Friday, December 9, 2016

घरवापसी के शत्रू

इस विषय में मैं बहुत आगे की सोच रहा हूं. परंतु इतिहास में की गयी मूर्खतापूर्ण गलतीयों से अगर हम आज नहीं सीखेंगे तो पहले जो संकट आये थे उस की तूलना में कई अधिक तीव्रता के संकटों का हमको सामना करना पडेगा. और इस बार जो होगा वह सर्वनाश की ओर ले जाने वाला संकट होगा.

इस्लाम किस तरह से धर्म परिवर्तन करता है यह हम कई सालों से देखते आ रहे हैं. इतिहास में दीन के बंदों ने तलवार की जोर से कईं धर्म परिवर्तन किए. आज तलवार का जोर शायद न चले इसी लिए लव्ह जिहाद जैसे शातिर तरीके अपनाए जा रहे हैं. इसाई धर्मपरिवर्तन करने वालोंने इनसे अधिक बुद्धिमान एवं संयमी होने के कारण तलवार से साथ साथ शांतीपूर्ण मार्ग भी अपनाये. परंतु हमें सिर्फ तलवार का मार्ग दिखाई देता है, दिमाग का नहीं. तलवार से किए हुए धर्मपरिवर्तन की घरवापसी हमें शिवाजी महाराज के सरदार नेताजी पालकर के उदाहरण के रूप मे दिखती है (फिर भी वह घरवापसी महाराज ने की थी, और महाराज के सामने बोलने की किसकी हिंमत हो सकती है? जाने दीजीए, यह विषय परिवर्तन हुआ.) लेकिन दिमाग से किए हुए धर्मपरिवर्तन की घरवापसी पर हमनें अपनें ही कर्मों तथा वचनों से ताला लगा दिया.

हमारे महाराष्ट्र में हुए कुछ घटनाओं को सुनकर मेरा खून खौल उठता है. भारतवर्ष में ब्रेड यानी की पाव लाया अंग्रेजों ने. जब अंग्रेजों का राज आया तो यहां कोई भी ब्रेड नहीं खाता था क्युंकि वह तो गोरे लोगों का यानी की इसाईयों का खाना था. हमारे शत्रू का खाना था. लोगों ने यह ठान लिया की जो भी व्यक्तिविशेष ब्रेड खाता है वह हमारा शत्रू है. इस बात का शातिर दिमाग अंग्रेज फायदा न उठाते तो ही आश्चर्य की बात थी. उन्होंने एक बडी जबरदस्त कल्पना को अंजाम दिया जिससे कम से कम कष्ट में धर्मपरिवर्तन का कार्य बडी आसानी से कर सकते थे. किसी तरह बहला फुसला के ब्रेड खिलाना, और फिर यह बात फैलाना की फलाना आदमी ने ब्रेड खाया है यह बात उस ब्रेड खाने वाले व्यक्ती का सामाजिक बहिष्कार कराने के लिए पर्याप्त थी. इसका परिणाम आगे बताता हूं. लेकिन इस उपाय से भी एक बडा आसान उपाय था. जब लोग ब्रेड खाने से मना करने लगे तो अंग्रेज ब्रेड या उसके टुकडे गांव के किसी चहल पहल वाले कुए में फेका करते थे जहां बहुत लोग पानी पीने आते हों. ऐसे जगह हुई घटनाएं गांव में ऐसे फैल जातीं जैसे गर्मी के मौसम में किसी वन में अग्नि का फैल जाना. जैसे की पहले लिखा है, ऐसे व्यक्ती या व्यक्तीयों का सामाजिक बहिष्कार किया जाता यह समझकर की वह व्यक्ती ब्रेड से 'दूषित' जल को प्राशन करके इसाई बन चुका/के हैं. यह हमारी ऐतिहासिक मूर्खता नहीं तो और क्या है? अजि ब्रेड को फेंक दिजीये और पानी पी कर काम पे लग जाईये. लेकिन ऐसी सूझबूझ उस समय के बहुतांश लोग नहीं दिखा पाये और लगभग शून्य कष्ट करके इव्हॅन्जलिस्ट लोगों ने कईयों को अपनी गिरोह में सम्मिलित किया. हां गिरोह में. क्युंकि जो धार्मिक पुस्तक यह कहता है कि अगर तुम हमारे भगवान को नहीं मानते हो तो तुम जीवित होते समय आध्यात्मिक दृष्टीसे एवं मरणोपरांत नर्क में कयामत तक आग में झुलसोगे, तो ऐसे लोगों को धर्म नही गिरोह ही कहना उचित होगा.

तो मैं यह कह रहा था, कि उस समय के पुरोहितों ने या समाज के बडे बूढों ने क्या यह कहना उचित नहीं था की अरे ब्रेड खा लिया तो क्या हुआ? चलिये ब्रेड को फेंकिये और एक स्नान कर लिजीये, और कुछ अधिक की अशुद्धता का आभास हो तो एक दिन का उपवास रख लिजीए, तो आप हो गये शुद्ध. या फिर अगर ऐसा मानना हो की आप ब्रेड खाने से इसाई हो गये हैं तो चलिये एक पूजा रखते हैं जिससे की आप फिरसे आपने आर्य सनातन धर्म में आ जायेंगे. या फिर एक यज्ञ का आयोजन करते हैं जिससे आप पुनः शुद्ध बनकर हिंदू हो जायेंगे.

परंतु बाकी विषयों मे पारंगत हमारे गुरुजनों तथा समाज के प्रबुद्ध नागरिकों ने इसमें से कोई भी उपाय नहीं किया. अगर किया तो बताईए, क्युंकि मुझे नहीं पता. ब्रेड खाने वाले व्यक्ती एवं ब्रेड या ब्रेड का टुकडा पडे हुए कुए में से पानी पीने वाले का तत्काल बहिष्कार किया गया और उसे अपने हिंदू धर्म में वापसी करने के सारे मार्ग बंद कर दिये गये.

ऐसी अनेक कल्पनाएं होंगी जिससे धर्मपरिवर्तन कर दिया गया होगा. तो अब आप सोचेंगे इसका ट्रिपल तलाक तथा कॉमल सिव्हिल कोड से क्या संबंध?

यह रामायण बताने का उद्देश यह है कि अगर कम इस इतिहास से सीख लें तो इस्लाम से घरवापसी करने वाले लोगों को हिंदू समाज मे सहजतापूर्वक सम्मिलित (assimilate) कर सकेंगे. मान लिजीये की कोई मुस्लीम युवती हिंदू हो जाती है. लेकिन उसके भविष्य का उसे सोचना ही होगा. अगर उसे विवाह करना है तो उसे हिंदू वर कैसे मिलेंगे? इसके दो पहलू हैं. एक तो सामाजिक स्तर पर जैसे जातीयों से संबंधित विवाह मॅरेज ब्युरो होते हैं, उसी तरह दूसरे धर्म से हिंदू धर्म में आने वाले युवाओं के लिये विवाह मार्गदर्शन संस्थाओं का होना आवश्यक है. यह आवश्यक नहीं की ऐसी संस्थाएं रजिस्टर्ड हों. यह भी आवश्यक नहीं है की संस्थाएं ही हों, उन के साथ साथ अनौपचारिक गुटों का भी योगदान हो सकता है. अकेले व्यक्ती भी मार्गदर्शक हो सकते हैं. लेकिन अधिक परिणाम के हेतू संस्थाओं का होना आवश्यक होगा.

हमारे हिंदू समाज से कोई आगे आकर उसे धर्मपत्नी के रूप मे स्वीकार करने का साहस कर सकेगा? क्या उसके घरवाले, कल्पना किजीये की आप ही ऐसे युवक के माता पिता हैं, क्या आप ऐसी मुस्लीम अथवा इसाई युवती को अपने घर की लक्ष्मी, अपनी बहू बनाके का ढाढस बंधा पाएंगे? उसे बहू बनाकर अपने संस्कारों मे ढालने का कष्ट उठा पायेंगे? अगर आपका उत्तर 'नहीं' है, तो घर में पंखे के नीचे या एसी में बैठे बैठे घरवापसी पर पोस्ट पेलना व्यर्थ है.

मुझे यह ज्ञात है कि जैसे कपडे बदलते हैं वैसे इस्लाम को छोडना संभव नहीं. दमन क्या होता है यह इस्लाम में रहने से ही समझ में आता हैं. हिंसा भी होगी अगर ऐसे लोग इस्लाम छोडने लगे.

इस हिंसात्मक प्रतिक्रिया का मुझे पूर्ण रूप से ज्ञान है. लेकिन मेरा उद्देश्य कुछ अलग है. मुझे हिंदूओं की उस मानसिकता पर उंगली उठानी है, जिससे हम जीते हुए युद्ध हमारे ही तकियानूसी खयालातों के कारण हार जाते हैं, जबकि बाकी सारे कारण हमारे पक्ष में होते हैं. जैसे की अर्थशास्त्र में हर सिद्धांत "Other things being equal..." इन शब्दों से शुरुवात होती है.

बहुत बोल चुका, लेकिन एक और उदाहरण देना आवश्यक समझता हूं. टेनिस खिलाडी विजय अमृतराज आपको याद होंगे ही. १९७३ में वह विम्बलडन सिंगल्स विजेता बनते बनते रह गये थे. क्वार्टर फाइनल मे जॅन कोड्स के सामने खेलेते हुए विजय के सामने ऐसा क्षण आया की कोड्स के शॉट पर उन्हे सिर्फ एक आसान सा स्मॅश मारना था. अगर वह स्मॅश सफलतापूर्वक मारते, तो उनके लिये वह मॅच जीतना तय था. लेकिन ऐन समय पर हिंमत हार कर उन्होंने यह मौका गवां दिया और मॅच हार गये. कोड्स आगे जाकर विम्बलडन का किताब जीत गये.

कुछ समझ में आया? अगर आया तो ठीक, वरना जो है, सो हयई है!

© मंदार दिलीप जोशी
मार्गशीर्ष शु. १०, शके १९३८

No comments:

Post a Comment