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Sunday, February 5, 2017

भन्साली पॅटर्न

ये सारा कहाँ से शुरू हुआ है, पता है? भन्साली का पैटर्न समझ लें आप!

रामलीला
पहले उसने फिल्म का नाम रखा था 'रामलीला'! बाद में बवाल मचने पर बदल कर 'गोलियों की रासलीला रामलीला' रख दिया। मूल नाम और बदल कर रखे नाम दोनों में ही मक्कारी साफ झलकती है।

फिल्म का नाम कुछ और भी तो रखा जा सकता था। यह जिस कदर ठेठ मसाला (या गोबर) फिल्म थी, अस्सी या नब्बे के दशक की किसी भी फिल्म का नाम इसके लिए चल जाता, जैसे कि आज का गुंडाराज, खून भरी मांग, खून और प्यार... कुछ भी चल जाता! लेकिन नामकरण हुआ 'राम लीला'। भारत का सामूहिक आराध्य दैवत कौन है? राजाधिराज रामचंद्र महाराज। तो उसपर ही हमला किया जाए, जिस पर आपको गर्व हो! आप जिसे पूजते हो, आप जिनका का आदर्श के तौर पर अनुसरण करने की कोशिश कर रहे हो, उसी श्रद्धा स्थान पर हमला किया जाए!

राम भक्ति करते हो? राम मंदिर बनाना चाहते हो? रुको! एक दो कौड़ी का भांड़ और उससे भी टुच्ची एक नचनिया लेकर मैं एक निहायत बकवास फिल्म बनाऊँगा, और नाम रखूँगा 'रामलीला'! आप कौन होते हो आक्षेप लेनेवाले? अपमान? इसमें कहाँ किसी का अपमान है? यह फिल्म के नायक का नाम है। लीला नामक नायिका के साथ रचाई गई उसकी लीलाएँ दिखाई जाएगी, तो 'रामलीला' नाम गलत कैसे हुआ भाई?

वैसे नाम बदलते हुए भी क्या शातिर खेल खेला गया है, जानते हैं? 'गोलीयों की रासलीला रामलीला' यह बदला हुआ नाम है। रासलीला यह शब्द किससे संबंधित है? भगवान श्रीकृष्णसे। देखा? रामलीला नाम रख एक गालपर तमाचा जड़ा गया। और उसका नपुंसक, क्षीण विरोध देख भन्साली ने भाँप लिया कि यहाँ और भी गुंजाइश है, और बदले हुए नाम से उसने आप के दूसरे गाल पर और पाँच उंगलियों के निशान जड़ दिए!

एक बेकार-से फिल्म के नाम के साथ खिलवाड़ कर उसने आप को यह बताया है कि आप कितने डरपोक हैं। आप के विरोध का संज्ञान लेते हुए फिल्म का नाम बदलते हुए भी वह आप का अपमान करने से नहीं चूका। और आप ने उसी फिल्म को हिट बनाया! निरे बुद्धू हो आप!

बाजीराव-मस्तानी
हिंदूंओंपर हमले को एक फिल्म में अंजाम देने के बाद अगला पड़ाव था मराठी माणूस. मराठी समाज को तोड़ने की कोशिशें एक लंबे समय से जारी है। अस्सी के दशक से ही यह काम चल रहा है। और जो तरकीबें हिंदुओं का अपमान करने के लिए प्रयुक्त होती है, उनमें एक महत्त्वपूर्ण बदलाव ला कर मराठी समाज में भेदभाव के बीज बोने के काम में लाया जाता है। मराठा, दलित और ब्राह्मण इनको यदि आपस में भिडाए रखो, तो मराठी इन्सान की क्या बिसात कि वह उभर कर सामने आए!

सनद रहे, इन तीन वर्गों में बड़ा भारी अंतर है। दलितों का, उनके नेताओं का या फिर उनके प्रतीकों का अपमान होने का शक ही काफी है किसी को सलाखों के पीछे पहुंचाने के लिए! महाराष्ट्र में दलित उत्पीड़न प्रतिबंधन कानून के तहत पुलिस कंप्लेंट हो तो पुलिस तत्काल धर लेती है। बेल नहीं होती, बंदा लंबे समय तक जेल की हवा खाता है। प्रदर्शन और हिंसा की संभावना अलग से होती है। मराठा समाज स्थानिक दबंग क्षत्रिय जाति है। उसके प्रतीकों को ठेस पहुंचाओ तो संभाजी ब्रिगेड जैसे उत्पाती संगठनों के आतंक का सामना करना पड़ता है।

तो फिर जिनके प्रतीकों और आदरणीय व्यक्तित्वों पर आसानी से हमला किया जा सकता है, घटिया से घटियातर फिल्म उनके श्रद्धास्थान के बारे में बनाने पर भी जो पलटवार तो क्या, निषेध का एक अक्षर तक नहीं कहेंगे, ऐसा कौन है? सबसे बढ़िया सॉफ्ट टार्गेट कौन? ब्राह्मण।

आपके सबसे पराक्रमी पुरुष कौन? इस पर दो राय हो सकती है। उन पर्यायों में आप को जिसके बारे में जानकारी कम है, लेकिन जिसका साहस और पराक्रम अतुलनीय आहे ऐसे किरदार का चुनाव मैं करूँगा। श्रीमंत बाजीराव पेशवा और उनका पराक्रम मैं इस तरह बचकाना दिखाऊँगा कि रजनीकांत की मारधाड़ की स्टाइल भी मात खा जाए! एक आदमी तीरों की बौछार को काटता हुआ निकल जाए, ऐसा सुपरमैन! दिखाऊँगा कि मस्तानीके प्यार में पागल बाजीराव अकेले ही शत्रु सेना से भिड़ जाता है। बाजीराव इश्क में पागल हो सारा राजपाट छोडनेवाला, और सनकी योद्धा था, ऐसे मैं दिखाऊँगा, ताकि पालखेड़ के संघर्ष में बगैर किसी के उंगली भी उठाए, बगैर किसी युद्ध के निजाम शाह को शरण आने पर मजबूर करने वाली उसकी राजनीतिक सूझबूझ दिखाने की जरूरत न पडे! लगातार 40 युद्धों में अजेय कैसे रहे, कितनी बुद्धिमत्ता का परिचय दिया, मस्तानी का साथ कितने वर्षों का रहा... दिखाना जरूरी नहीं होगा। निजाम शेर के सिर पर हाथ फेरते हुए दिखाया जाएगा, और बाजीराव उससे बात करने के लिए किसी याचक की तरह पानी में से चलते हुए सामने खडा दिखाया जाएगा! बाजीराव की माँ पागलपन का दौरा पडी विधवा दिखाई जाएगी। वस्तुतः लगभग अपाहिज पत्नी को हल्की औरत की तरह नचाया जाएगा। बाजीराव खुद मानसिक रूप से असंतुलित और उनके पुत्र नानासाहब दुष्ट और दुर्व्यवहारी दिखाए जाएँगे....

आप क्या कर लोगे? बस, केवल कुछ प्रदर्शन? खूब कीजिए! मैं घर पर बैठे हुए टीवी पर उनका मजा लूँगा। एक सिनेमा हॉल में प्रदर्शन रोकने से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। हाँ, आप के दोनों गालों पर तमाचे जड़ने और पिछवाड़े में एक लात लगाने के पैसे मुझे कबके मिल चुके हैं। देखो, सोशल मीडिया पर एक जाति दूसरीसे कैसे भिडी हुई है!

मैंने आप की कुलीन स्त्रियों को पर्दे पर नहलाया। उनको मनमर्जी नचाया। दालचावल खानेवाले डरपोक लोग हो आप! ब्राह्मणवाद का ठप्पा लगाकर मुझे हिंदुओं को अपमानित करना था, सो कर लिया! ठीक वैसे ही, जैसे और लोग करते हैं। हा हा हा.

पद्मिनी
अब अगला पडाव दूसरी पराक्रमी जाति, राजपूत! आपके आराध्य को चिढ़ाना हो चुका, और जातियों को आपस में लड़ाना हो चुका। अब अगला पायदान चढते हैं। आप की आदरणीय स्त्रियों पर हमला! शत्रु की स्त्रियों का शीलभंग, उनकी इज़्ज़त लूटकर उन्हें भ्रष्ट करना किसी भी युद्ध का अविभाज्य अंग होता है। तो फिल्मों के माध्यम से एक मानसशास्त्रीय युद्ध के दौरान इसे क्यों वर्जित माना जाए?

अनगिनत औरतों की अस्मत लूटनेवाले अल्लाउद्दीन खिलजी ने जब चित्तौड़गढ़ पर हमला किया और चित्तौड़गढ़ के पराजय के आसार दिखाई देने लगे तब शत्रुस्पर्श तो दूर, अपना एक नाखून तक उनके नजर न आएँ, इस सोच के साथ हजारों... हाँ, हजारों राजपूत स्त्रियों के साथ जौहर की आग में कूद कर जान देनेवाली महारानी पद्मिनी से बढकर अपमान करने लायक और कौन स्त्री हो सकती है?

अरे, आपने दो थप्पड़ जड़ दिए, कैमरा तोड़ दिया, मेरे क्रू से मारपीट की। बस्स! इससे अधिक क्या कर लोगे? मुझे इसके पूरे पैसे मिले हैं, मिलेंगे। मेरी जेब पप्पू जैसी फटी नहीं है। आप राजस्थान में लोकेशन पर मना करोगे तो जैसे बाजीराव मस्तानी में किया वैसे कम्प्यूटर से आभासी राजस्थानी महल बनाऊँगा, और हर हाल में यह फिल्म बनाऊँगा, आपकी छाती पर साँप लोटते हुए देखूँगा। और देख लेना, आप ही मेरी इस फिल्म को हिट बनाएंगे!

क्यों, पता है? आप डरपोक हो। खुदगर्ज हो। प्रत्यक्ष भगवान राम के लिए कोई उठ खड़ा नहीं हुआ। बाजीराव के समय लोग ब्राह्मण और मराठी समाज के पक्ष में खड़े नहीं हुए। अबकी देखूँगा, राजपूतों के साथ कौन, और कैसे खड़े होते हो!

क्या उखाड़ लोगे?

घंटा?

#पद्मिनी

मूल मराठी लेखः © मंदार दिलीप जोशी
हिंदी रूपांतर: © कृष्णा धारासुरकर

Saturday, February 4, 2017

स्टॉकहोम सिन्ड्रोम - मेरी मर्जी?

कुछ...या युं कहीये बहुत महिलाओं को लगता है की वह या दुनिया की अन्य विशिष्ठ समुदाय की महिलायें यदि अपने मर्जी से, बाय अवर चॉइस, आप को सर से पांव तक काले कपडे में अपने आप को ढककर और आपका नाखून भी बाहर न दिखे इस तरह ढकने वाले कपडे अगर पहनें तो उसपर टिप्पणी करने का हमें अधिकार नहीं है. ऐसी "ma life, ma choice" जैसे उच्च और उदात्त विचार की महिलाओं को यह निवेदन है कि निन्मलिखित विश्लेषण पढें.

स्टॉकहोम सिन्ड्रोम एक मनोवैज्ञानिक संज्ञा है जिसके अंतर्गत किसी अपहरण किये गये व्यक्ती को अगवा करने वाले व्यक्ती के प्रति अपनापन महसूस होता है. यह अपनापन इस हद तक होता है कि कईं बार बढकर प्यार तक पहूंच जाता है. इतना ही नहीं, अपहरण किये गये व्यक्ती अपहरण करने वाले व्यक्ती या व्यक्तीयों की अनेक प्रकार से पुलीस और जांच एजंसियों के खिलाफ और अपने खुद के परिवारजनो तथा मित्रों एवं सहेलियों के खिलाफ सहय्यता करने लगता है. अर्थात, अपहरण हुए व्यक्ती को अपहरण करने वाला व्यक्ती अपने हितचिंतकों से अधिक अपना मानने लगता है और अपने असली हितचिंतक उसे शत्रूसमान लगते हैं. सोचिये, ऐसा जबरदस्त मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालनेवाला व्यक्ती कितने चालाक मस्तिष्क का होता है.

यह तो बात हुई किसी भी उमर में अगवा किये गये व्यक्तीयों की.

अब कल्पना किजीये. आपके खुद के मां बाप, पडोसी, बहुसंख्य मित्रपरिवार, तथा रिश्तेदार ये सब आपको अपहरण करनेवाले हों तो? बात पल्ले नहीं पड रही? अब कल्पना कर रहे हों तो सोचिये की आप ऐसे किसी परिवार में लडकी बन के जन्म लेते हैं. आप को जन्म लेते ही, अर्थात आप आसपास की दुनिया के प्रति जैसे ही सचेत होने लगते है, आप के हाथ में एक पुस्तक थमाई जाती है और कहा जाता है कि बेटा यही पूरा सत्य है और इस किताब के बाहर कोई सत्य नहीं. इस किताब का हर शब्द हमारे भगवान ने हमारे प्रेषित को बताया है और सिवा हमारे भगवान और हमारे प्रेषित के किसी की बात सत्य नहीं हो सकती. हमारे भगवान और हमारे प्रेषित को न माननेवाला हर व्यक्ती हमारा शत्रू है और हमें उसे या तो किसी भी प्रकार की योजना से अपने जैसा बनाना है या उसे मृत्यूदंड देना है. दुसरी बात, हमारे भगवान ने जो हमारे प्रेषित को जो बताया है और हमारे प्रेषित ने जो कहा है उसके अनुसार तुम्हें अपना बदन काले रंग के कपडे से पूरी तरह ढक के रखना पडेगा ताकि तुमपर किसी पापी की नजर न पडे और इस तरह ढकना पडेगा कि तुम्हारा नाखून भी नजर न आये, और चुंकि महिलायें मर्दों से निम्न स्तर पर होती हैं और उनकी गुलाम होती हैं तुम्हे अपने पिता या भाई या आगे चलके अपने पती के अलावा कभी बाहर नहीं निकलना चाहिये.और हां, कपडा काला हो या रंगीन, ढकना तो आपको पडेगा ही. मनुष्य भी प्राणी ही होता है, लेकिन अनेक चीजों के साथ सुयोग्य संस्कार हमें मनुष्यप्राणी के प्राणी को त्याग कर मनुष्य बना देते है. किंतु क्या इस तरह के संस्कार आपको फिरसे प्राणी बनने पर बाध्य नहीं करते? एक अत्याचार करने वाला और दूसरा पूरे जीवन में उसे सहने वाली, दोनो केवल प्राणी बनके रह जाते है. किंतु अगर आपको बचपन से यही शिक्षा दी जाए, तो आपको यही योग्य लगने लगता है.

आप पाठशाला गयीं है, महाविद्यालय गयीं है तो आपको ज्ञात होगा ही की एक समय ऐसा आता है की हम अपने मित्रपरिवार की बात को आपके मातापिता की बात से बढकर मानने लगते हैं जिसके अंतर्गत आपके खानेपीने और कपडों का चुनाव भी मित्रपरिवार से प्रभावित होता है. ये गलत है या सही है, अथवा इस काल में याने के टीनएज तथा उसके बाद के कुछ वर्षों में कुछ युवा गलत मित्रपरिवार के चलते राह भटक भी अवश्य जाते हैं, लेकिन हम उस विश्लेषण में नहीं पडेंगे.

मुद्दा ये है की ऐसे काल मे जिसमे आप एक विशिष्ठ मानसिक अवस्था में होते है, इस समय में फिरभी एक स्वतंत्र व्यक्तिमत्व की होते हुए भी आप अपने मित्रपरिवार से इतने प्रभावित होते हैं, तो कल्पना किजीये उपरोक्त अनुच्छेद मे वर्णित परिस्थिती अनुसार जन्म से इस तरह का अगर प्रभाव हो और प्रभाव डालनेवाले आपके अपने जन्म देने वाले और अन्य लोग हों तो क्या परिणाम हो सकते हैं. आपको वह जो बताते है वही योग्य लगता है. आगे चलके आपकी स्वतंत्र सोच अगर जाग गयी और आपको अपने पती से सहकार्य मिलता है तो आप आझाद चिडिया की तरह विश्व में विहार करने मे सक्षम होंगी. अन्यथा आप आपके भगवान ने आपके प्रेषित को जो बताया है और आपके प्रेषित ने जो कहा है उसी के अनुसार सर से पांव तक काले कपडे में अपने आप को ढककर और आपका नाखून भी बाहर न दिखे इस तरह ढककर, घर से बाहर निकलने तक पिता या भाई या पती की सहाय्यता की आश्रित होकर गुलामी का जीवन व्यतीत करने पर बाध्य हो जायेंगी.

स्त्रीमुक्ती का अर्थ मर्दों के बराबर शराब और धूम्रपान करना नहीं है. स्त्रीमुक्ती का अर्थ यह भी है की इस मनोवैज्ञानिक खेल को समझकर स्वयं को मुक्त करना एवं विश्व की अन्य महिलाओं को मुक्त करने का प्रयास करना.

अब संभवतः आप को यह भी ज्ञात हो गया होगा की जिसे आप "अपनी मर्जी" कहती हैं वो वास्तविकता में आपकी या फिर अन्य समुदायों के महिलाओं की स्वयं को विकल्प चुनने की स्वतंत्रता नहीं अपितु आप के मस्तिष्क के साथ खेल कर आपको गुलामी कि जंजीरों को सुंदर पुष्पों का हार समान मानने एवं उसी के अनुसार वर्तन कराने का एक चतुर कल्पना भी को सकती है.

जागो महिलाओं जागो.



© मंदार दिलीप जोशी
माघ शु. ८, शके १९३८




Tuesday, December 13, 2016

ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी | यह सब है ताडन के अधिकारी ||

बुद्धिभेद किस तरह किया जाता है, ये दिखाने हेतू आदरणीय श्री सच्चिदानंद शेवडे गुरुजी ने कुछ दिन पहले रामायण से एक श्लोक उसके संदर्भ एवं अर्थ के साथ दिया था.

यः स्वपक्षं परित्यज्य परपक्षं निषेवते।
स स्वपक्षे क्षयं याते पश्चात् तैरेव हन्यते॥ [वाल्मीकि रामायण, युद्धकांड, ८७|१६]

जो व्यक्ती स्वपक्ष को छोड दूसरे पक्ष मे जाता है, उसके पहले वाले पक्ष का नाश होने पर, स्वयं उस व्यक्ती का नाश, वह व्यक्ती जिस नये पक्ष मे शामिल होता है, उस हे हातों होता है.

चूंकि शेवडे गुरुजी धर्म तथा आध्यात्म क्षेत्र में मानी हुई हस्ती हैं, अनेक लोगों ने बहुत अच्छी टिप्पणीया कीं. कुछ लोगों ने उसका संबंध आजकल के राजनिती से जोडकर देखा और उन्हे लगा की यह आज के दलबदलू लोगों के लिये रामायणीय चांटा है. कुछ लोगों ने प्रश्न किया की दल तो बिभीषण ने बदला था परंतु उसका क्या बुरा हुआ, और कुछ लोगों मे पूछा की सत्य एवं न्याय के पक्ष मे जाना क्या बुरा है? व्हॉट्सॅप और फेसबुक के माध्यम से ऐसे अनेक प्रश्न पूछे गये. बहुत कम लोगों ने इसका सटीक संदर्भ  पूछा. तथापि केवल चंद्रशेखर व.वि. नामक एक महाशय ने इस श्लोक पर संशोधन कर यह प्रतिपादन किया की यह श्लोक रामायण की सीख का भाग नहीं है. और यही अपेक्षित था.

यह है रामायण का वह भाग है जिसमें रावणपुत्र इंद्रजीत तथा बिभीषण इन चाचा-भतीजा के बीच का संवाद है. उपर दिये हुए श्लोक वह वाक्य है जो इंद्रजीत अपने चाचा बिभीषणसे कहता है.

अपने भतीजे की इस आलोचना का उत्तर देते हुए बिभीषण कहते हैं:

राक्षसेन्द्रसुतासाधो पारुष्यं त्यज गौरवात् ।
कुले यद्यप्यहं जातो रक्षसां क्रूरकर्मणाम् ।
गुणो यः प्रथमो नृणां तन्मे शीलमराक्षसम् |

हे अधम राक्षसकुमार! अपने से आयु मे बडों का सन्मान ध्यान मे रखकर तुम इस कठोरता का त्याग करो. यद्यपि मेरा जन्म राक्षसकुल में अवश्य हुआ है परंतु मेरा शील एवं स्वभाव राक्षसों जैसा नहीं है. सत्पुरुषों का जो प्रमुख गुण होता है, सत्त्व, उसी का मैनें अंगीकार किया है.

परस्वहरणे युक्तं परदाराभिमर्शनम् ।
त्याज्यं आहुः दुरात्मानं वेश्म प्रज्वलितं यथा | [युद्धकांड ८७-२१ ते २३]

(हे इंद्रजीत) जिस प्रकार हम अग्नि मे लिप्त घर को त्याग देते हैं, उसी प्रकार जो दूसरे का धन लूटता है तथा परस्त्री को स्पर्श करता है ऐसे दुष्ट आत्मा धारण करने वाले को त्यागना ही उचित है.

उपर लिखे हुए दो श्लोकों से यह सीधा सीधा अर्थ निकलता है की बिभीषण ने को किया, उचित ही किया.

कई बार कुछ भारत विखंडन वाले हिंदूविरोधी तथा जातीवादी 'प्रबुद्ध जन' हिंदू धर्म को नीचा दिखाने हेतू पुस्तके लिखते हैं और उन में ऐसे ही संदर्भहीन श्लोक छाप देते हैं. हिंदू तो संदर्भ के साथ अपने ही ग्रंथ पढने से रहे. तो जब ये पुस्तके पढते हैं तब स्तब्ध रह जाते है, और धीरे धीरे हमारे धर्म के प्रती इन्फिरिओरिटी कॉम्प्लेक्स होने लगता है. लेकिन कोई भी मूल ग्रंथ पढकर उसका सटीक संदर्भ नहीं देखता. बुद्धीभेद करने वालों को सफलता ऐसे ही मिलती है. मूल संदर्भ, उसका हेतू, घटनाएं, वह शब्द कहने वाला पात्र, उस सारे प्रसंग का कार्यकारणभाव और ग्रंथ रचयिता का हेतू ये सारी चीजें ध्यान मे रखकर श्लोक तथा संवादों को पढा जाए तब जाकर हमें उसका सत्यार्थ समझ में आता है.

इसका सर्वपरिचित एक उत्तम उदाहरण संत तुलसीदासजी पर किया गया एक आरोप है. जानते है इस आरोप के विषय में.

ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी |
यह सब है ताडन के अधिकारी ||  [सुन्दरकाण्ड]

यह उदाहरण देते हुए कुछ लिबरल फिबरल लोग हिंदू धर्म महिलाओं का किस प्रकार दमन करता है ऐसे ढोल पीटते रहते हैं. परंतु सत्य कथा यह है की यह ना तो रामचरितमानस की सीख है न तो यह संत तुलसीदासजी का कहना है. किस्सा कुछ इस प्रकार है कि प्रभू राम ने जब लंका पहुंचने हेतू समुद्र देवता से विनती की, की आप पीछे हट जाईये, तब उन्होंने प्रभू श्री राम की बात नहीं मानी. बहुत मिन्नतें करने के पश्चात भी जब समुद्र देवता ने बात नहीं मानी तो प्रभू राम को क्रोध आ गया और उन्होंने अपने धनुष्य पर बाण चढाकर प्रत्यंचा तान ली. जब तक प्रभू राम केवल विनतीयां कर रहे थे, तब तक समुद्र देवता ध्यान नहीं दे रहे थे. परंतु जब प्रभू राम नें शस्त्र उठाया, तब समुद्र देवता कांप गये और इसी भयभीत एवं लाचार मनस्थिती में कुछ भी अनापशनाप बकने लगे. उसी अनर्गल बकवास का एक भाग यह दो लाईने हैं.

आज के जमाने में कहा जाए तो अगर किसी फिल्म का एक छोटा कलाकार या व्हिलैन अगर कहे की "औरत होती ही है भोगने के लिए" तो इसका मतलब यह तो नहीं की यह वाक्य फिल्म के हीरो के माथे मढ कर इसे फिल्म का संदेश मान लिया जाए या फिर इस वाक्य को निर्देशक या लेखक का प्रतिपादन. इस का एक ही अर्थ होता है की यह वाक्य उस फिल्म मे किसीने किसी से कहा है. ठीक उसी प्रकार यह दो लाईने हैं.

कुछ व्हॉट्सॅप तथा फेसबुकीय विद्वान ऐसे होते हैं जिन्हें हिंदू धर्म पर उंगली उठाने हेतू ऐसी ही कुछ लाईने चिपकाने की आदत होती है. अगर कोई ऐसा करे, तो कृपया उसे सटीक संदर्भ पूछना मत भूलीयेगा.

सत्य, तर्क, एवं सटीक संदर्भ से वे डरा करते हैं.

मूल मराठी पोस्ट लेखकः © Dr Satchidanand Shevde 
हिंदी भावानुवादः © मंदार दिलीप जोशी

मार्गशीर्ष शु. १४, शके १९३८, श्री दत्त जयंती

Friday, December 9, 2016

घरवापसी के शत्रू

इस विषय में मैं बहुत आगे की सोच रहा हूं. परंतु इतिहास में की गयी मूर्खतापूर्ण गलतीयों से अगर हम आज नहीं सीखेंगे तो पहले जो संकट आये थे उस की तूलना में कई अधिक तीव्रता के संकटों का हमको सामना करना पडेगा. और इस बार जो होगा वह सर्वनाश की ओर ले जाने वाला संकट होगा.

इस्लाम किस तरह से धर्म परिवर्तन करता है यह हम कई सालों से देखते आ रहे हैं. इतिहास में दीन के बंदों ने तलवार की जोर से कईं धर्म परिवर्तन किए. आज तलवार का जोर शायद न चले इसी लिए लव्ह जिहाद जैसे शातिर तरीके अपनाए जा रहे हैं. इसाई धर्मपरिवर्तन करने वालोंने इनसे अधिक बुद्धिमान एवं संयमी होने के कारण तलवार से साथ साथ शांतीपूर्ण मार्ग भी अपनाये. परंतु हमें सिर्फ तलवार का मार्ग दिखाई देता है, दिमाग का नहीं. तलवार से किए हुए धर्मपरिवर्तन की घरवापसी हमें शिवाजी महाराज के सरदार नेताजी पालकर के उदाहरण के रूप मे दिखती है (फिर भी वह घरवापसी महाराज ने की थी, और महाराज के सामने बोलने की किसकी हिंमत हो सकती है? जाने दीजीए, यह विषय परिवर्तन हुआ.) लेकिन दिमाग से किए हुए धर्मपरिवर्तन की घरवापसी पर हमनें अपनें ही कर्मों तथा वचनों से ताला लगा दिया.

हमारे महाराष्ट्र में हुए कुछ घटनाओं को सुनकर मेरा खून खौल उठता है. भारतवर्ष में ब्रेड यानी की पाव लाया अंग्रेजों ने. जब अंग्रेजों का राज आया तो यहां कोई भी ब्रेड नहीं खाता था क्युंकि वह तो गोरे लोगों का यानी की इसाईयों का खाना था. हमारे शत्रू का खाना था. लोगों ने यह ठान लिया की जो भी व्यक्तिविशेष ब्रेड खाता है वह हमारा शत्रू है. इस बात का शातिर दिमाग अंग्रेज फायदा न उठाते तो ही आश्चर्य की बात थी. उन्होंने एक बडी जबरदस्त कल्पना को अंजाम दिया जिससे कम से कम कष्ट में धर्मपरिवर्तन का कार्य बडी आसानी से कर सकते थे. किसी तरह बहला फुसला के ब्रेड खिलाना, और फिर यह बात फैलाना की फलाना आदमी ने ब्रेड खाया है यह बात उस ब्रेड खाने वाले व्यक्ती का सामाजिक बहिष्कार कराने के लिए पर्याप्त थी. इसका परिणाम आगे बताता हूं. लेकिन इस उपाय से भी एक बडा आसान उपाय था. जब लोग ब्रेड खाने से मना करने लगे तो अंग्रेज ब्रेड या उसके टुकडे गांव के किसी चहल पहल वाले कुए में फेका करते थे जहां बहुत लोग पानी पीने आते हों. ऐसे जगह हुई घटनाएं गांव में ऐसे फैल जातीं जैसे गर्मी के मौसम में किसी वन में अग्नि का फैल जाना. जैसे की पहले लिखा है, ऐसे व्यक्ती या व्यक्तीयों का सामाजिक बहिष्कार किया जाता यह समझकर की वह व्यक्ती ब्रेड से 'दूषित' जल को प्राशन करके इसाई बन चुका/के हैं. यह हमारी ऐतिहासिक मूर्खता नहीं तो और क्या है? अजि ब्रेड को फेंक दिजीये और पानी पी कर काम पे लग जाईये. लेकिन ऐसी सूझबूझ उस समय के बहुतांश लोग नहीं दिखा पाये और लगभग शून्य कष्ट करके इव्हॅन्जलिस्ट लोगों ने कईयों को अपनी गिरोह में सम्मिलित किया. हां गिरोह में. क्युंकि जो धार्मिक पुस्तक यह कहता है कि अगर तुम हमारे भगवान को नहीं मानते हो तो तुम जीवित होते समय आध्यात्मिक दृष्टीसे एवं मरणोपरांत नर्क में कयामत तक आग में झुलसोगे, तो ऐसे लोगों को धर्म नही गिरोह ही कहना उचित होगा.

तो मैं यह कह रहा था, कि उस समय के पुरोहितों ने या समाज के बडे बूढों ने क्या यह कहना उचित नहीं था की अरे ब्रेड खा लिया तो क्या हुआ? चलिये ब्रेड को फेंकिये और एक स्नान कर लिजीये, और कुछ अधिक की अशुद्धता का आभास हो तो एक दिन का उपवास रख लिजीए, तो आप हो गये शुद्ध. या फिर अगर ऐसा मानना हो की आप ब्रेड खाने से इसाई हो गये हैं तो चलिये एक पूजा रखते हैं जिससे की आप फिरसे आपने आर्य सनातन धर्म में आ जायेंगे. या फिर एक यज्ञ का आयोजन करते हैं जिससे आप पुनः शुद्ध बनकर हिंदू हो जायेंगे.

परंतु बाकी विषयों मे पारंगत हमारे गुरुजनों तथा समाज के प्रबुद्ध नागरिकों ने इसमें से कोई भी उपाय नहीं किया. अगर किया तो बताईए, क्युंकि मुझे नहीं पता. ब्रेड खाने वाले व्यक्ती एवं ब्रेड या ब्रेड का टुकडा पडे हुए कुए में से पानी पीने वाले का तत्काल बहिष्कार किया गया और उसे अपने हिंदू धर्म में वापसी करने के सारे मार्ग बंद कर दिये गये.

ऐसी अनेक कल्पनाएं होंगी जिससे धर्मपरिवर्तन कर दिया गया होगा. तो अब आप सोचेंगे इसका ट्रिपल तलाक तथा कॉमल सिव्हिल कोड से क्या संबंध?

यह रामायण बताने का उद्देश यह है कि अगर कम इस इतिहास से सीख लें तो इस्लाम से घरवापसी करने वाले लोगों को हिंदू समाज मे सहजतापूर्वक सम्मिलित (assimilate) कर सकेंगे. मान लिजीये की कोई मुस्लीम युवती हिंदू हो जाती है. लेकिन उसके भविष्य का उसे सोचना ही होगा. अगर उसे विवाह करना है तो उसे हिंदू वर कैसे मिलेंगे? इसके दो पहलू हैं. एक तो सामाजिक स्तर पर जैसे जातीयों से संबंधित विवाह मॅरेज ब्युरो होते हैं, उसी तरह दूसरे धर्म से हिंदू धर्म में आने वाले युवाओं के लिये विवाह मार्गदर्शन संस्थाओं का होना आवश्यक है. यह आवश्यक नहीं की ऐसी संस्थाएं रजिस्टर्ड हों. यह भी आवश्यक नहीं है की संस्थाएं ही हों, उन के साथ साथ अनौपचारिक गुटों का भी योगदान हो सकता है. अकेले व्यक्ती भी मार्गदर्शक हो सकते हैं. लेकिन अधिक परिणाम के हेतू संस्थाओं का होना आवश्यक होगा.

हमारे हिंदू समाज से कोई आगे आकर उसे धर्मपत्नी के रूप मे स्वीकार करने का साहस कर सकेगा? क्या उसके घरवाले, कल्पना किजीये की आप ही ऐसे युवक के माता पिता हैं, क्या आप ऐसी मुस्लीम अथवा इसाई युवती को अपने घर की लक्ष्मी, अपनी बहू बनाके का ढाढस बंधा पाएंगे? उसे बहू बनाकर अपने संस्कारों मे ढालने का कष्ट उठा पायेंगे? अगर आपका उत्तर 'नहीं' है, तो घर में पंखे के नीचे या एसी में बैठे बैठे घरवापसी पर पोस्ट पेलना व्यर्थ है.

मुझे यह ज्ञात है कि जैसे कपडे बदलते हैं वैसे इस्लाम को छोडना संभव नहीं. दमन क्या होता है यह इस्लाम में रहने से ही समझ में आता हैं. हिंसा भी होगी अगर ऐसे लोग इस्लाम छोडने लगे.

इस हिंसात्मक प्रतिक्रिया का मुझे पूर्ण रूप से ज्ञान है. लेकिन मेरा उद्देश्य कुछ अलग है. मुझे हिंदूओं की उस मानसिकता पर उंगली उठानी है, जिससे हम जीते हुए युद्ध हमारे ही तकियानूसी खयालातों के कारण हार जाते हैं, जबकि बाकी सारे कारण हमारे पक्ष में होते हैं. जैसे की अर्थशास्त्र में हर सिद्धांत "Other things being equal..." इन शब्दों से शुरुवात होती है.

बहुत बोल चुका, लेकिन एक और उदाहरण देना आवश्यक समझता हूं. टेनिस खिलाडी विजय अमृतराज आपको याद होंगे ही. १९७३ में वह विम्बलडन सिंगल्स विजेता बनते बनते रह गये थे. क्वार्टर फाइनल मे जॅन कोड्स के सामने खेलेते हुए विजय के सामने ऐसा क्षण आया की कोड्स के शॉट पर उन्हे सिर्फ एक आसान सा स्मॅश मारना था. अगर वह स्मॅश सफलतापूर्वक मारते, तो उनके लिये वह मॅच जीतना तय था. लेकिन ऐन समय पर हिंमत हार कर उन्होंने यह मौका गवां दिया और मॅच हार गये. कोड्स आगे जाकर विम्बलडन का किताब जीत गये.

कुछ समझ में आया? अगर आया तो ठीक, वरना जो है, सो हयई है!

© मंदार दिलीप जोशी
मार्गशीर्ष शु. १०, शके १९३८

ट्रिपल तलाक और घरवापसी

ट्रिपल तलाक और समान नागरी कायदे को लेकर मुझे एक बात बहुत दिनों से खाए जा रही है.

एक भी हिंदू नेता - हां - एक भी हिंदू नेता - ना राजनेता, ना योगीबाबाजी, ना कोई साधू महाराज - मुस्लीम महिलाओं तथा सामान्य मुसलमानों से यह नहीं कह रहे हैं की अगर ऑल इंडिया मुस्लीम पर्सनल लॉ बोर्ड आपके मानवाधिकारों का दमन कर रहा है, और आप इस बात को मान चुके हैं की इस्लाम में तीन बार तलाक और हलाला हो या और किसी अधिकार की बात, सुधार की कोई संभावना नहीं है, तो इस्लाम छोड हिंदू धर्म मे प्रवेश किजीए. यहां आपको न केवल समान अधिकार मिलेंगे बल्कि आपके अधिकार पुरुषों से भी अधिक होंगे तथा न्याय व्यवस्था भी आप के याने महिलाओं की तरफ पक्षपात करेगी.

हां, इस घोषणा या यह परिणाम संभव नहीं की हजारों की संख्या में मुस्लींम महिलाएं और कुछ मुस्लीम पुरुष बगावत करके हिंदू धर्म मे प्रवेश करें. इसके कारण अनेक हैं जिस विषय में मेरे फेसबुक मित्र Anand Rajadhyakshaजी ने बहुत समय पहले लिखा था. परंतु किसी प्रभावशाली नेता या साधूबाबा के केवल ऐसी घोषणा करने के सकारात्मक मनोवैज्ञानिक परिणाम संख्या तथा प्रभाव में बहुत बडे हो सकते हैं.

युद्ध केवल शस्त्रों से अर्थात शरीर से नहीं अपितु मनोवैज्ञानिक अस्त्रों से भी खेला जाता है. लेकिन हम इसमें पीछे छूट रहे हैं. इस विषय में मुझे पुरानी पडोसन फिल्म के एक सीन का स्मरण हो रहा है. संगीत शिक्षक मास्टर पिल्लई का किरदार निभाने वाले मेहमूद अपने प्रेम प्रतिस्पर्धी भोला याने सुनील दत्त से एक झगडे के दरम्यान कईं बार कहतें हैं, "तुम आगे नै आना", "तुम आगे नै आना". लेकिन भोला और आगे आता जाता है. आखिर में मास्टरजी के "तुम आगे आना?" इस प्रश्न पर भोला डटकर कहता है, "हां". इस पर हार मानते हुए मास्टरजी, "तुम आगे आना? अच्छा तो हम पीछे जाना" यह कहकर पीछे हट जाते हैं.

तो है कोई माई का लाल ऐसी घोषणा करने वाला? या फिर "तुम आगे आना?" इस प्रश्न पर हम ही "पीछे जाना" करेंगे? कुछ समझे? अगर समझे तो ठीक. वरना जो है, सो हयई है!

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अगला भाग: घरवापसी के शत्रू
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© मंदार दिलीप जोशी
मार्गशीर्ष शु. १०, शके १९३८

Monday, October 24, 2016

लिबरल

जब एक ज्ञानी हिंदू को एक लिबरल ने
मानवता का पाठ पढाया
तो हिंदू फरमाया
की मेरे लिबरल भाया
अपनी औकात न भूल

तेरे जैसे तो उस पानी के गिलास की तरह है
जो समंदर से पूछ रहा हो
"तू जानता ही क्या है मेरे बारे में?"
तो मेरे लिबरल भाया, अपनी औकात मे रह
बचकानी बाते ना कर
मैं तो हूं विशाल बोधीवृक्ष
और तू सिर्फ मोह माया.

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© मंदार दिलीप जोशी

Wednesday, October 5, 2016

महेश भट्ट का निरुपम सत्य

हाल ही में एक कन्नड कहावत पढने को मिली, "बेन्नु बिडद पिशाचि होन्नु कोट्टरे निंतीते". अर्थात, आप के पिछे पडा हुआ पिशाच्च उसको सोना देने से (वो जो करने निकला है वो करने से) रुक नहीं जाएगा. यह कहावत पढते ही कुछ दिनो पहले घटी हडकंप मचा देने वाली एक घटना याद आ गयी.

फ्लॅशबॅकः
२०१२ की आझाद मैदान की घटना याद है? यह घटना हम सब की आँखें खोलने के लिये पर्याप्त थी. लेकिन या तो हमने मन की आँखोंपर पट्टी बांध ली है या हमारी स्मरणशक्ती कमजोर है, क्योंकी आज हम महेश भट्ट और संजय निरुपम जैसों के देशविरोधी बकवास से आहत और गुस्सा हो रहें हैं.

इस घटना से पहले एस.एम.एस. और व्हॉट्सॅप के द्वारा कुछ भडकाई संदेश व्हारयल किये जा रहे थे. इस बारे में पुलिस को पथा था. घटना से एक दिन पहले पुलिस को यह सूचना मिल चुकी थी की जुम्मे के नमाज के समय लोगों को यह आवाहन किया गया था की म्याममार मे रोहिंग्या मुसलमानों पर हुए अत्याचारों के खिलाफ मोर्चें मे भारी संख्या में शामिल हो. इस मोर्चे का आयोजन करने वाले रझा अकादमीने पुलिसको यह कहकर आश्वस्त किया था की मोर्चे में सिर्फ करीब १५०० के आस पास लोग आयेंगे. लेकिन उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन शुरवात मे १,५०० नहीं, बल्कि १५,००० लोग आये, और धीरे धीरे यह संख्या ४०,००० तक पहुंच गये. जैसी अपेक्षा थी, मोर्चा हिंसक हो गया. जैसा कोई सैन्य काम करता हो वैसेही उस मोर्चे के लोग बर्ताव कर रहे थे. मोर्चे मे से एक भागने मिडिया के ओ.बी. व्हॅन तथा लोगों पर हमला किया. दंगाईयों ने गाडीयों को आग लगाना, बसों पे हमला करना, और पुलीस पे पथराव करना आरंभ किया. तीन ओ.बी. व्हॅन और एक पुलीस की गाडी को आग लगा दी गयी. पथराव के वजह से एक बेस्ट की बस, दो कारें, और पांच दुपहिया गाडीयों का भारी नुकसान हुवा. इतना ही नहीं, पाच महिला पुलिसकर्मियों के साथ दंगाईयों ने दुष्कर्म किया और उनपर हॉकी स्टिक, लोखंड के रॉड, पत्थर, और नुकिले लकडी की काठी से हमला किया. और अमर जवान ज्योती का इन शांतीप्रिय समुदाय के लोगों के क्या किया यह तो सर्वविदीत है.

सलीम अल्लारख्खां चौकिया (अली),  वह आदमी जिसने, एक पुलिसकर्मी के हाथ से एक सेल्फ-लोडिंग रायफल छीन के उससे फायरिंग की थी उसे १६ अगस्त को गिरफ्तार किया गया. अब्दुल कादीर महम्मद युनुस अन्सारी को बिहार से २८ अगस्त को अमर जवान ज्योती को नुकसान किये जाने के जुर्म में गिरफ्तार किया गया. क्या संजय निरुपम इस बात को झुठला सकते है की यह दोनो काँग्रेस पार्टी से रिश्ता रखते थे? क्या संजय निरुपम इस बात को झुठला सकते है की गिरफ्तार किये गये ४३ लोगों मे से बहुतांश लोग काँग्रेस पार्टी के सदस्य थे?  मौलाना अख्तर (उलेमा बोर्ड के अध्यक्ष) और सईद नुरी (रझा अकादमी के सेक्रेटरी) जिन्हे गुनाह करने की साजीश, खून करना, सार्वजनिक प्रॉपर्टी को नुकसान पहुंचाना, गैरकानूनी सभा, और हिंसा करने के आरोप लगाये गये थे - क्या संजय निरुपम इस बात को झुठला सकते है की उनका इन दोनों के साथ करीबी संबंध है? क्युं संजय निरुपमने बादमें इन्ही देशद्रोही इस्लामी धर्मांधों को भरी संसद में बचाव किया था?

माटुंगा डिव्हिजन की एक महिला ट्रॅफिक हवालदार सुजाता पाटील ने एक पुलिस द्वारा प्रकाशित किये जाने वाले संवाद नाम के मॅगजीनमें आझाद मैदान इसी नाम से एक कविता लिखी छपवाई:

हम न समझे थे बात इतनी सी,
लाठी हाथ में थी
पिस्तौल कमर पे थी,
गाड़ियाँ फूंकी थी
आँखे नशीली थी,
धक्का देते उनको तो भी वो जलते थे,
हम न समझे थे बात इतनी सी,
होंसला बुलंद था,
इज्जत लुट रही थी,
गिराते एक एक को,
क्या जरुरत थी इशारो की,
हम न समझे बात इतनी सी,
हम न समझे बात इतनी सी,
हिम्मत की गद्दारों ने,
अमर ज्योति को हाथ लगाने की,
काट देते हाथ उनके तो
फ़रियाद किसी की भी ना होती,
हम न समझे बात इतनी सी
भूल गये वो रमजान
भूल गये वो इंसानियत,
घात उतार देते एक एक को,
अरे, क्या जरुरत थी किसी से डरने की,
संगीन लाठी तो आपके हाथ में थी
हम न समझे थे बात इतनी सी,
हमला तो हमपे था,
जनता देख रही थी,
खेलते गोलियों की होली तो,
जरुरत न पड़ती रावण जलाने की,
रमजान के साथ दिवाली भी होती
हम न समझे थे बात इतनी सी,
सांप को दूध पिलाकर
बात करते है हम भाईचारा की,
ख्वाब अमर जवानों के,
जनता भी डरी डरी सी,
हम न समझे बात इतनी सी
हम न समझे बात इतनी सी

इस कविता की कुछ अपेक्षित लोगों ने जमकर आलोचना की. फिल्म निर्देशक महेश भट्ट ने उलटा चोर कोतवाल को डांटे इस कहावत को सच करते हुए इस कविता को अल्पसंख्य समुदाय के प्रति पुलीस के द्वेष का प्रतीक करार दिया और पुलिस को मनोविकार तज्ञ के कुर्सी पर ही बिठा देने का अनुरोध किया. लोगों, यही लोग हैं जो टॉलरन्स की बात किया करते हैं, दंगों को टॉलरेट कर सकते हैं, अमर जवान ज्योती पर हमला टॉलरेट कर सकते हैं, स्वयं की सुरक्षा हेतू पुलिस से रक्षा की अपेक्षा करते हैं लेकिन महिला पुलिसकर्मियों की इज्जत पर दंगाईयों द्वारा हमला होना टॉलरेट कर सकते हैं, लेकिन दंगाईयों के विरोध मे लिखे गये एक कविता को टॉलरेट नहीं कर सकते.

लोगों, अब आज की तारीख में लौट आईये. यह सिर्फ आप को याद दिला ने के लिये था की संजय निरुपम और महेश भट्ट जैसे नीच लोगों से जिनकी नियत क्या है उस पर अभी प्रकाश डाला है, उनके देशविरोधी वक्तव्योंसे आहत होना व्यर्थ है. इन सापों को दूध किसने पिलाया है? आपने. इनको व्होट किसने दिये हैं? आपने. इनकी फिल्में किसने देखी हैं और उस द्वारा इनकी जेबें किसने भरी हैं? आपने.

मित्रों, अपेक्षाभंग तभी होता है जब किसीसे कोई अपेक्षा हो. शुरवात में को वाक्य लिखा था वह फिरसे दोहराता हूं. "बेन्नु बिडद पिशाचि होन्नु कोट्टरे निंतीते". अर्थात, आप के पिछे पडा हुआ पिशाच्च उसको सोना देने से (वो जो करने निकला है वो करने से) रुक नहीं जाएगा. तो इस प्रवचन का तात्पर्य यह है की बिना किसी अपवाद के इन्हे सोना देना बंद करो. इन भूतों को सोना देने से कुछ फायदा नहीं. हम इन भूतों को बहिष्कार की लात जरूर मार सकते हैं. तो आगे क्या करना है, या फिर क्या नहीं करना है, आप को पता है.

बाकी जो है, सो हैयी है.

© मंदार दिलीप जोशी

Sunday, May 22, 2016

साँप को दूध और भूत को सोना

हाल ही में एक कन्नड कहावत पढने को मिली, "बेन्नु बिडद पिशाचि होन्नु कोट्टरे निंतीते". अर्थात, आप के पिछे पडा हुआ पिशाच्च उसको सोना देने से (वो जो करने निकला है वो करने से) रुक नहीं जाएगा. यह कहावत पढते ही कुछ दिनो पहले घटी हडकंप मचा देने वाली एक घटना याद आ गयी. 

हुआ यूं की कुछ दिनों पहले मोदी भक्तों और समर्थकों में सोशल मिडीया में जबरदस्त खलबली मच गयी. यह शायद पहली बार हुआ के भक्त मोदी सरकार पे भडक गये थे.

हुआ युं के खबर आयी केन्द्र सरकार टेक्स्टाईल मंत्रालय के हॅन्डलून डिव्हिजन और खबरों के चॅनल एन.डी.टी.व्ही. के एन.डी.टी.व्ही. रीटेल इस इकाई के बीच हॅन्डलूम इस प्रकार को लोकप्रिय बनाने के लिये एक समझोता हुआ.  

ये खबर आग से भी तेज फैल गयी. केवल सामान्य राष्ट्रवादी लोग और भाजपा एवं मोदी समर्थक ही नहीं, मोदी भक्त भी भडक गए और फिर सोशल मिडिया पर विरोध का ऐसा तूफान आया जिसका स्वयं माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दखल देनी पडी. इन लोगों को ये बात बिलकुल हजम नहीं हुयी की जो चॅनल हमेशा न केवल भाजपा और मोदीजी ही नहीं बल्की राष्ट्र के विषय में भी गलत खबरें देता है उस के साथ सरकार के एक मंत्रालय ने किसी भी प्रकार का रिश्ता रखने की सोची भी कैसे? २६/११ के दौरान इस चॅनल ने क्या किया था, ये इतिहास है. लोगों का यह भी मानना है की ये चॅनल न केवल राष्ट्रविरोधी है अपितु इसके पत्रकारों के हाथ हमारे सैनिकों के खून से रंगे हैं. ऐसे चॅनल के साथ किसी भी प्रकार के संबंध रखने का अर्थ है अपने और राष्ट्र के आत्मसन्मान का जानबूझ के अपमान करना. 

सोशल मिडीया पे इस कदम के समर्थन में यह भी पढने को मिला की यह एक लोकतंत्र प्रक्रिया हे अनुसार हुआ और इसको हम केवल हमारे गलत मानने के बल पर हम इसका विरोध नहीं कर सकते. भई लोकतंत्र के सूत्रों का पालन क्या एन.डी.टी.व्ही ने कभी किया है? समर्थन का एक मुद्दा तो यह भी था की ऐसा करने से हम उस चॅनल को अपने नियंत्रण में कर सकते हैं. लेकिन प्रश्न ये है की साँप को दूध पिलाने से क्या फायदा? मराठी में कहते हैं की "सापाला दूध पाजलं तरी तो चावायचा राहत नाही", मतलब साँप को दूध पिलाया जाए तो वो आपको काटने से परहेज नहीं करेगा. 

समर्थक और भक्त इस कदर भडक गए की ऐसा लगने लगा की अगर ये समझोता रद्ध न किया गया तो वे मोदी सरकार को कभी माफ नहीं करेंगे. सोशल मिडीया का यह अभियान जो तभी शांत हुआ जब मोदीजी को स्वयं हस्तक्षेप करना पडा और टेक्स्टाईल मंत्रालय हे एन.डी.टी.व्ही. के साथ उस समझोते को रद्ध करके उस भूत को सोना देने से परहेज कर लिया. 

इसी लिये न तो साँप को दूध पिलाईये और ना तो भूत को सोना दिजीये. दोनों कहावतों को और किस विषय में आप इस्तमाल कर सकते है? सोचिये, किन किन सापों को आप दूध पिलाने की सोच रहे हैं और किन किन भूतों को सोना देने से आपको फायदा नजर आ रहा है?

© मंदार दिलीप जोशी
वैशाख कृ. १, शके १९३८

Monday, May 16, 2016

आखिर कब तक?

मेरी एक फेसबुक दोस्त ने बताया हुआ किस्सा. वो लडकी एक बुटीक चलाती है और उसके पास शांतीप्रिय समुदाय की दो लड़कियां सिलाई का काम सीखने आती है. नाम उसके कहने पे नहीं दे रहा हूं. आगे पढीये उसी के शब्दों में:

"मेरे यहां शांतीप्रिय समुदाय की दो लड़कियां सिलाई का काम सीखने आती है l दो चार दिन पहले में लाइब्रेरी से "कृष्ण" ये किताब पढ़ने के लिए लेकर आई थी, खाली वक़्त मिलता है तो पढ़ लेती हुं l किताब कभी टेबल पर कभी मशीन पर रखी हुई होती है | 

दो दिन से में देख रही हुं, किताब मशीन पर रखी हुई थी, तो कल तो एक लड़की ने उठाकर मुझे दे दी l पर आज दुसरी लड़की को मशीन पर काम था, आज भी किताब वही पर थी, पर उसने हाथ नहीँ लगाया l मुझसे कहा, आपकी किताब है, ले लीजिए l


मतलब क्या सीखाते क्या है इन लोगों को?

हद है यार .."

हमें क्या सिखाते है? या फिर हमें सिखाना ही नहीं पडता? मेरे खयाल से ये सब चीजें हमारे गुणसूत्रों में ही होतीं है. सहिष्णुता. कैसे? अब आप ही सोचिये, अगर हमें ऐसी कोई किताब मिल जाए तो हम क्या करेंगे? 

ज्यादा सोचने की जरूरत ही नहीं है. १९७१ के भारत पाकिस्तान युद्ध के एक घटना पर आधारित "बॉर्डर" यह सिनेमा तो देखा ही होगा आप ने. उसमें युद्ध शुरू होने पर हिंदूस्तानी सैनिक सीमा के आसपास के गावों को खाली करवाते हैं और लोगों को सुरक्षित निकलने में मदद भी करते हैं. लोंगेवाला बी.एस.एफ पोस्ट के अफसर कमाडंट भैरों सिंग इस काम मेलग जाता है. पाकिस्तानी बमबारी से आग लगे एक घर से एक आदमी को सही सलामत निकालने के बाद उस आदमी को ध्यान मे आता है की उसका कुरान शरीफ अंदर रह गया है. कमाडंट भैरों सिंग जान की परवाह न करते हुए जलते हुए घर में घुसकर कुरान भी सही सलामत निकाल लाता है और उस आदमी को सौंप देता है. वो आदमी भौंचक्का रह जाताहै की की एक हिंदू होकर उस अफसरने कुरान के लिये जान की बाजी लगा दी.  "साहबजी, आप तो हिंदू हो". उसपर भैरों सिंग कहता है, "सदियों से यही करता आ रहा है हिंदू".  

तो अब सोचने की बात है, की सदियों से हम जो करते आ रहे हैं, उसपर विचार करने का समय आ गया है या फिर और मार खाने की जरूरत है? कितने और संघ स्वयंसेवक, कितने और प्रशांत पुजारी, कितने और डॉक्टर नारंग हमसे छीनें जाएंगे? कब तक सहेंगे जब कोई सामनेवाला आपको आपकी किताब के विषय के कारण उसको हाथ भी नहीं लगाता और ऐसी धृष्टता रहता है की आपको ही वो किताब उठाने को कहे, तब क्या यह बात अकलमंदी की बनती है की आप उनसे किसी भी प्रकार का व्यवहार रखें? 


ज्यादा नहीं लिखूंगा इस पहले हिंदी ब्लाग पोस्ट में. आगे आप को सोचने पे छोड देता हूं.

© मंदार दिलीप जोशी
वैशाख शु. १०, शके १९३८