Friday, December 9, 2016

ट्रिपल तलाक और घरवापसी

ट्रिपल तलाक और समान नागरी कायदे को लेकर मुझे एक बात बहुत दिनों से खाए जा रही है.

एक भी हिंदू नेता - हां - एक भी हिंदू नेता - ना राजनेता, ना योगीबाबाजी, ना कोई साधू महाराज - मुस्लीम महिलाओं तथा सामान्य मुसलमानों से यह नहीं कह रहे हैं की अगर ऑल इंडिया मुस्लीम पर्सनल लॉ बोर्ड आपके मानवाधिकारों का दमन कर रहा है, और आप इस बात को मान चुके हैं की इस्लाम में तीन बार तलाक और हलाला हो या और किसी अधिकार की बात, सुधार की कोई संभावना नहीं है, तो इस्लाम छोड हिंदू धर्म मे प्रवेश किजीए. यहां आपको न केवल समान अधिकार मिलेंगे बल्कि आपके अधिकार पुरुषों से भी अधिक होंगे तथा न्याय व्यवस्था भी आप के याने महिलाओं की तरफ पक्षपात करेगी.

हां, इस घोषणा या यह परिणाम संभव नहीं की हजारों की संख्या में मुस्लींम महिलाएं और कुछ मुस्लीम पुरुष बगावत करके हिंदू धर्म मे प्रवेश करें. इसके कारण अनेक हैं जिस विषय में मेरे फेसबुक मित्र Anand Rajadhyakshaजी ने बहुत समय पहले लिखा था. परंतु किसी प्रभावशाली नेता या साधूबाबा के केवल ऐसी घोषणा करने के सकारात्मक मनोवैज्ञानिक परिणाम संख्या तथा प्रभाव में बहुत बडे हो सकते हैं.

युद्ध केवल शस्त्रों से अर्थात शरीर से नहीं अपितु मनोवैज्ञानिक अस्त्रों से भी खेला जाता है. लेकिन हम इसमें पीछे छूट रहे हैं. इस विषय में मुझे पुरानी पडोसन फिल्म के एक सीन का स्मरण हो रहा है. संगीत शिक्षक मास्टर पिल्लई का किरदार निभाने वाले मेहमूद अपने प्रेम प्रतिस्पर्धी भोला याने सुनील दत्त से एक झगडे के दरम्यान कईं बार कहतें हैं, "तुम आगे नै आना", "तुम आगे नै आना". लेकिन भोला और आगे आता जाता है. आखिर में मास्टरजी के "तुम आगे आना?" इस प्रश्न पर भोला डटकर कहता है, "हां". इस पर हार मानते हुए मास्टरजी, "तुम आगे आना? अच्छा तो हम पीछे जाना" यह कहकर पीछे हट जाते हैं.

तो है कोई माई का लाल ऐसी घोषणा करने वाला? या फिर "तुम आगे आना?" इस प्रश्न पर हम ही "पीछे जाना" करेंगे? कुछ समझे? अगर समझे तो ठीक. वरना जो है, सो हयई है!

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अगला भाग: घरवापसी के शत्रू
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© मंदार दिलीप जोशी
मार्गशीर्ष शु. १०, शके १९३८

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