Sunday, February 5, 2017

भन्साली पॅटर्न

ये सारा कहाँ से शुरू हुआ है, पता है? भन्साली का पैटर्न समझ लें आप!

रामलीला
पहले उसने फिल्म का नाम रखा था 'रामलीला'! बाद में बवाल मचने पर बदल कर 'गोलियों की रासलीला रामलीला' रख दिया। मूल नाम और बदल कर रखे नाम दोनों में ही मक्कारी साफ झलकती है।

फिल्म का नाम कुछ और भी तो रखा जा सकता था। यह जिस कदर ठेठ मसाला (या गोबर) फिल्म थी, अस्सी या नब्बे के दशक की किसी भी फिल्म का नाम इसके लिए चल जाता, जैसे कि आज का गुंडाराज, खून भरी मांग, खून और प्यार... कुछ भी चल जाता! लेकिन नामकरण हुआ 'राम लीला'। भारत का सामूहिक आराध्य दैवत कौन है? राजाधिराज रामचंद्र महाराज। तो उसपर ही हमला किया जाए, जिस पर आपको गर्व हो! आप जिसे पूजते हो, आप जिनका का आदर्श के तौर पर अनुसरण करने की कोशिश कर रहे हो, उसी श्रद्धा स्थान पर हमला किया जाए!

राम भक्ति करते हो? राम मंदिर बनाना चाहते हो? रुको! एक दो कौड़ी का भांड़ और उससे भी टुच्ची एक नचनिया लेकर मैं एक निहायत बकवास फिल्म बनाऊँगा, और नाम रखूँगा 'रामलीला'! आप कौन होते हो आक्षेप लेनेवाले? अपमान? इसमें कहाँ किसी का अपमान है? यह फिल्म के नायक का नाम है। लीला नामक नायिका के साथ रचाई गई उसकी लीलाएँ दिखाई जाएगी, तो 'रामलीला' नाम गलत कैसे हुआ भाई?

वैसे नाम बदलते हुए भी क्या शातिर खेल खेला गया है, जानते हैं? 'गोलीयों की रासलीला रामलीला' यह बदला हुआ नाम है। रासलीला यह शब्द किससे संबंधित है? भगवान श्रीकृष्णसे। देखा? रामलीला नाम रख एक गालपर तमाचा जड़ा गया। और उसका नपुंसक, क्षीण विरोध देख भन्साली ने भाँप लिया कि यहाँ और भी गुंजाइश है, और बदले हुए नाम से उसने आप के दूसरे गाल पर और पाँच उंगलियों के निशान जड़ दिए!

एक बेकार-से फिल्म के नाम के साथ खिलवाड़ कर उसने आप को यह बताया है कि आप कितने डरपोक हैं। आप के विरोध का संज्ञान लेते हुए फिल्म का नाम बदलते हुए भी वह आप का अपमान करने से नहीं चूका। और आप ने उसी फिल्म को हिट बनाया! निरे बुद्धू हो आप!

बाजीराव-मस्तानी
हिंदूंओंपर हमले को एक फिल्म में अंजाम देने के बाद अगला पड़ाव था मराठी माणूस. मराठी समाज को तोड़ने की कोशिशें एक लंबे समय से जारी है। अस्सी के दशक से ही यह काम चल रहा है। और जो तरकीबें हिंदुओं का अपमान करने के लिए प्रयुक्त होती है, उनमें एक महत्त्वपूर्ण बदलाव ला कर मराठी समाज में भेदभाव के बीज बोने के काम में लाया जाता है। मराठा, दलित और ब्राह्मण इनको यदि आपस में भिडाए रखो, तो मराठी इन्सान की क्या बिसात कि वह उभर कर सामने आए!

सनद रहे, इन तीन वर्गों में बड़ा भारी अंतर है। दलितों का, उनके नेताओं का या फिर उनके प्रतीकों का अपमान होने का शक ही काफी है किसी को सलाखों के पीछे पहुंचाने के लिए! महाराष्ट्र में दलित उत्पीड़न प्रतिबंधन कानून के तहत पुलिस कंप्लेंट हो तो पुलिस तत्काल धर लेती है। बेल नहीं होती, बंदा लंबे समय तक जेल की हवा खाता है। प्रदर्शन और हिंसा की संभावना अलग से होती है। मराठा समाज स्थानिक दबंग क्षत्रिय जाति है। उसके प्रतीकों को ठेस पहुंचाओ तो संभाजी ब्रिगेड जैसे उत्पाती संगठनों के आतंक का सामना करना पड़ता है।

तो फिर जिनके प्रतीकों और आदरणीय व्यक्तित्वों पर आसानी से हमला किया जा सकता है, घटिया से घटियातर फिल्म उनके श्रद्धास्थान के बारे में बनाने पर भी जो पलटवार तो क्या, निषेध का एक अक्षर तक नहीं कहेंगे, ऐसा कौन है? सबसे बढ़िया सॉफ्ट टार्गेट कौन? ब्राह्मण।

आपके सबसे पराक्रमी पुरुष कौन? इस पर दो राय हो सकती है। उन पर्यायों में आप को जिसके बारे में जानकारी कम है, लेकिन जिसका साहस और पराक्रम अतुलनीय आहे ऐसे किरदार का चुनाव मैं करूँगा। श्रीमंत बाजीराव पेशवा और उनका पराक्रम मैं इस तरह बचकाना दिखाऊँगा कि रजनीकांत की मारधाड़ की स्टाइल भी मात खा जाए! एक आदमी तीरों की बौछार को काटता हुआ निकल जाए, ऐसा सुपरमैन! दिखाऊँगा कि मस्तानीके प्यार में पागल बाजीराव अकेले ही शत्रु सेना से भिड़ जाता है। बाजीराव इश्क में पागल हो सारा राजपाट छोडनेवाला, और सनकी योद्धा था, ऐसे मैं दिखाऊँगा, ताकि पालखेड़ के संघर्ष में बगैर किसी के उंगली भी उठाए, बगैर किसी युद्ध के निजाम शाह को शरण आने पर मजबूर करने वाली उसकी राजनीतिक सूझबूझ दिखाने की जरूरत न पडे! लगातार 40 युद्धों में अजेय कैसे रहे, कितनी बुद्धिमत्ता का परिचय दिया, मस्तानी का साथ कितने वर्षों का रहा... दिखाना जरूरी नहीं होगा। निजाम शेर के सिर पर हाथ फेरते हुए दिखाया जाएगा, और बाजीराव उससे बात करने के लिए किसी याचक की तरह पानी में से चलते हुए सामने खडा दिखाया जाएगा! बाजीराव की माँ पागलपन का दौरा पडी विधवा दिखाई जाएगी। वस्तुतः लगभग अपाहिज पत्नी को हल्की औरत की तरह नचाया जाएगा। बाजीराव खुद मानसिक रूप से असंतुलित और उनके पुत्र नानासाहब दुष्ट और दुर्व्यवहारी दिखाए जाएँगे....

आप क्या कर लोगे? बस, केवल कुछ प्रदर्शन? खूब कीजिए! मैं घर पर बैठे हुए टीवी पर उनका मजा लूँगा। एक सिनेमा हॉल में प्रदर्शन रोकने से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। हाँ, आप के दोनों गालों पर तमाचे जड़ने और पिछवाड़े में एक लात लगाने के पैसे मुझे कबके मिल चुके हैं। देखो, सोशल मीडिया पर एक जाति दूसरीसे कैसे भिडी हुई है!

मैंने आप की कुलीन स्त्रियों को पर्दे पर नहलाया। उनको मनमर्जी नचाया। दालचावल खानेवाले डरपोक लोग हो आप! ब्राह्मणवाद का ठप्पा लगाकर मुझे हिंदुओं को अपमानित करना था, सो कर लिया! ठीक वैसे ही, जैसे और लोग करते हैं। हा हा हा.

पद्मिनी
अब अगला पडाव दूसरी पराक्रमी जाति, राजपूत! आपके आराध्य को चिढ़ाना हो चुका, और जातियों को आपस में लड़ाना हो चुका। अब अगला पायदान चढते हैं। आप की आदरणीय स्त्रियों पर हमला! शत्रु की स्त्रियों का शीलभंग, उनकी इज़्ज़त लूटकर उन्हें भ्रष्ट करना किसी भी युद्ध का अविभाज्य अंग होता है। तो फिल्मों के माध्यम से एक मानसशास्त्रीय युद्ध के दौरान इसे क्यों वर्जित माना जाए?

अनगिनत औरतों की अस्मत लूटनेवाले अल्लाउद्दीन खिलजी ने जब चित्तौड़गढ़ पर हमला किया और चित्तौड़गढ़ के पराजय के आसार दिखाई देने लगे तब शत्रुस्पर्श तो दूर, अपना एक नाखून तक उनके नजर न आएँ, इस सोच के साथ हजारों... हाँ, हजारों राजपूत स्त्रियों के साथ जौहर की आग में कूद कर जान देनेवाली महारानी पद्मिनी से बढकर अपमान करने लायक और कौन स्त्री हो सकती है?

अरे, आपने दो थप्पड़ जड़ दिए, कैमरा तोड़ दिया, मेरे क्रू से मारपीट की। बस्स! इससे अधिक क्या कर लोगे? मुझे इसके पूरे पैसे मिले हैं, मिलेंगे। मेरी जेब पप्पू जैसी फटी नहीं है। आप राजस्थान में लोकेशन पर मना करोगे तो जैसे बाजीराव मस्तानी में किया वैसे कम्प्यूटर से आभासी राजस्थानी महल बनाऊँगा, और हर हाल में यह फिल्म बनाऊँगा, आपकी छाती पर साँप लोटते हुए देखूँगा। और देख लेना, आप ही मेरी इस फिल्म को हिट बनाएंगे!

क्यों, पता है? आप डरपोक हो। खुदगर्ज हो। प्रत्यक्ष भगवान राम के लिए कोई उठ खड़ा नहीं हुआ। बाजीराव के समय लोग ब्राह्मण और मराठी समाज के पक्ष में खड़े नहीं हुए। अबकी देखूँगा, राजपूतों के साथ कौन, और कैसे खड़े होते हो!

क्या उखाड़ लोगे?

घंटा?

#पद्मिनी

मूल मराठी लेखः © मंदार दिलीप जोशी
हिंदी रूपांतर: © कृष्णा धारासुरकर

Saturday, February 4, 2017

स्टॉकहोम सिन्ड्रोम - मेरी मर्जी?

कुछ...या युं कहीये बहुत महिलाओं को लगता है की वह या दुनिया की अन्य विशिष्ठ समुदाय की महिलायें यदि अपने मर्जी से, बाय अवर चॉइस, आप को सर से पांव तक काले कपडे में अपने आप को ढककर और आपका नाखून भी बाहर न दिखे इस तरह ढकने वाले कपडे अगर पहनें तो उसपर टिप्पणी करने का हमें अधिकार नहीं है. ऐसी "ma life, ma choice" जैसे उच्च और उदात्त विचार की महिलाओं को यह निवेदन है कि निन्मलिखित विश्लेषण पढें.

स्टॉकहोम सिन्ड्रोम एक मनोवैज्ञानिक संज्ञा है जिसके अंतर्गत किसी अपहरण किये गये व्यक्ती को अगवा करने वाले व्यक्ती के प्रति अपनापन महसूस होता है. यह अपनापन इस हद तक होता है कि कईं बार बढकर प्यार तक पहूंच जाता है. इतना ही नहीं, अपहरण किये गये व्यक्ती अपहरण करने वाले व्यक्ती या व्यक्तीयों की अनेक प्रकार से पुलीस और जांच एजंसियों के खिलाफ और अपने खुद के परिवारजनो तथा मित्रों एवं सहेलियों के खिलाफ सहय्यता करने लगता है. अर्थात, अपहरण हुए व्यक्ती को अपहरण करने वाला व्यक्ती अपने हितचिंतकों से अधिक अपना मानने लगता है और अपने असली हितचिंतक उसे शत्रूसमान लगते हैं. सोचिये, ऐसा जबरदस्त मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालनेवाला व्यक्ती कितने चालाक मस्तिष्क का होता है.

यह तो बात हुई किसी भी उमर में अगवा किये गये व्यक्तीयों की.

अब कल्पना किजीये. आपके खुद के मां बाप, पडोसी, बहुसंख्य मित्रपरिवार, तथा रिश्तेदार ये सब आपको अपहरण करनेवाले हों तो? बात पल्ले नहीं पड रही? अब कल्पना कर रहे हों तो सोचिये की आप ऐसे किसी परिवार में लडकी बन के जन्म लेते हैं. आप को जन्म लेते ही, अर्थात आप आसपास की दुनिया के प्रति जैसे ही सचेत होने लगते है, आप के हाथ में एक पुस्तक थमाई जाती है और कहा जाता है कि बेटा यही पूरा सत्य है और इस किताब के बाहर कोई सत्य नहीं. इस किताब का हर शब्द हमारे भगवान ने हमारे प्रेषित को बताया है और सिवा हमारे भगवान और हमारे प्रेषित के किसी की बात सत्य नहीं हो सकती. हमारे भगवान और हमारे प्रेषित को न माननेवाला हर व्यक्ती हमारा शत्रू है और हमें उसे या तो किसी भी प्रकार की योजना से अपने जैसा बनाना है या उसे मृत्यूदंड देना है. दुसरी बात, हमारे भगवान ने जो हमारे प्रेषित को जो बताया है और हमारे प्रेषित ने जो कहा है उसके अनुसार तुम्हें अपना बदन काले रंग के कपडे से पूरी तरह ढक के रखना पडेगा ताकि तुमपर किसी पापी की नजर न पडे और इस तरह ढकना पडेगा कि तुम्हारा नाखून भी नजर न आये, और चुंकि महिलायें मर्दों से निम्न स्तर पर होती हैं और उनकी गुलाम होती हैं तुम्हे अपने पिता या भाई या आगे चलके अपने पती के अलावा कभी बाहर नहीं निकलना चाहिये.और हां, कपडा काला हो या रंगीन, ढकना तो आपको पडेगा ही. मनुष्य भी प्राणी ही होता है, लेकिन अनेक चीजों के साथ सुयोग्य संस्कार हमें मनुष्यप्राणी के प्राणी को त्याग कर मनुष्य बना देते है. किंतु क्या इस तरह के संस्कार आपको फिरसे प्राणी बनने पर बाध्य नहीं करते? एक अत्याचार करने वाला और दूसरा पूरे जीवन में उसे सहने वाली, दोनो केवल प्राणी बनके रह जाते है. किंतु अगर आपको बचपन से यही शिक्षा दी जाए, तो आपको यही योग्य लगने लगता है.

आप पाठशाला गयीं है, महाविद्यालय गयीं है तो आपको ज्ञात होगा ही की एक समय ऐसा आता है की हम अपने मित्रपरिवार की बात को आपके मातापिता की बात से बढकर मानने लगते हैं जिसके अंतर्गत आपके खानेपीने और कपडों का चुनाव भी मित्रपरिवार से प्रभावित होता है. ये गलत है या सही है, अथवा इस काल में याने के टीनएज तथा उसके बाद के कुछ वर्षों में कुछ युवा गलत मित्रपरिवार के चलते राह भटक भी अवश्य जाते हैं, लेकिन हम उस विश्लेषण में नहीं पडेंगे.

मुद्दा ये है की ऐसे काल मे जिसमे आप एक विशिष्ठ मानसिक अवस्था में होते है, इस समय में फिरभी एक स्वतंत्र व्यक्तिमत्व की होते हुए भी आप अपने मित्रपरिवार से इतने प्रभावित होते हैं, तो कल्पना किजीये उपरोक्त अनुच्छेद मे वर्णित परिस्थिती अनुसार जन्म से इस तरह का अगर प्रभाव हो और प्रभाव डालनेवाले आपके अपने जन्म देने वाले और अन्य लोग हों तो क्या परिणाम हो सकते हैं. आपको वह जो बताते है वही योग्य लगता है. आगे चलके आपकी स्वतंत्र सोच अगर जाग गयी और आपको अपने पती से सहकार्य मिलता है तो आप आझाद चिडिया की तरह विश्व में विहार करने मे सक्षम होंगी. अन्यथा आप आपके भगवान ने आपके प्रेषित को जो बताया है और आपके प्रेषित ने जो कहा है उसी के अनुसार सर से पांव तक काले कपडे में अपने आप को ढककर और आपका नाखून भी बाहर न दिखे इस तरह ढककर, घर से बाहर निकलने तक पिता या भाई या पती की सहाय्यता की आश्रित होकर गुलामी का जीवन व्यतीत करने पर बाध्य हो जायेंगी.

स्त्रीमुक्ती का अर्थ मर्दों के बराबर शराब और धूम्रपान करना नहीं है. स्त्रीमुक्ती का अर्थ यह भी है की इस मनोवैज्ञानिक खेल को समझकर स्वयं को मुक्त करना एवं विश्व की अन्य महिलाओं को मुक्त करने का प्रयास करना.

अब संभवतः आप को यह भी ज्ञात हो गया होगा की जिसे आप "अपनी मर्जी" कहती हैं वो वास्तविकता में आपकी या फिर अन्य समुदायों के महिलाओं की स्वयं को विकल्प चुनने की स्वतंत्रता नहीं अपितु आप के मस्तिष्क के साथ खेल कर आपको गुलामी कि जंजीरों को सुंदर पुष्पों का हार समान मानने एवं उसी के अनुसार वर्तन कराने का एक चतुर कल्पना भी को सकती है.

जागो महिलाओं जागो.



© मंदार दिलीप जोशी
माघ शु. ८, शके १९३८




Tuesday, January 3, 2017

वामपंथी भारत विखंडन २ - हिटलर कुठला!!

मागच्या लेखात डाव्या विचारसरणीचा मानसशास्त्रावरचा पगडा आणि त्याचा लहान मुलांवर होणारा थेट परिणाम आपण बघितला. आजचा लेख थोडा वेगळा आहे.

भारत विखंडन २ - हिटलर कुठला!!

एक प्रश्न विचारतो. त्याचं उत्तर तुम्ही तुमच्या मनातच द्यायचं आहे. अत्याधिक शिस्तीचा भोक्ता असलेल्या व्यक्तीला तुम्ही काय म्हणाल? मग तो कुणीही असो - आईवडिलांपासून ते शिक्षक, बॉस, नवरा, बायको, वगैरे. यांच्यापैकी कुणीही नियमपालनाच्या बाबतीत अतिशय कडक असतील म्हणजे शिस्तीच्या बाबतीत कोणताही ढिलेपणा ते खपवून घेत नसतील, तर त्यांना तुम्ही काय म्हणता? अर्थात, हे नाव ठेवणं त्या त्या व्यक्तींच्या मागेच होत असणार हे नक्की. पार सातासमुद्रापलिकडच्या त्या व्यक्तीचं नाव इथे भारतात शिस्तप्रिय माणसाला हिणवायला का बरं वापरलं जातं? कोण होता तो माणूस? आठवलं ना ते विशिष्ठ नाव?

तुमच्या पैकी ९९% लोकांच्या मनातलं नाव सांगू? बरोब्बर. या प्रश्नाचं नाव अर्थातच जर्मनीचा हुकूमशहा हिटलर. बाकीचे अशा लोकांना हिटलर म्हणून मोकळे व्हायचे पण मला नेहमी प्रश्न पडायचा की अतिशय शिस्तप्रिय व्यक्तीला नेहमी हिटलरच का म्हणतात? तुमच्यापैकी कुणाला असा प्रश्न पडला असेल तर मला खूप आनंद होईल. कारण भारताविषयी आशावादी असण्यासाठी ते एक कारण असेल.

 तर, वळूया या प्रश्नाकडे. हिटलरच का?

कारण, या गोष्टीवर खूप गांभिर्याने विचार करा, कारण डाव्यांनी, म्हणजे डाव्या विचारसरणीच्या लोकांनी इतकी वर्ष आपल्याला असा विचार करायला भाग पाडलेलं आहे. आपलं व्यवस्थित कंडिशनिंग केलेलं आहे. अधिकारपदावरील शिस्तप्रिय व्यक्ती हे प्रत्येक समाजात नेहमीच आढळून आलेले आहेत, येतात. तसेच, जर्मनीचा सर्वेसर्वा म्हणून हिटलरचा कार्यकाळही फक्त १९३३ ते १९४५ इतकाच आहे. त्यातही गंमत म्हणजे हिटलरच्या विध्वंसाची सर्वाधिक झळ बसलेल्या युरोपीय देशात, इतकंच काय, खुद्द जर्मनीत शिस्तप्रिय व्यक्तींना कधीही हिटलर अशी उपमा दिली गेल्याची इतिहासात नोंद नाही. मग आपल्याकडेच का?

या प्रश्नाचं उत्तर शोधायचं असेल तर आधी आपल्याला हिटलरच्या कारकीर्दीबद्दल थोडी माहिती बघावी लागेल. नाझी पार्टीचा नेता आणि एक अत्यंत क्रूर हुकूमशहा म्हणून जग हिटलरला ओळखतं, पण सुशिक्षित जर्मन समाजाने त्याचा नेता म्हणून मुळात स्वीकार तरी का केला याची कारणं समजून घेणं आपल्या भाग पडतं.

पहिल्या महायुद्धात जर्मनीचा पराभव झाला. व्हर्सायच्या तहानुसार जर्मनीवर प्रचंड अपमानास्पद राजकीय आणि आर्थिक अटी लादण्यात आल्या. या ओझ्याखाली दबलेला जर्मनी पिचत चालला होता. एक पिढी तर नष्ट झालेलीच होती, उरलेल्या जनतेला रोज आर्थिक विवंचनेत जगावं लागत होतं. अशा परिस्थितीत जर्मनांच्या स्वाभिमानाला फुंकर घालून हिटलरने त्याच्या पक्षाला सत्तेत आणण्याची मागणी केली. सत्तेत आल्यावर ताबडतोब हिटलरने व्हर्सायच्या तहाला केराची टोपली दाखवली आणि सगळ्या अटी झुगारून दिल्या. सहा वर्षात हिटलरने जर्मनीचा कायापालट केला आणि जर्मन नागरिकांना गौरवांकित केलं. हं, हे साध्य करायला आणि त्या नंतर हिटलरने जे मार्ग अवलंबले, ते मार्ग निश्चितपणे समर्थनीय मानले जाऊ शकत नाहीत आणि मीही त्या सगळ्या मार्गांचं समर्थन करत नाही. पण फक्त सहा वर्षात जर्मनीला पुन्हा गतवैभव प्राप्त करुन देणं हे खायचं काम नाही. अर्थात, या यशात मुळातच शिस्तप्रिय असणार्‍या जर्मन नागरिकांचा तितकाच मोठा वाटा आहे. कुणीतरी फेसबुकवर लिहील्याचं आठवतं - हिटलरसारखा नेता तेव्हाच सत्तेवर येतो जेव्हा त्याला पूरक अशी जनता असते. आणि म्हणूनच मोदीजींची समजा हिटलर होण्याची इच्छा झालीच तरी ते होऊ शकणार नाहीत कारण....असो.

विषयांतर आवश्यक होतं कारण ही पार्श्वभूमी समजून घेणं गरजेचं आहे. आता काही गोष्टी समजून घेऊ व मग मूळ मुद्द्यावर येऊ.

हिटलरच्या पक्षाच्या नावात समाजवादी हा शब्द होता आणि आपल्या घोषणापत्रात त्या पक्षाने समाजवादाच्याच मार्गाने जाण्याची इच्छा व्यक्त केली होती. हिटलर स्वतःला खराखुरा समाजवादी म्हणवून घ्यायचा आणि रशियाच्या समाजवादाला बोल्शेविक कम्युनिझम असं म्हणून हिणवायचा. असं असलं तरी साम्यवाद्यांनी हिटलरच्या नाझी पक्षाशी शय्यासोबत करण्यात कुठलाच विधीनिषेध बाळगला नाही. रशियाचं आणि साम्यवाद्यांचं हिटलरशी वैर निर्माण झालं ते त्याने रशिया आणि जर्मनीमधे झालेला अनाक्रमणाचा करार मोडून थेट रशियावर हल्ला चढवल्यावर. या दु:साहसामुळे रशियासारखा बलाढ्य देश दुसर्‍या महायुद्धात उतरला आणि त्याचा परिणाम हिटलरला आणि जर्मनीला पराभवाच्या स्वरूपात भोगावा लागला. स्वतः हिटलर जीवानिशी गेला. अर्थातच जेते इतिहास लिहीत असल्याने दुसर्‍या महायुद्धात विजयी ठरलेल्या दोस्त राष्ट्रांनी आपल्या मर्जीने इतिहास लेखन केलं; जसं भारतात आधी इस्लामी आक्रमकांनी आणि मग इंग्रजांनी केलं तसंच. त्या काळात भारतात स्वातंत्र्य चळवळ जोरात होती आणि सुभाषबाबूंनी जर्मनीकडून त्या करता मदतही मागितली होती, पण ती मिळू शकली नाही.

आता भारतीय कम्युनिस्टांकडे वळूया. आधी म्हटल्याप्रमाणे कुठल्याही पाश्चात्य देशात अतिशय शिस्तप्रिय माणसाला हिटलर हे विशेषण लावलं जात नाही. पण भारतातच हे का? हिटलरच्या उदयाची जी कारणं आपण वर बघितली त्यातलं अत्यंत महत्त्वाचं कारण म्हणजे राष्ट्रवाद. आणि जोडीला जर्मन वंश शुद्धतेचा आग्रह. एक जनता, एक नेता (eine volk, eine Fuhrer) आणि एका पराभूत, हतप्रभ राष्ट्राला पुन्हा सर्वश्रेष्ठ बनवण्याचं आश्वासन (Deutschland uber alles = Germany above everything) या दोन गोष्टींनी जर्मन जनतेच्या आत धगधगत असलेल्या राष्ट्रभावनेला वणव्याचं स्वरूप दिलं. दुर्दैवाने जर्मनीला प्रगतीपथावर यशस्वीरित्या नेणार्‍या हिटलरने 'अति सर्वत्र वर्जयेत' हे न समजल्याने देशाला युद्धात लोटून शेवटी स्वतःचाही नाश ओढवून घेतला.

डाव्या विचारसरणीच्या, कम्युनिस्ट वगैरे लोकांच्या कार्यपद्धतीची तुम्हाला माहिती असेल तर राष्ट्रवाद या शब्दाची त्यांना भयानक अ‍ॅलर्जी असते. आठवा - "भारत तेरे तुकडे होंगे" वाले लालभाई. दुसरी गोष्ट म्हणजे सत्ता हस्तगत करण्यासाठी अराजक (chaos) सदृश्य परिस्थिती निर्माण करणे हा त्यांचा प्रमुख हेतू असतो. सतत कुठलं ना कुठलं तरी आंदोलन करत रहायचं. प्रत्येक समस्येवर प्रस्थापित व्यवस्थेला उद्वस्त करणं हाच एक उपाय असल्याचा त्यांचा दावा असतो. अर्थात, प्रस्थापितांना पायउतार व्हायला लावून कम्युनिस्टांनी जिथे सत्ता हस्तगत केली आहे तिथे असलेली परिस्थिती आणखी बिबिघडून लोकांना "मग आधीचेच काय वाईट होते" असं वाटायला लागलं हा भाग अलाहिदा. आझादीच्या नावाने सत्तेत आल्यावर मात्र आझादीचं नावही कम्युनिस्ट काढत नाहीत हा जगभरातला त्यांचा ढळढळीत इतिहास आहे.

जिथे शिस्त असते तिथे अराजक निर्माण करणं अवघड होऊन बसतं. मग राष्ट्रवाद आणि शिस्तीच्या जोरावर हतवीर्य झालेल्या जर्मनीला अवघ्या सहा वर्षात पुन्हा गतवैभव प्राप्त करुन देणार्‍या हिटलर हा कम्युनिस्टांच्या, विशेषतः भारतीय कम्युनिस्टांच्या दृष्टीने, अन्यायाचा पोस्टर बॉय झाला. लक्षात घ्या, कम्युनिस्टांच्या दृष्टीने खरी समस्या हिटलर नसून शिस्त म्हणजे डिसिप्लिन आहे. हिटलर हा जगन्मान्य क्रूरकर्मा होता, म्हणूनच कम्युनिस्टांच्य दृष्टीने हिटलरने जे काही केलं ते त्या सगळंच वाईट, मग तो शिस्तप्रिय असल्याने शिस्तही वाईटच. मग सुरू झाला एक सुनियोजित प्रचार. ज्या व्यक्तीला शिस्तप्रिय कारभार करण्यात रस आहे तो हिटलर. एखादी व्यक्ती कडक शिस्तीची असेल तर ती व्यक्ती हिटलर. एक हरलेला विनाशकारी हुकूमशहा. हा प्रचार इतका खोलवर रुजवला गेला की हिटलरच्या कोणत्याही कृत्याला चांगलं म्हणायला तुम्ही गेलात की तुमच्यावर नाझी, फॅसिस्ट (आता समाजवादी नाझीवाद आणि फॅसिझम यात बराच फरक आहे हा भाग अलाहिदा, पण अपप्रचार करायला हे शब्द शिवीसारखे बरे पडतात), हुकूमशाहीचे समर्थक, वंशवादी - काय वाट्टेल ती लेबले काढून चिकटवली जातात. आपल्या मनात इतकी शिताफीने ही गोष्ट वर्षानुवर्ष ठसवली गेली की आपण हा आपलाच विचार असल्यागत "हिटलर कुठला" असे शब्द अगदी नित्याच्या व्यवहारात वापरत असतो.

समाज शिस्तप्रिय असेल तर तो कुठल्याही शत्रूचा निकराने सामना करु शकतो ही गोष्ट ठावूक असल्याने कम्युनिस्टांना, विशेषतः भारतीय कम्युनिस्टांना, आपल्या विरोधकांमधे नेमकी हीच गोष्ट सहन होत नाही. यांचा विरोध करणार्‍या प्रत्येकाला जेव्हा "संघी फॅसिस्ट" म्हणून बदनाम करण्याचा प्रयत्न होतो तेव्हा त्यांना अज्ञानी म्हणून विषय सोडून देऊ नका. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हे कम्युनिस्टांच्या दृष्टीने शिस्त आणि राष्ट्रवादाचं प्रतीक आहे आणि अर्थातच त्यांच्या मार्गातला धोंडा आहे. याच कारणास्तव ते संघाला बदनाम करण्यासाठी विशेष जोर लावतात आणि व्यवस्थित प्रचार केल्याने ते काही अंशी यशस्वीही झाले आहेत.

कम्युनिस्टांचं यश बघायचं असेल तर आत्ताच्या जर्मनीकडे बघा. वंशशुद्धतेला पाप ठरवून मल्टी-कल्चरलिझमच्या नावाखाली इस्लामी निर्वासितांचा कॅन्सर आयात करवला आणि देशाची वाट लावली. हाच मल्टीकल्चरलिझम नामक रोग सगळ्या युरोपात पसरवून इस्लामचं सर्दीपडसं कायम चिकटवून दिलं त्याचे परिणाम आज त्या संपूर्ण खंडात दिसत आहेत. भारतात काँग्रेसवाल्यांना हाताशी धरून निर्वासितांच्या नावाखाली बांग्लादेशी मुसलमानांची बेकायदेशीर घुसखोरी अनिर्बंध चालू देण्यामागे बंगालातले कम्युनिस्टच तर आहेत!

आपल्याकडे शाळेत एन.सी.सी.चं महत्त्व पद्धतशीरपणे कमी करण्यात आलं. १९६३ साली सक्तीचं करण्यात आलेलं एन.सी.सी. प्रशिक्षण अचानक १९६८ साली पुन्हा ऐच्छिक करण्यात आलं. कारण युद्धात एन.सी.सी.चा झालेला उपयोग बघता संपूर्ण तरुणाई जर राष्ट्रभावनेने प्रेरित होऊन शिस्तबद्ध रीतीने काम करु लागली तर कम्युनिस्टांना त्यांचा कार्यक्रम रेटणं अवघड होऊन बसलं असतं. आपल्याकडे कन्ज्युमरिझम म्हणजेच उपभोक्तावादाला प्रोत्साहन देण्यामागे ग्राहकाला राजा करण्याचा हेतू नव्हता. उलट यातून ग्राहकाला आणि पर्यायाने भारतीय जनतेत "मी राजा आहे म्हणजे मला सगळं आयतं आणि बसल्याजागी मिळालं पाहीजे" या मनोवृत्तीला आणि आळशीपणाला चित्रपट आणि जाहीरातींच्या माध्यमातून पद्धतशीरपणे खतपाणी घातलं गेलं. हा विचार करताना कम्युनिस्ट मतप्रणालीच्या प्रभावाखाली असलेल्या लोकांचं या दोन्ही उद्योगांवर असलेलं वर्चस्व लक्षात ठेवणं आवश्यक आहे. भारतीय लोक शिस्तप्रियतेसाठी कधीच प्रसिद्ध नव्हते पण आपल्यात बेशिस्त आणि आळशीपणा बळावण्याला हे दोन उद्योग प्रामुख्याने जबाबदार आहेत.

खूप मोठा लेख होईल पण चित्रपट व्यवसायाचा उल्लेख झालाच आहे तर त्यातील अनेक उदाहरणांपैकी दोन सांगितल्यावाचून हे लेखन अपूर्ण राहील.

प्रसिद्ध चित्रपट शोले तुम्ही बघितलाच असेल. नसेल तर नक्की बघा. त्यात असरानीची भूमिका ही खूप शिस्तप्रिय असलेल्या जेलरची आहे, आणि त्याच्यावर चित्रित झालेली दृश्ये बघण्यासारखी आहेत. कडक शिस्तीचा भोक्ता असलेला तो जेलर कैद्यांकडूनही पोलीस किंवा सैनिकांसारखी कवायत घेत असतो. आपण किती शिस्तीचे आहोत हे दाखवायला एक वाक्य त्याच्या तोंडात कायम असतं आणि ते म्हणजे "हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर हैं". नेहमी तोंडाने  इंग्रजांच्या शिस्तप्रियतेचा वारसा चालवण्याचा जप चालू असला तरी असरानीचा चित्रपटातला गेटअप हा तंतोतंत हिटलरसारखाच ठेवण्यात आलेला होता. हिटलरसारख्याच मिशा आणि तसाच गणवेश त्याला चित्रपटात दाखवण्यात आला आहे. शिवाय त्याचा चित्रपटातील वावर हा विनोदनिर्मितीसाठी करुन घेण्यात आला होता. थोडक्यात काय शिस्तप्रियता ही चेष्टा करण्यायोग्य आणि हसण्यावारी नेण्याची  गोष्ट असल्याचे ही दृश्ये आपल्या मनावर ठसवण्याची एकही संधी सोडत नाहीत.

दुसरं उदाहरण म्हणजे प्रसिद्ध चित्रपट दिग्दर्शक हृषिकेश मुखर्जींच्या "खूबसूरत" या चित्रपटाचं. हृषिदांचे चित्रपट मी सुरवातीला जेव्हा पाहिले तेव्हा खुसखुशित व दर्जेदार विनोद आणि मध्यमवर्गाचं दर्शन या गोष्टींमुळे मला खूप आवडले होते. त्या वेळी मला काही बाबी खटकत असत पण नेमकं का ते कळत नसे. बाकी सगळ्यांना काहीच वाटत नाही मग मी का बोलून वाईटपणा घेऊ म्हणून मी तेव्हा गप्प बसत असे. पण नंतर नंतर मी जेव्हा कम्युनिझम अर्थात साम्यवादाविषयी वाचन सुरू केलं तेव्हा त्या चित्रपटांतली खरी गोम लक्षात आली आणि मुळापासून हादरलो. कारण अल्प प्रमाणात असलेले अपवाद वगळले तर त्यांच्या चित्रपटात नियमबाह्य वर्तन (खूबसूरत), शुद्ध हिंदीची चेष्टा आणि उर्दूची अनावश्यक भलामण (बावर्ची - राजेश खन्ना आणि पेंटल यांच्यातला संवाद आठवा), भारतीय वेशभूषेची व संस्कृतप्रचूर हिंदीची चेष्टा (गोलमाल), आणि  भाषाशुद्धीला मूर्ख ठरवणं (चुपके चुपके) अशी कम्युनिस्ट अजेंड्याचा छुपा प्रचार करणार्‍या चित्रपटांची रांगच लागलेली दिसून आली.

तर, आपण बोलत होतो यांपैकी "खूबसूरत" या चित्रपटाबद्दल. अंजू या आपल्या मोठ्या बहिणीच्या सासरी सुट्टीत मजा करायला गेलेली मंजू (रेखा) त्या घरातल्या नियमबद्ध आणि शिस्तप्रिय वातावरणात गुदमरू लागते. तिच्या मोठ्या बहिणीला, अंजूला, काहीच त्रास होत नाही. सासरच्यांकडून मिळणारी मुलीसारखी वागणूक आणि प्रेम यांनी ती आनंदी असल्याने तिला घरातल्या कडक शिस्तीचं काहीच वाटत नाही. पण मंजूला हे सगळं पाहून स्वस्थ बसवत नाही. ती स्वतः बंड करते आणि कहर म्हणजे अंजूच्या सासरच्यांनाही तसं करायला उचकवते. ती जे काही करते त्यासाठी तिच्याकडे एक सोप्पं स्पष्टीकरण असतं - यात काहीच चूक नाही. आपल्याला यातून फक्त निर्मळ आनंद (निर्मल आनंद) मिळवायचा आहे, त्यामुळे कसलाही अपराधगंड मनात बाळगू नका. आपलं बेशिस्त वागणं पटवायला "निर्मल आनंद" हे शब्द ती घोषणेसारखे वापरते आणि त्या बरोबर अत्यंत गोड हसू सुद्धा. इतकंच काय मधल्यामधे अंजूचा धाकटा दीर तिच्या प्रेमात पडतो. अंजूच्या सासूची पाठ वळल्यावर होणार्‍या या उचापती मंजू एक नाटकवजा गाणं घराच्या गच्चीवर बसवते तेव्हा कळस गाठतात. हा चित्रपट बघितला तेव्हा हे खेळकर गाणं मला खूप आवडलं होतं. पण या गाण्याचे शब्द आज कानावर पडले तर काहीतरी वेगळीच भावना मनाचा कब्जा घेते आणि इतकी वर्ष नक्की काय विष आपल्या मनात कालवण्यात आलं ते आठवून घाबरायला होतं.

चित्रपट म्हणून खूबसूरत अत्यंत मजेशीर होता. पण चित्रपटकलेत वामियां [वामी (डावे) आणि मियां] वाक्बगार असतात. प्रत्येक विषयात आणि परिस्थितीत काही ना काही खुसपटं काढून लोकांची कशी घुसमट होते आहे हे दाखवणं ही कम्युनिस्ट भाषणांचा आणि साहित्याचा एक प्रमुख भाग असतो. यातच चित्रपटही आले. मियां लोकांची पद्धत हीच, पण जरा वेगळी असते. कदाचित म्हणूनच म्हणतात की सिनेमा बघायला जाताना डोकं घरी ठेवून जायचं असतं. पण या वाक्याचा कम्युनिस्टांना अभिप्रेत असलेला अर्थ असा की तुम्ही चित्रपट बघताना काहीही विचार करु नका, कोणतेही प्रश्न, शंका मनात येऊ देउ नका; आणि चित्रपट दाखवेल ते निमूटपणे बघा. खरंच डोकं घरी ठेवून गेलं तरी चित्रपट लोकांच्या मनावर काहीच प्रभाव सोडत नाहीत असं नक्कीच होणार नाही. तुम्ही इंटरनेट वापरत असताना तुमच्याही नकळत तुमच्या कॉम्प्युटरवर कुकीज (cookies) आणि टेम्पररी इंटरनेट फाइल्स (Temporary Internet Files) जमा होत जातात त्याच प्रमाणे कोणताही चित्रपट हा प्रेक्षकांच्या मनात भविष्यातील विचारांची बीजं रोवत जातोच.

तर, क्लासिक कम्युनिस्ट अजेंडा वाटावं असं खूबसूरत चित्रपटातलं गाण उद्धृत करुन आपली रजा घेतो.

सारे नियम तोड़ दो । नियम पे चलना छोड़ दो ।
अरे सारे नियम तोड़ दो । नियम पे चलना छोड़ दो ।
इंकलाब ज़िंदाबाद ! इंकलाब ज़िंदाबाद !
आप भी बोलिए - इंकलाब ज़िंदाबाद ! इंकलाब ज़िंदाबाद !

खाओ पियो मजा करो, खिलखिलाकर हंसा करो
कल की चिंता करेंगे कल, आज को आज ही जिया करो
सारे नियम तोड़ दो । नियम पे चलना छोड़ दो ।
अरे सारे नियम तोड़ दो । नियम पे चलना छोड़ दो ।
इंकलाब ज़िंदाबाद ! इंकलाब ज़िंदाबाद !

दिन के चौबीस घंटों में, आठ घंटे सोना है
और चार है खाना पीना, दो है रोने धोने के
कुल बाकी चार ही बचते हैं
चार में कितना काम करे, खेले या आराम करें

जिस बात में आनंद मिले, वो करने में हर्ज नहीं
हर चीज जहां पर महंगी है, हर चीज का चढ़ता पारा है
भाड़े से ऊंची बिल्डिंग में, बिल्डिंग से ऊंचा भाड़ा है
जिस बात में आनंद मिले, वो करने में हर्ज नहीं
हर चीज जहां पर महंगी है, हंसने पर खर्च नहीं
सारे नियम तोड़ दो । नियम पे चलना छोड़ दो ।
अरे सारे नियम तोड़ दो । नियम पे चलना छोड़ दो ।
इंकलाब ज़िंदाबाद ! इंकलाब ज़िंदाबाद !
सारे नियम तोड़ दो । नियम पे चलना छोड़ दो ।

निरमा वॉशिंग पावडर कशामुळे लक्षात राहते? तिच्या टीव्हीवरच्या जाहीरातीमुळे. काय विशेष आहे त्या जाहिरातीत? तर हॅमरिंग. त्या जाहिरातीतले वारंवार हॅमर केलेले शब्द म्हणजे त्या उत्पादनाचं नाव. दूध सी सफेदी, निरमा से आये, रंगीन कपडे भी खिल खिल जायें. सबकी पसंद निरमा; वॉशिंग पावडर निरमा! निरमा!! निरमा!! बघा निरमा हे नाव किती वेळा हॅमर केलंय जाहिरातीत. तसंच या गाण्यात "सारे नियम तोड दो, नियम पे चलना छोड दो" आणि "इंकलाब ज़िंदाबाद! इंकलाब ज़िंदाबाद!" हे शब्द किती वेळा बोलून हॅमर केले गेलेत ते मोजा. काय बिशाद आहे कुणी शिस्तीप्रिय बनेल!!!

ता.क. अजून भारत कम्युनिस्टांच्या प्रभावाखाली पूर्णपणे गेलेला नाही याचा प्रत्यय आणणारा दिलासादायक परिणाम दाखवणारा कालखंड नुकताच येऊन गेला. नोटबंदीच्या काळात काँग्रेसच्या पप्पूपासून ते सर्वोच्च न्यायालयाच्या न्यायाधिशांपर्यंत सगळ्यांनी कामगार व शेतकरी वर्ग आणि मध्यमवर्गीयांचा कैवार घेऊन ते किती त्रासात आहेत हे दाखवून "देशात दंगली होतील" असे थेट इशारे देत जनतेला सरकारविरुद्ध हिंसात्मकरित्या भडकवण्याचा प्रयत्न केला. पण देशात राष्ट्रवादाची नव्याने पेरणी केलेल्या पंतप्रधान मोदीजींनी जनतेच्या मनावर असं काही गारुड केलं की जनतेने अशांना अभूतपूर्व संयम व शिस्तीचं दर्शन घडवत व्यवस्थित फाट्यावर मारलं.

© मंदार दिलीप जोशी - मराठी रूपांतर व संपादन
प्रेरणास्त्रोत / मूळ  हिंदी लेखन - आनंद राजाध्यक्ष
पौष शु. ५, शके १९३८

या आधीचा लेखः वामपंथी भारत विखंडन १ - छडी लागे छम छम

Tuesday, December 13, 2016

ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी | यह सब है ताडन के अधिकारी ||

बुद्धिभेद किस तरह किया जाता है, ये दिखाने हेतू आदरणीय श्री सच्चिदानंद शेवडे गुरुजी ने कुछ दिन पहले रामायण से एक श्लोक उसके संदर्भ एवं अर्थ के साथ दिया था.

यः स्वपक्षं परित्यज्य परपक्षं निषेवते।
स स्वपक्षे क्षयं याते पश्चात् तैरेव हन्यते॥ [वाल्मीकि रामायण, युद्धकांड, ८७|१६]

जो व्यक्ती स्वपक्ष को छोड दूसरे पक्ष मे जाता है, उसके पहले वाले पक्ष का नाश होने पर, स्वयं उस व्यक्ती का नाश, वह व्यक्ती जिस नये पक्ष मे शामिल होता है, उस हे हातों होता है.

चूंकि शेवडे गुरुजी धर्म तथा आध्यात्म क्षेत्र में मानी हुई हस्ती हैं, अनेक लोगों ने बहुत अच्छी टिप्पणीया कीं. कुछ लोगों ने उसका संबंध आजकल के राजनिती से जोडकर देखा और उन्हे लगा की यह आज के दलबदलू लोगों के लिये रामायणीय चांटा है. कुछ लोगों ने प्रश्न किया की दल तो बिभीषण ने बदला था परंतु उसका क्या बुरा हुआ, और कुछ लोगों मे पूछा की सत्य एवं न्याय के पक्ष मे जाना क्या बुरा है? व्हॉट्सॅप और फेसबुक के माध्यम से ऐसे अनेक प्रश्न पूछे गये. बहुत कम लोगों ने इसका सटीक संदर्भ  पूछा. तथापि केवल चंद्रशेखर व.वि. नामक एक महाशय ने इस श्लोक पर संशोधन कर यह प्रतिपादन किया की यह श्लोक रामायण की सीख का भाग नहीं है. और यही अपेक्षित था.

यह है रामायण का वह भाग है जिसमें रावणपुत्र इंद्रजीत तथा बिभीषण इन चाचा-भतीजा के बीच का संवाद है. उपर दिये हुए श्लोक वह वाक्य है जो इंद्रजीत अपने चाचा बिभीषणसे कहता है.

अपने भतीजे की इस आलोचना का उत्तर देते हुए बिभीषण कहते हैं:

राक्षसेन्द्रसुतासाधो पारुष्यं त्यज गौरवात् ।
कुले यद्यप्यहं जातो रक्षसां क्रूरकर्मणाम् ।
गुणो यः प्रथमो नृणां तन्मे शीलमराक्षसम् |

हे अधम राक्षसकुमार! अपने से आयु मे बडों का सन्मान ध्यान मे रखकर तुम इस कठोरता का त्याग करो. यद्यपि मेरा जन्म राक्षसकुल में अवश्य हुआ है परंतु मेरा शील एवं स्वभाव राक्षसों जैसा नहीं है. सत्पुरुषों का जो प्रमुख गुण होता है, सत्त्व, उसी का मैनें अंगीकार किया है.

परस्वहरणे युक्तं परदाराभिमर्शनम् ।
त्याज्यं आहुः दुरात्मानं वेश्म प्रज्वलितं यथा | [युद्धकांड ८७-२१ ते २३]

(हे इंद्रजीत) जिस प्रकार हम अग्नि मे लिप्त घर को त्याग देते हैं, उसी प्रकार जो दूसरे का धन लूटता है तथा परस्त्री को स्पर्श करता है ऐसे दुष्ट आत्मा धारण करने वाले को त्यागना ही उचित है.

उपर लिखे हुए दो श्लोकों से यह सीधा सीधा अर्थ निकलता है की बिभीषण ने को किया, उचित ही किया.

कई बार कुछ भारत विखंडन वाले हिंदूविरोधी तथा जातीवादी 'प्रबुद्ध जन' हिंदू धर्म को नीचा दिखाने हेतू पुस्तके लिखते हैं और उन में ऐसे ही संदर्भहीन श्लोक छाप देते हैं. हिंदू तो संदर्भ के साथ अपने ही ग्रंथ पढने से रहे. तो जब ये पुस्तके पढते हैं तब स्तब्ध रह जाते है, और धीरे धीरे हमारे धर्म के प्रती इन्फिरिओरिटी कॉम्प्लेक्स होने लगता है. लेकिन कोई भी मूल ग्रंथ पढकर उसका सटीक संदर्भ नहीं देखता. बुद्धीभेद करने वालों को सफलता ऐसे ही मिलती है. मूल संदर्भ, उसका हेतू, घटनाएं, वह शब्द कहने वाला पात्र, उस सारे प्रसंग का कार्यकारणभाव और ग्रंथ रचयिता का हेतू ये सारी चीजें ध्यान मे रखकर श्लोक तथा संवादों को पढा जाए तब जाकर हमें उसका सत्यार्थ समझ में आता है.

इसका सर्वपरिचित एक उत्तम उदाहरण संत तुलसीदासजी पर किया गया एक आरोप है. जानते है इस आरोप के विषय में.

ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी |
यह सब है ताडन के अधिकारी ||  [सुन्दरकाण्ड]

यह उदाहरण देते हुए कुछ लिबरल फिबरल लोग हिंदू धर्म महिलाओं का किस प्रकार दमन करता है ऐसे ढोल पीटते रहते हैं. परंतु सत्य कथा यह है की यह ना तो रामचरितमानस की सीख है न तो यह संत तुलसीदासजी का कहना है. किस्सा कुछ इस प्रकार है कि प्रभू राम ने जब लंका पहुंचने हेतू समुद्र देवता से विनती की, की आप पीछे हट जाईये, तब उन्होंने प्रभू श्री राम की बात नहीं मानी. बहुत मिन्नतें करने के पश्चात भी जब समुद्र देवता ने बात नहीं मानी तो प्रभू राम को क्रोध आ गया और उन्होंने अपने धनुष्य पर बाण चढाकर प्रत्यंचा तान ली. जब तक प्रभू राम केवल विनतीयां कर रहे थे, तब तक समुद्र देवता ध्यान नहीं दे रहे थे. परंतु जब प्रभू राम नें शस्त्र उठाया, तब समुद्र देवता कांप गये और इसी भयभीत एवं लाचार मनस्थिती में कुछ भी अनापशनाप बकने लगे. उसी अनर्गल बकवास का एक भाग यह दो लाईने हैं.

आज के जमाने में कहा जाए तो अगर किसी फिल्म का एक छोटा कलाकार या व्हिलैन अगर कहे की "औरत होती ही है भोगने के लिए" तो इसका मतलब यह तो नहीं की यह वाक्य फिल्म के हीरो के माथे मढ कर इसे फिल्म का संदेश मान लिया जाए या फिर इस वाक्य को निर्देशक या लेखक का प्रतिपादन. इस का एक ही अर्थ होता है की यह वाक्य उस फिल्म मे किसीने किसी से कहा है. ठीक उसी प्रकार यह दो लाईने हैं.

कुछ व्हॉट्सॅप तथा फेसबुकीय विद्वान ऐसे होते हैं जिन्हें हिंदू धर्म पर उंगली उठाने हेतू ऐसी ही कुछ लाईने चिपकाने की आदत होती है. अगर कोई ऐसा करे, तो कृपया उसे सटीक संदर्भ पूछना मत भूलीयेगा.

सत्य, तर्क, एवं सटीक संदर्भ से वे डरा करते हैं.

मूल मराठी पोस्ट लेखकः © Dr Satchidanand Shevde 
हिंदी भावानुवादः © मंदार दिलीप जोशी

मार्गशीर्ष शु. १४, शके १९३८, श्री दत्त जयंती

Friday, December 9, 2016

घरवापसी के शत्रू

इस विषय में मैं बहुत आगे की सोच रहा हूं. परंतु इतिहास में की गयी मूर्खतापूर्ण गलतीयों से अगर हम आज नहीं सीखेंगे तो पहले जो संकट आये थे उस की तूलना में कई अधिक तीव्रता के संकटों का हमको सामना करना पडेगा. और इस बार जो होगा वह सर्वनाश की ओर ले जाने वाला संकट होगा.

इस्लाम किस तरह से धर्म परिवर्तन करता है यह हम कई सालों से देखते आ रहे हैं. इतिहास में दीन के बंदों ने तलवार की जोर से कईं धर्म परिवर्तन किए. आज तलवार का जोर शायद न चले इसी लिए लव्ह जिहाद जैसे शातिर तरीके अपनाए जा रहे हैं. इसाई धर्मपरिवर्तन करने वालोंने इनसे अधिक बुद्धिमान एवं संयमी होने के कारण तलवार से साथ साथ शांतीपूर्ण मार्ग भी अपनाये. परंतु हमें सिर्फ तलवार का मार्ग दिखाई देता है, दिमाग का नहीं. तलवार से किए हुए धर्मपरिवर्तन की घरवापसी हमें शिवाजी महाराज के सरदार नेताजी पालकर के उदाहरण के रूप मे दिखती है (फिर भी वह घरवापसी महाराज ने की थी, और महाराज के सामने बोलने की किसकी हिंमत हो सकती है? जाने दीजीए, यह विषय परिवर्तन हुआ.) लेकिन दिमाग से किए हुए धर्मपरिवर्तन की घरवापसी पर हमनें अपनें ही कर्मों तथा वचनों से ताला लगा दिया.

हमारे महाराष्ट्र में हुए कुछ घटनाओं को सुनकर मेरा खून खौल उठता है. भारतवर्ष में ब्रेड यानी की पाव लाया अंग्रेजों ने. जब अंग्रेजों का राज आया तो यहां कोई भी ब्रेड नहीं खाता था क्युंकि वह तो गोरे लोगों का यानी की इसाईयों का खाना था. हमारे शत्रू का खाना था. लोगों ने यह ठान लिया की जो भी व्यक्तिविशेष ब्रेड खाता है वह हमारा शत्रू है. इस बात का शातिर दिमाग अंग्रेज फायदा न उठाते तो ही आश्चर्य की बात थी. उन्होंने एक बडी जबरदस्त कल्पना को अंजाम दिया जिससे कम से कम कष्ट में धर्मपरिवर्तन का कार्य बडी आसानी से कर सकते थे. किसी तरह बहला फुसला के ब्रेड खिलाना, और फिर यह बात फैलाना की फलाना आदमी ने ब्रेड खाया है यह बात उस ब्रेड खाने वाले व्यक्ती का सामाजिक बहिष्कार कराने के लिए पर्याप्त थी. इसका परिणाम आगे बताता हूं. लेकिन इस उपाय से भी एक बडा आसान उपाय था. जब लोग ब्रेड खाने से मना करने लगे तो अंग्रेज ब्रेड या उसके टुकडे गांव के किसी चहल पहल वाले कुए में फेका करते थे जहां बहुत लोग पानी पीने आते हों. ऐसे जगह हुई घटनाएं गांव में ऐसे फैल जातीं जैसे गर्मी के मौसम में किसी वन में अग्नि का फैल जाना. जैसे की पहले लिखा है, ऐसे व्यक्ती या व्यक्तीयों का सामाजिक बहिष्कार किया जाता यह समझकर की वह व्यक्ती ब्रेड से 'दूषित' जल को प्राशन करके इसाई बन चुका/के हैं. यह हमारी ऐतिहासिक मूर्खता नहीं तो और क्या है? अजि ब्रेड को फेंक दिजीये और पानी पी कर काम पे लग जाईये. लेकिन ऐसी सूझबूझ उस समय के बहुतांश लोग नहीं दिखा पाये और लगभग शून्य कष्ट करके इव्हॅन्जलिस्ट लोगों ने कईयों को अपनी गिरोह में सम्मिलित किया. हां गिरोह में. क्युंकि जो धार्मिक पुस्तक यह कहता है कि अगर तुम हमारे भगवान को नहीं मानते हो तो तुम जीवित होते समय आध्यात्मिक दृष्टीसे एवं मरणोपरांत नर्क में कयामत तक आग में झुलसोगे, तो ऐसे लोगों को धर्म नही गिरोह ही कहना उचित होगा.

तो मैं यह कह रहा था, कि उस समय के पुरोहितों ने या समाज के बडे बूढों ने क्या यह कहना उचित नहीं था की अरे ब्रेड खा लिया तो क्या हुआ? चलिये ब्रेड को फेंकिये और एक स्नान कर लिजीये, और कुछ अधिक की अशुद्धता का आभास हो तो एक दिन का उपवास रख लिजीए, तो आप हो गये शुद्ध. या फिर अगर ऐसा मानना हो की आप ब्रेड खाने से इसाई हो गये हैं तो चलिये एक पूजा रखते हैं जिससे की आप फिरसे आपने आर्य सनातन धर्म में आ जायेंगे. या फिर एक यज्ञ का आयोजन करते हैं जिससे आप पुनः शुद्ध बनकर हिंदू हो जायेंगे.

परंतु बाकी विषयों मे पारंगत हमारे गुरुजनों तथा समाज के प्रबुद्ध नागरिकों ने इसमें से कोई भी उपाय नहीं किया. अगर किया तो बताईए, क्युंकि मुझे नहीं पता. ब्रेड खाने वाले व्यक्ती एवं ब्रेड या ब्रेड का टुकडा पडे हुए कुए में से पानी पीने वाले का तत्काल बहिष्कार किया गया और उसे अपने हिंदू धर्म में वापसी करने के सारे मार्ग बंद कर दिये गये.

ऐसी अनेक कल्पनाएं होंगी जिससे धर्मपरिवर्तन कर दिया गया होगा. तो अब आप सोचेंगे इसका ट्रिपल तलाक तथा कॉमल सिव्हिल कोड से क्या संबंध?

यह रामायण बताने का उद्देश यह है कि अगर कम इस इतिहास से सीख लें तो इस्लाम से घरवापसी करने वाले लोगों को हिंदू समाज मे सहजतापूर्वक सम्मिलित (assimilate) कर सकेंगे. मान लिजीये की कोई मुस्लीम युवती हिंदू हो जाती है. लेकिन उसके भविष्य का उसे सोचना ही होगा. अगर उसे विवाह करना है तो उसे हिंदू वर कैसे मिलेंगे? इसके दो पहलू हैं. एक तो सामाजिक स्तर पर जैसे जातीयों से संबंधित विवाह मॅरेज ब्युरो होते हैं, उसी तरह दूसरे धर्म से हिंदू धर्म में आने वाले युवाओं के लिये विवाह मार्गदर्शन संस्थाओं का होना आवश्यक है. यह आवश्यक नहीं की ऐसी संस्थाएं रजिस्टर्ड हों. यह भी आवश्यक नहीं है की संस्थाएं ही हों, उन के साथ साथ अनौपचारिक गुटों का भी योगदान हो सकता है. अकेले व्यक्ती भी मार्गदर्शक हो सकते हैं. लेकिन अधिक परिणाम के हेतू संस्थाओं का होना आवश्यक होगा.

हमारे हिंदू समाज से कोई आगे आकर उसे धर्मपत्नी के रूप मे स्वीकार करने का साहस कर सकेगा? क्या उसके घरवाले, कल्पना किजीये की आप ही ऐसे युवक के माता पिता हैं, क्या आप ऐसी मुस्लीम अथवा इसाई युवती को अपने घर की लक्ष्मी, अपनी बहू बनाके का ढाढस बंधा पाएंगे? उसे बहू बनाकर अपने संस्कारों मे ढालने का कष्ट उठा पायेंगे? अगर आपका उत्तर 'नहीं' है, तो घर में पंखे के नीचे या एसी में बैठे बैठे घरवापसी पर पोस्ट पेलना व्यर्थ है.

मुझे यह ज्ञात है कि जैसे कपडे बदलते हैं वैसे इस्लाम को छोडना संभव नहीं. दमन क्या होता है यह इस्लाम में रहने से ही समझ में आता हैं. हिंसा भी होगी अगर ऐसे लोग इस्लाम छोडने लगे.

इस हिंसात्मक प्रतिक्रिया का मुझे पूर्ण रूप से ज्ञान है. लेकिन मेरा उद्देश्य कुछ अलग है. मुझे हिंदूओं की उस मानसिकता पर उंगली उठानी है, जिससे हम जीते हुए युद्ध हमारे ही तकियानूसी खयालातों के कारण हार जाते हैं, जबकि बाकी सारे कारण हमारे पक्ष में होते हैं. जैसे की अर्थशास्त्र में हर सिद्धांत "Other things being equal..." इन शब्दों से शुरुवात होती है.

बहुत बोल चुका, लेकिन एक और उदाहरण देना आवश्यक समझता हूं. टेनिस खिलाडी विजय अमृतराज आपको याद होंगे ही. १९७३ में वह विम्बलडन सिंगल्स विजेता बनते बनते रह गये थे. क्वार्टर फाइनल मे जॅन कोड्स के सामने खेलेते हुए विजय के सामने ऐसा क्षण आया की कोड्स के शॉट पर उन्हे सिर्फ एक आसान सा स्मॅश मारना था. अगर वह स्मॅश सफलतापूर्वक मारते, तो उनके लिये वह मॅच जीतना तय था. लेकिन ऐन समय पर हिंमत हार कर उन्होंने यह मौका गवां दिया और मॅच हार गये. कोड्स आगे जाकर विम्बलडन का किताब जीत गये.

कुछ समझ में आया? अगर आया तो ठीक, वरना जो है, सो हयई है!

© मंदार दिलीप जोशी
मार्गशीर्ष शु. १०, शके १९३८

ट्रिपल तलाक और घरवापसी

ट्रिपल तलाक और समान नागरी कायदे को लेकर मुझे एक बात बहुत दिनों से खाए जा रही है.

एक भी हिंदू नेता - हां - एक भी हिंदू नेता - ना राजनेता, ना योगीबाबाजी, ना कोई साधू महाराज - मुस्लीम महिलाओं तथा सामान्य मुसलमानों से यह नहीं कह रहे हैं की अगर ऑल इंडिया मुस्लीम पर्सनल लॉ बोर्ड आपके मानवाधिकारों का दमन कर रहा है, और आप इस बात को मान चुके हैं की इस्लाम में तीन बार तलाक और हलाला हो या और किसी अधिकार की बात, सुधार की कोई संभावना नहीं है, तो इस्लाम छोड हिंदू धर्म मे प्रवेश किजीए. यहां आपको न केवल समान अधिकार मिलेंगे बल्कि आपके अधिकार पुरुषों से भी अधिक होंगे तथा न्याय व्यवस्था भी आप के याने महिलाओं की तरफ पक्षपात करेगी.

हां, इस घोषणा या यह परिणाम संभव नहीं की हजारों की संख्या में मुस्लींम महिलाएं और कुछ मुस्लीम पुरुष बगावत करके हिंदू धर्म मे प्रवेश करें. इसके कारण अनेक हैं जिस विषय में मेरे फेसबुक मित्र Anand Rajadhyakshaजी ने बहुत समय पहले लिखा था. परंतु किसी प्रभावशाली नेता या साधूबाबा के केवल ऐसी घोषणा करने के सकारात्मक मनोवैज्ञानिक परिणाम संख्या तथा प्रभाव में बहुत बडे हो सकते हैं.

युद्ध केवल शस्त्रों से अर्थात शरीर से नहीं अपितु मनोवैज्ञानिक अस्त्रों से भी खेला जाता है. लेकिन हम इसमें पीछे छूट रहे हैं. इस विषय में मुझे पुरानी पडोसन फिल्म के एक सीन का स्मरण हो रहा है. संगीत शिक्षक मास्टर पिल्लई का किरदार निभाने वाले मेहमूद अपने प्रेम प्रतिस्पर्धी भोला याने सुनील दत्त से एक झगडे के दरम्यान कईं बार कहतें हैं, "तुम आगे नै आना", "तुम आगे नै आना". लेकिन भोला और आगे आता जाता है. आखिर में मास्टरजी के "तुम आगे आना?" इस प्रश्न पर भोला डटकर कहता है, "हां". इस पर हार मानते हुए मास्टरजी, "तुम आगे आना? अच्छा तो हम पीछे जाना" यह कहकर पीछे हट जाते हैं.

तो है कोई माई का लाल ऐसी घोषणा करने वाला? या फिर "तुम आगे आना?" इस प्रश्न पर हम ही "पीछे जाना" करेंगे? कुछ समझे? अगर समझे तो ठीक. वरना जो है, सो हयई है!

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अगला भाग: घरवापसी के शत्रू
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© मंदार दिलीप जोशी
मार्गशीर्ष शु. १०, शके १९३८