावं म्हणून पळून जाताना काहींना बस, ट्रक, इत्यादी वाहने मिळाली तर इतर अनेकांना वेरीनागच्या बर्फाने आच्छादित धोकादायक पर्वतराजीला ओलांडून जवाहर बोगद्यापर्यंतचा प्रवास चक्क पायी करावा लागला.  

काश्मीरमधे या आधीही हिंदूंना इस्लामी आक्रमकांच्या अत्याचारांना सामोरं जावं लागलं होतं, या आधीही ते अनेकदा विस्थापित झाले होते. पण १९८९ च्या सुमारास सुरू झालेल्या या अत्याचारांच्या सत्राने मात्र काश्मीर खोर्‍याच्या लोकसंख्येची रचनाच संपूर्णपणे बदलून गेली. काश्मीर खोरं आता पूर्णपणे इस्लामबहुल झालं. 

काश्मीरात अतिरेक्यांनी घडवलेल्या सामूहिक हत्याकांडांपैकी तीन सगळ्यात भयानक समजली जातात. वंधामा इथे काश्मीरी पंडितांचे झालेले सामूहिक हत्याकांड, अनंतनाग जिल्ह्यातील छित्तिसिंगपुरा येथे २००० साली झालेल्या ३६ शीखांच्या हत्या, आणि २००३ साली नदीमार्ग येथे झालेले पंडित हत्याकांड ही ती तीन हत्याकांडे होत.

१९९० नंतर काश्मीर खोर्‍यात शिल्लक राहिलेल्या काश्मीरी पंडितांची संख्या नगण्य होती. पुलवामा जिल्ह्यातील शोपियान मधल्या नदीमार्ग येथे फक्त ५२ काश्मीरी पंडित राहत असत, ते ही चार कुटुंबांचा भाग होते. 

२३ मार्च २००३ च्या रात्री काही अतिरेकी नदीमार्ग गावात शिरले. अतिरेक्यांना गावात शिरताना पाहून'बंदोबस्तावरचे' पोलीस पार्श्वभागाला पाय लावून पळून गेले. ते तिथे थांबले असते तरी परिस्थितीत काहीही फरक पडणार नव्हताच.अतिरेक्यांनी मशीनगनच्या जोरावर त्यांनी घराघरात शिरून जितक्या हिंदूंनाबाहेर काढता येईल तितक्या हिंदूंना फरफटतघराबाहेर काढण्यात आलं. यात साठी ओलांडलेल्या वृद्धांपासून ते जमेतेम चालायला शिकलेल्या लहान मुलांपर्यंत सगळ्या वयोगटातल्या पंडितांचा समावेश होता. सगळ्यांना एका ओळीत उभं करुन धडाधड गोळ्या घालण्यात आल्या. यात अकरा पुरुष, अकरा महिला व दोन लहान मुलांचा समावेश होता. सर्वात वृद्ध एक ६५ वर्षांचे आजोबा तर सगळ्यात लहान एक २ वर्षांचं मूल होतं.

काही फोटो देतो आहे. त्रास होईल. नाईलाज आहे.




त्या दोन वर्षाच्या निरागस मुलाची काय चूक होती? काय चूक होती त्या उरलेल्या २२ जणांचीही? पाकिस्तानातल्या पेशावरमधल्या शाळेतल्या मुलांना पाकिसाननेच पोसलेल्या अतिरेक्यांनी ठार केलं तेव्हा अचानक मानवतेचा पुळका आलेल्यांनी या प्रश्नांची उत्तरं द्यावीत. 

पण खरं उत्तर एकच. ते हिंदू होते. काश्मीरी पंडित होते. बाकीच्यांप्रमाणे १९९०च्या दशकात पळून न जाता अजूनही काश्मीर खोर्‍यात राहत होते. अतिरेक्यांच्या व त्यांना नियंत्रित करणार्‍या त्यांच्या पाकिस्तानी मालकांच्या मते त्यांनी मरायलाच हवं होतं. 


या हत्याकांडाला जबाबदार असलेल्यांपैकी तीन अतिरेक्यांना मात्र मुंबई पोलीसांनी एका आठवड्याच्या आत म्हणजे २९ मार्च रोजी कंठस्नान घातलं. हत्याकांडात सहभागी असलेल्या एका चौथा अतिरेक्याला एप्रिल मधे अटक झाली. हा हल्ला पाकिस्तानातल्या लष्कर-ए-तय्यबा या अतिरेकी संघटनेच्याच सदस्यांनी केल्याचं उघड झालं.

शासकीय पातळीवरुन पुढे काय झालं? केन्द्र सरकारने पाकिस्तानची 'कडी निंदा' केली. अमेरिकेने पाकिस्तानला नियंत्रण रेषेचा आदर करण्याची एक प्रेमळ टपलीत मारली. राज्य सरकारने 'आम्ही (उरल्यासुरल्या) पंडितांना संरक्षण देऊ त्यांनी काश्मीर खोरे सोडून जाऊ नये' असं पोकळ आणि तितकंच चीड आणणारं भंपक आश्वासन दिलं. 

आजही काश्मीरमधला हिंसाचार थांबलेला नाही. काफीर भारताला काश्मीरमधून पूर्णपणे हुसकावून लावणे हे पाकिस्तानचे प्रमुख उद्दिष्ट आहे. ताजा उसळलेल्या हिंसाचारा मागे राज्य सरकारमधे काफीर देशाच्या काफीर पक्ष असलेल्या भाजपचा असलेला सहभागामुळे उठलेला पोटशूळ आहे. बुरहान वानीचं मारलं जाणं हे फक्त निमित्त. त्यांना दार-उल-हरब (इस्लामच्या नियंत्रणात नसलेला) असलेला काश्मीरच नव्हे तर संपूर्ण भारत देश हा दार-उल-इस्लाम मधे परीवर्तित करायचा आहे.

राज्यात ओतले जाणारे कोट्यावधी रुपये, पर्यटनामुळे मिळणारा महसूल, राज्य व केन्द्र सरकारी नोकर्‍यांत मिळणारे भरपूर आरक्षण आणि देशभरातकाश्मीरी विद्यार्थ्यांना मिळणार्‍या अमाप सवलती यांच्या बदल्यात जर सैन्यावर दगड आणि पेट्रोल बाँब फेकले जाणार असतील आणि रोज दंगली होणार असतील तर त्याला उत्तर हे गोळीनेच दिलं गेलं पाहीजे. भारत सरकारने आता काश्मीरी लोकांना ठणकावून सांगण्याची वेळ आली आहे की भारतीय कायदे मानत नसाल आणि कायदा व सुव्यवस्था राखणार नसाल तर सरळ आपलं चंबुगबाळं उचला आणि तुमचे लाड होतील त्या देशात चालायला लागा, इथली एकही इंच जमीन आणखी मिळणार नाही. गंमत म्हणजे यांना हवी असलेली आझादी पाकिस्तानच्या ताब्यातल्या आझाद काश्मीरला पण हवी आहे. त्यांना पाकिस्तान पासून स्वातंत्र्य हवं आहे. गिलगीट-बाल्टीस्तानलाही स्वातंत्र्य हवं आहे. बलुचिस्तानही गुडघ्याला बाशिंग बांधून बसलाच आहे. तेव्हा सरकारने लवकरात लवकर पाकिस्तान तेरे टुकडे होंगे हा प्रोजेक्ट तडीस न्यायला हवा. 

पण सरकारने यंव करावं आणि त्यंव करावं या पेक्षा आपण काय करु शकतो याकडे लक्ष देऊया. आपल्या शेजारीपाजारी लक्ष ठेवा. काश्मीरी विद्यार्थी भाडेकरू म्हणून ठेवताना काश्मीरी पंडित वगळून कुणालाही जागा देऊ नका किंवा विकू नका. काश्मीरी पंडितांच्या मालकीचे दुकान असेल तर तिथून आवर्जून खरेदी करा व इतर काश्मीरी लोकांकडे आपला पैसा जाऊ देऊ नका. इतकंच काय तर काश्मीर खोर्‍यात पर्यटनालाही जाऊ नका. आपला पैसा हा कुठल्याही प्रकारे आपल्याच हिंदू बांधवांच्या हत्येला कारणीभूत ठरलेल्यांच्या व देशाच्या मुळावर उठलेल्यांच्या खिशात जाऊ देऊ नका. 

कारण आता फक्त सरकारवर निष्ठा ठेऊन ठेविले अनंते तैसेचि रहावे या चालीवर चित्ती समाधान ठेवून जगण्याचे दिवस गेले!

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या मालिकेसाठी मी अनेक संदर्भ वापरले. त्यात प्रामुख्याने दोन पुस्तकांचा समावेश आहे:

१) My Frozen Turbulence in Kashmir - लेखक श्री जगमोहन (भूतपूर्व राज्यपाल, जम्मू आणि काश्मीर)
२) Our Moon Has Blood Clots - राहुल पंडिता

यातले पहिले पुस्तक My Frozen Turbulence in Kashmir काश्मीर समस्येवरच्या माहितीसाठी सगळ्यात अस्सल स्त्रोत मानला जातो. जम्मू आणि काश्मीरचे भूतपूर्व राज्यपाल श्री जगमोहन यांनी त्यांच्या कार्यकालात राज्यात इतकं भरीव काम केलं होतं, की त्यांचे शत्रू देखील त्यांचे नाव आजही आदराने घेतात. आज काश्मीर आपल्या हातातून गेलेलं नाही याचं श्रेय या माणसाला जातं. त्यामुळे कुणाला काश्मीर समस्येवर काही वाचन करायचं असल्यास सगळ्यात आधी हे पुस्तक वाचा इतकाच सल्ला देऊन मी थांबणार नाही, तर ते विकत घ्या व संग्रही ठेवा असा माझा आग्रह असेल. या पुस्तकाचा मराठी अनुवाद उपलब्ध आहे.

दुसरं पुस्तक Our Moon Has Blood Clots हेस्वतः एका काश्मीरी निर्वासिताने म्हणजे राहुल पंडिताने लिहीलेलं असल्याने ते सुद्धा वाचायला हवं. मात्र हे पुस्तक वाचून माझी निराशा झाली कारण लेखकाने त्यात बरंच पाणी घातलेलं आहे. इकडून तिकडून किस्से उचलून पुस्तकात टाकण्याचे चमत्कारही लेखकाने केलेले आहेत. कारण पुस्तकात असलेलेच किस्से इतर अनेक स्त्रोतात अधिक तपशीलातही सापडतात. राहुल पंडिताचा उल्लेख स्वतः अनेक काश्मीरी पंडितही आदराने करत नाहीत. राहुल पंडित यांची नक्षलवादाबद्दलची सहानूभूतीपर मते आणि आमीर खानची इंटॉलरन्सवरची इतरत्र केलेली भलामण विषयांतराच्या भीतीने इथे देत नाही. पण या उल्लेखावरुन वाचकवर्गाने काय ते समजून जावे. तरीही हे पुस्तक स्वतः एका काश्मिरी हिंदूने लिहीलेलं असल्याने किमान एकदा नजरेखालून घालायला हरकत नाही. 

३) आंतरजालावरील काश्मीरी पंडीतांना वाहिलेली पाने व इतर आंतरजालीय स्त्रोत. 

४) ट्विटरवरील काश्मीरी पंडितांची खाती - यांचाही मी ऋणी आहे. ट्विटर आजकाल अनेक चांगल्या वाईट कारणांसाठी चर्चेत आहे पण शोधल्यास त्यावर माहिती आणि ज्ञानाचा खजीना सापडू शकतो. काळाच्या उदरात गडप झालेल्या अनेक गोष्टी तिथे सापडतात आणि अनेकांचे बुरखे टराटरा फाटतात.

५) ही मालिका लिहीताना वेळोवेळी मला प्रोत्साहन देणारा एक अनामिक मित्र. त्याच्याच विनंतीवरुन नाव गुप्त ठेवत आहे.

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© मंदार दिलीप जोशी 
भाद्रपद  शु.१२/१३ शके १९३८

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Monday, September 12, 2016

हिंदूंनो कृपा करुन सर्व धर्म सारखे असं म्हणू नका

- Maria Wirth

या लेखाचं मराठी भाषांतर/रूपांतर:

हिंदूंनो कृपा करुन सर्व धर्म सारखे असं म्हणू नका
- मारीया वर्थ

ख्रिश्चन धर्माच्या अतिशय कर्मठ, दुराग्रही, आणि घुसमटून टाकणार्‍या वातावरणात वाढलेल्या मारीया वर्थ यांच्याकडून ही निरीक्षणे आलेली आहेत. मारीया वर्थ ख्रिश्चन धर्मात जन्मल्या आणि वाढल्या असल्या तरी त्या हिंदू धर्मातला स्वातंत्र्य व मोकळेपणा या गोष्टींच्या नेहमीच प्रसंशक राहिल्या आहेत. हिंदू धर्म हा एक परिपूर्ण आयुष्य जगण्यासाठी सर्वोत्कृष्ठ पर्याय असताना काही हिंदू आपल्या हिंदू असण्याची जवळ जवळ लाज बाळगल्यासारखं करतात ही बाब मारीया यांच्यासाठी नेहमीच कोड्यात टाकणारी राहीली आहे.

आता वाचूया मारीया यांची निरिक्षणे:
हिंदू आधी म्हणायचे, "सर्व धर्म सारखे". दुर्दैवाने हिंदूंना एक तर हे दिसत नव्हतं किंवा दिसत असलं तरी मान्य करायचं नव्हतं की जगातले सगळ्यात मोठे दोन धर्म ही समानता मान्य करायला कधीच तयार नव्हते. हे दोन्ही धर्म म्हणतात, "आमचाच धर्म खरा. आमचाच देव हाच एकमेव सर्वशक्तीमान आणि खरा परमेश्वर." "सर्व धर्म सारखे" या गोष्टीवर विश्वास ठेऊन हिंदू धर्मीय त्यांच्या धर्माला ख्रिश्चन व इस्लाम धर्मांच्या पातळी पर्यंत आणू इच्छितात ही ख्रिश्चन व इस्लाम धर्मीयांच्या दृष्टीने चेष्टेचा व दया दाखवण्याचा विषय होता. अर्थातच ख्रिश्चॅनिटी व इस्लाम अशा समानतेला कधीच मान्यता देणार नाहीत हे उघड होतं.

आता हिंदूंचं वृत्ती असते, "आम्ही सर्व धर्मांचा आदर करतो. आम्ही हे आमच्या मुलांना शिकवतो. ख्रिश्चॅनिटी व इस्लाम बाबत आमच्या मुलांच्या कानावर येतं असतं की हे दोन्ही धर्म किती छान आहेत. आम्हाला कुणाला दुखवायचं नसल्याने आम्ही मुलांना हिंदू धर्माबद्दल फारच कमी शिकवतो आणि जे शिकवतो ते फारच वरवरचं असतं - म्हणजे उत्सव आणि काही प्रथा वगैरे. आम्ही अजिबात खोलात जाऊन हिंदू तत्त्वज्ञान आणि आपल्या धर्माला असलेलं वैज्ञानिक अधिष्ठान या बाबत काहीच सांगत नाही. कारण एक तर मुळात आम्हाला त्याबद्दल काही माहीत नसतं आणि असलं तरी न सांगितलेलंच बरं कारण उगाच हिंदू धर्म सगळ्यात चांगला हे त्यातून स्पष्ट झालं तर इतर धर्मीयांच्या भावना दुखावल्या जातील ना!"

लक्षात घ्या, हिंदू धर्मीयांना मुळातून हे समजूनच घ्यायचं नसतं की ख्रिश्चॅनिटी व इस्लाम हे हिंदू धर्माचा आदर करत नाहीत. त्या धर्मांचे मौलवी आणि पाद्री हे हिंदूंना हे उघडपणे सांगत नसले, तरी स्वधर्मीयांना सतत सांगत असतात, की "आपल्या धर्मात आले नाहीत, आपल्या देवाचं अस्तित्व कबूल केलं नाही, तर हिंदू नरकात जातील. आपण त्यांना अनुक्रमे जीझस आणि आकाशातला बाप व मोहम्मद आणि अल्लाह यांच्या विषयी सांगूनही ते इतके जिद्दी आणि मूर्ख आहेत की त्यांच्या खोट्या देवदेवतांना ते अजूनही चिकटून आहेत. ही त्यांची घोडचूक आहे. पण गॉड/अल्लाह महान आहे. तो त्यांना त्यांच्या या चुकीची शिक्षा म्हणून असह्य नरकयातना देईल."

हिंदूंच्या "आम्ही सर्व धर्मांचा आदर करतो" या मताचं एक प्रतिरूप म्हणजे "सगळे धर्म एक उत्तम आणि चारित्र्यवान माणूस कसं व्हावं हे शिकवतात आणि माणसाला त्याच्या निर्मात्याकडे नेण्याचा, म्हणजेच परमेश्वराची भेट घडवून देण्याच्या दृष्टीने प्रयत्न करतात." म्हणून मग हिंदू सर्वधर्मीय चर्चासत्रांमधे भाग घेतात आणि सगळ्या धर्मांमधल्या समान बाबी शोधण्याचा प्रयत्न करतात. अर्थातच काही समान बाबी आहेतच, पण त्या सापडल्या रे सापडल्या की हे हिंदू त्यावर समानतेचे ईमले बांधत सुटतात. "हो, सगळ्या धर्मात चांगल्या बाबी आहेत. हो, सगळ्या धर्मात चांगले लोक असतात". सगळे धर्म चांगल्या गोष्टी शिकवतात ही पोपटपंची हिंदूकडून इतक्या वेळा केली जाते जणू काही ही गोष्ट ते स्वत:लाच समजावत असावेत.

पण खरं सांगायचं झालं तर हिंदूंना कुठेतरी मनाच्या एका कोपर्‍यात हे ठावूक असतं की यात काहीही तथ्य नाही. हिंदूंना हे माहित असतं की ख्रिश्चॅनिटी व इस्लाम हे केव्हाच पथभ्रष्ट होऊन वेगळेपणाचा पुरस्कार आणि हिंदूंचा द्वेष करु लागले आहेत. या दोन्ही धर्मांनी नेहमी इतर धर्मीयांचा छळ केला आहे आणि असंख्य हुशार व चांगल्या व्यक्तींचा बुद्धीभेद करुन त्यांना अशा एका काल्पनिक परमेश्वरासाठी लढायला प्रवृत्त केलं आहे की जो त्याच्यावर विश्वास न ठेवणार्‍यांचा आत्यंतिक द्वेष करतो. ख्रिश्चॅनिटी व इस्लाम या दोन्ही धर्मांचा इतिहास हा रक्तलांछित आहे. पण हिंदूनी आजवर याकडे दुर्लक्ष करणंच पसंत केलेलं आहे. जवळ जवळ एक हजार वर्षांच्या दमनचक्रातून जाऊनही "उगाच का डिवचायचं कुणाला" ही घात करणारी भावनाच ते अजूनही जोपासत आहेत.

तुम्हाला असं वाटत नाही का की आता हिंदूंनी नागड्याला नागडं म्हणायला सुरवात केली पाहीजे? स्वामी विवेकानंद म्हणून गेले आहेत की एका हिंदूने त्याच्या धर्माचा त्याग करणे म्हणजे केवळ हिंदू धर्मात एक व्यक्ती कमी इतकाच त्याचा अर्थ होत नाही तर हिंदूंच्या शत्रूमधे एकाची भर असा त्याचा अर्थ होतो". स्वामीजींच्या मते ब्रिटीश राज्यात ख्रिश्चन व मुसलमान जनतेस श्रेष्ठत्वाची भावना जोपासण्यास सर्वतोपरी प्रोत्साहन दिले जायचे.

या विरोधात हिंदूंना या विरोधात काहीही करता येईना कारण त्यांची बाजू घेऊन ब्रिटीश सरकारशी भांडायच्या ऐवजी त्यांचे अनेक आंग्लाळलेले नेते ब्रिटीशांच्या घातक शैक्षणिक धोरणामुळे जाणते किंवा अजाणतेपणाने हिंदुत्वाचा सातत्याने अपमान करण्यात गुंतलेले होते. दुर्दैवाने स्वातंत्र्यानंतरही हेच नेते सत्तेवर आल्याने तेच धोरण पुढे राबवले गेले. आता स्वातंत्र्याला एकोणसत्तर वर्ष झाल्यावर मात्र हिंदू धर्म म्हणजे काय हे जगाला उच्चरवाने व निर्भीडपणे सांगण्याची वेळ आलेली आहे.

हिंदुत्वाचा अर्थ जगावर राज्य करणे नव्हे. हिंदुत्व म्हणजे कुठलाही पुरावा न देता पुढे रेटलेल्या एखाद्या अतार्किक समजूतीवर आंधळेपणाने विश्वास ठेवणे नाही. हिंदुत्व म्हणजे स्वतःच्या धर्म तो बाळ्या आणि इतरांचं ते कार्टं हे सुद्धा नव्हे. तर हिंदुत्व म्हणजे शरीर व मनाच्या पलीकडे जाऊन सातत्याने आपण कोण आहोत (आत्मन) याचा घेतलेला शोध होय. या भूमीतल्या प्राचीन काळच्या ॠषीमुनींना विविधतेमधे एकता म्हणजे काय याचा अर्थ केव्हाच कळला होता, अगदी पाश्चात्य समाजशास्त्रज्ञांच्या खूप आधी. सुखतत्वाचा शोध कुठेही बाहेर घेणे उपयोगाचे नसते, तर हे तत्त्व आपल्या सगळ्यांच्यात (इतकेच नव्हे तर चराचरात) भिनलेले असल्याने त्याचा शोध प्रत्येकाने स्वतःमधेच घ्यायचा असतो. याचाच अर्थ आपण सारे एकाच इश्वरी तत्त्वाचा अंश आहोत. आपण सगळे एका विशाल कुटुंबाचा भाग आहोत. वसुधैव कटुम्बकम् - सगळ्या विश्वाला एक कुटुंब मानणारी ही धारणा सर्वसमावेशक आणि म्हणूनच अधिक स्वीकारार्ह नव्हे काय?!

- मारीया वर्थ

ता.क. मारीया वर्थ यांचा लेख वाचत असताना मला पु.ल.देशपांडे यांच्या म्हैस या कथेतल्या बगुनाना या व्यक्तीरेखेची आठवण आली. बगुनाना हे उस्मान शेठ या मुसलमान व्यक्तीरेखेच्या डब्यातले आमलेट खाताना, "तुम्ही काहीss म्हणाss उस्मानशेssssठ, सर्व धर्म सारखे." यावर कथाकथन ऐकत असलेल्या प्रेक्षकांत हशा उसळतो. पण यातल्या कळीच्या शब्दांकडे सगळ्यांचंच दुर्लक्ष होतं. ते म्हणजे "तुम्ही काही म्हणा". उस्मानशेठ म्हणोत की न म्हणोत, आम्ही मात्र सर्व धर्म सारखे म्हणत त्यांच्या डब्यातलं आमलेट जिभल्या चाटत हाणणार. पण उज्जैनमधले मदरसे इस्कॉन मंदिरातून पुरवल्या जाणार्‍या दुपारच्या जेवणाला 'इस्लाम खतरे में हैं' ची आरोळी देत झिडकारतात त्याकडे मात्र आम्ही दुर्लक्ष करणार.

अशा हिंदूंना एकच सांगावंसं वाटतं.....

आता तरी म्हणू नका सर्व धर्म सारखे.
म्हणणारे केव्हाच झाले जीवाला पारखे

काय समजलात?

© मंदार दिलीप जोशी
भाद्रपद शु. १०, शके १९३८