Monday, March 5, 2018

गलती शास्त्रों में नहीं

यह चुटकुला अर्थात जोक फिर एक बार व्हॉट्सॅप पर आया:

धरम पिता - असली पिता नहीं
धरम माता - असली माता नहीं
धरम पुत्र  - असली पुत्र नहीं
धरम भाई - असली भाई नहीं
धरम बहन - असली बहन नहीं
लेकिन ऐसी जबरदस्त गलती हुई कैसे?
धरम पत्नी मतलब असली पत्नी.
पता करो शास्त्रों में कहां गलती हुई!!!

😜😝😂😂😷😷

गलती शास्त्रों में नहीं, इस जोक को लिखने वाले के दिमाग में हुई है. जरा तर्क लगाएंगे तो इसमें क्या गलती है ये आप को जल्द समझ आ जाएगा.

माता, पिता, पुत्र, बहन, भाई ये सब खून के रिश्ते होते है. इसी लिये आप जब किसी परिचित को इनमें से किसी रिश्ते की तरह मानने लगते हैं तो उसे धर्म का रिश्ता कहा जाता है, क्योंकी आपने उस इन्सान के साथ उस रिश्ते का धर्म की तरह निष्ठा से पालन करना एवं निभाना चाहते हैं.

धर्म की परिभाषा देते हुए भीष्म पितामह महाभारत में कहते हैं— धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मो धारयति प्रजाः। यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः।। अर्थात्—'जो धारण करता है, एकत्र करता है, उसे ''धर्म'' कहते हैं। धर्म प्रजा को धारण करता है। जिसमें प्रजा को धारण कर एकसूत्र में बाँध देने की सामर्थ्य है, वह निश्चय ही धर्म है।'
कोई स्त्री आपकी पत्नी बनके जन्म नहीं लेती, आप इस नाते को धारण करते हैं. सामान्यतः आपकी पत्नी से आपका कोई खून का रिश्ता नहीं होता. इसी कारणवश जिस स्त्री से आपकी शादी होती है उसे धर्मपत्नी इसीलिये कहा जाता है की आप ने कोई खून का रिश्ता न होते जन्म का बंधन स्वीकार करते हुए उसका शारीरिक एवं मानसिक तौर पर निष्ठा के साथ जीवनभर साथ देने का निर्णय लिया होता है. अर्थात, आपके जिस स्त्री को पत्नी का दर्जा दिया है उसका इस प्रकार साथ देना आपका दायित्व होता है, अर्थात धर्म होता है. जैसे की आपने किसी को अपना पिता या बहन मानकर उस रिश्ते को निभाने का वचन दिया हुआ होता है.

इसी लिये कहा था, गलती शास्त्रों में नहीं, इस जोक को लिखने वाले के दिमाग में हुई है.

हर बात पर राम, सीता, शास्त्र, वेद, पुराण इनपर चुटकुले सुनाना बंद किजीये और ऐसे चुटकुले आयें तो उनको आगे ढकेलना भी.


© मंदार दिलीप जोशी
फाल्गुन कृ. ४, शके १९३९

श्री रामचंद्र कृपालु भजमन हरण भव भय दारुणम्

प्रातःकाल में दिनदर्शिका अर्थात कैलेंडर की ओर ध्यान गया और देखा रामनवमी अर्थात भगवान श्री राम का जन्मदिन निकट आ रहा है. इस से कुछ महीनों पहले घटी एक घटना का स्मरण हुआ.

रात्रि के भोजन के कुछ समय पश्चात पलंग पर लेटे लेटे बेटा कहने लगा की पिताजी मै नहीं सोऊंगा, नींद नहीं आ रही है. वो आप कभी कभी गाना सुन रहे थे वो फिरसे लगाईये, थोडी देर सुनूंगा. बहुत अच्छा है, ऐसा गाना तो कोई गा नही सकता." छोटा है, मेरे समझ के अनुसार वह कहना चाह रहा था कि बहुत अनुठा गाना है.

वैसे वो कोई गाना नहीं था, तुलसीदासजी लिखित रामस्तुती "श्री रामचंद्र कृपालु भजमन हरण भव भय दारुणम्" थी. मै जो सुन रहा था उसे गायकों ने थोडा तेज गति से गाया था. केवल २ मिनट की होगी. मैने जैसे ही वो लगाई, समाप्त होने से पहले ही मुख पर समाधान के भाव लिये बेटेजी एकदम शांती से सो गये थे.

बहुत अचरज हुआ, इस कारण कि अगर वो सोना नहीं चाहता तो नहीं सोता, चाहे कितनी भी नींद आ रही हो.

कुछ दिनों मे बेटेजी को इसका मराठी में अर्थ बता दिया. रामस्तुती का अर्थ जानकर बेटेजी को भी बडा आनंद आया.

मेरा मानना है हम बच्चों को ऐसी हमारे भगवान, उनके अवतार, तथा ऐतिहासिक व्यक्तियों एवं संस्कृती से जुडी कहानियां, स्तोत्र, या गाने सुनाते रहना चाहीए क्योंकि इस प्रकार के ऑडियो/विज्युअल संस्कार आज के समय में बच्चों मे मन पर गहरा असर करते हैं. फिर न कोई वामी इन पर असर कर पायेगा न अधर्मी.

का कही?!

© मंदार दिलीप जोशी
फाल्गुन कृ. ४, शके १९३९

Sunday, March 4, 2018

रावण का उदात्तीकरण, रामनवमी, रक्षाबंधन, दशहरा, और हम

कई दिनों से इस विषय पर लिखना चाहता था, लेकिन अब रक्षाबंधन का त्यौहार करीब आ रहा है, और इस विषयपर नकारात्मक पोस्ट्स का सैलाब-सा आएगा, इसलिए लिखना आवश्यक मानता हूँ! गत कई दिनों से रावण की बड़ाई, और राम पर दोषारोपण करनेवाला एक व्होट्सऐप सन्देश चल रहा है, और कई लोगोंके पास उस में उठाए मुद्दोंपर कोई जवाब नहीं है. उस सन्देश में एक लडकी अपनी माँ से कहती है, कि उसे रावण जैसा भाई चाहिए, राम जैसा नहीं! राम ने सीता का त्याग करना, और रावण का अपनी बहन शूर्पनखा के लिए युद्ध कर अपने प्राणोंका बलिदान देना, इतना ही नहीं, सीता हरण के पश्चात् उसे स्पर्श तक नहीं करना, इन सब बातोंको इस के कारण के स्वरुप बताती है. माँ यह सुन कर अवाक रह जाती है.

अब हम इसमें से एक-एक मुद्दे की बात करेंगे. पहला मुद्दा सीता के त्याग का.

मूलत: सीता के त्याग का प्रसंग ‘उत्तर रामायण’ (उत्तर काण्ड) में पाया जाता है. ‘उत्तर’ इस संस्कृत शब्द का अर्थ होता है ‘के पश्चात’, जैसे आयुर्वेद में ‘उत्तरतंत्र’ पाया जाता है. यह उत्तरतंत्र मूल संहिता में किसी और लेखक ने जोड़ा होता है. संक्षेप में कहे, तो मूल रामायण की रचना के पश्चात उत्तर रामायण उस में जोड़ दिया गया है, और महर्षी वाल्मीकि उस के रचयिता है ही नहीं! उनका लिखा रामायण युद्धकाण्ड पर समाप्त होता है. रामायण की फलश्रुती युद्धकाण्ड के अंत में पायी जाती है, यह बात भी इसका एक प्रमाण है. किसी भी स्तोत्र के अंत में फलश्रुती होती है. फलश्रुती के समाप्ति पर रचना समाप्त होती है, यह सादा सा नियम यहाँ भी लागू होता है.

जो बात मूल रामायण में है ही नहीं, उसे बेचारे राम के माथे मढ़ने का काम यह ‘उंगली करनेवाले’ लोग करते है. लेकिन ऐसा करते हुए सीतामाता के धरणीप्रवेश के बाद प्रभु रामचन्द्रजी ने किए विलाप का जो वर्णन उत्तर रामायण में आता है, उसे वे आसानी से भुला देते है. पूरी रामायण पढ़े बगैर खुदको अक्लमंद साबित करने के लिए कपोलकल्पित बातोंकी जुगाली करने का काम करते है ये विद्वान!

कुछ अतिबुद्धिमान लोग कहेंगे, कि लव और कुश का क्या? क्या उनका जन्म हुआ ही नहीं? और उनका जन्म वाल्मीकी आश्रम में हुआ था, उस बात का क्या?

उसका जवाब यह, कि राम और सीता अयोध्या लौट आने के बाद उनके संतान नहीं हो सकती क्या? कैसे कह सकते है, कि लव और कुश का जन्म अयोध्या में नहीं हुआ था? उनका कोई जन्म प्रमाणपत्र है क्या?

फर्ज कीजिए, सीता को वन में भेज दिया गया था. क्या हम उसका कारण सिर्फ यह दे सकते है, कि ‘राम ने सीता का त्याग किया’? क्या कुछ दूसरा कारण नहीं हो सकता? धार्मिक मामलों में राजा के सलाहगार, कभी कभार तो डांट तक देनेवाले ऋषिमुनी सामान्य जनता के बनिस्पत निश्चय ही कहीं ज्यादा कट्टर होंगे. इसलिए, इस बात की संभावना लगभग न के बराबर है, कि सीता को वाल्मीकि आश्रम भेजने का निर्णय किसी की सलाह के बगैर लिया गया हो. आज के सन्दर्भों में सोचा जाए, तो उसे गर्भावस्था में अधिक सात्त्विक, निसर्गरम्य वातावरण में दिन बिताने के लिए भेजा जाना ही तर्कनिष्ठ लगता है. जिस सीता को चरित्रहीन होने के शक में त्यागा गया होता, उसे आम लोगोंसे ज्यादा ‘सनातनी’ ऋषिमुनि, साधूसंत अपने आश्रम में आराम से कैसे रहने देते? इस बारे में न तो उत्तर रामायण के रचनाकारोंने सोचा, न आज राम पर तोहमत लगाने वाले नकलची सोच रहे है.

अब अगर-मगर वाली भाषा थोड़ी परे रखते है. स्वयं सीतामाता को इच्छा हो रही थी कि उनके बच्चोंका जन्म ऋषि-आश्रम में हो, ऐसा रामायण में ही लिखा है! अब कहें!!!

अब रावण की ओर रुख करते है. रावण एक वेदशास्त्रसंपन्न विद्वान था, वीणावादन में निपुण कलाकार था, यह बात सच है. लेकिन सिर्फ यही बात उसे महान नहीं बनाती. याकूब मेमन एक चार्टर्ड अकाउंटेंट था, ओसामा बिन लादेन सिव्हिल इंजिनियर था. कई और आतंकी उच्चशिक्षित थे, और कई अन्य जीवित आतंकी भी है. उनकी शिक्षा का स्तर उन्हें महान नहीं बनाता. हम आज भी समाज में देख सकते है कि लौकिक शिक्षा सभ्यता का मापदंड नहीं हो सकती.

रावण महापापी था, लंपट था. उसकी नजर में स्त्री केवल भोगविलास की वस्तु थी. रावण ने सीता को न छूने के पीछे भी उसका एक पापकर्म छुपा हुआ है. एक दिन रावण देवलोक पर आक्रमण करने जा रहा था, और कैलास पर्वत पर उसके सैन्य ने छावनी बनाई हुई थी. उस समय उसने स्वर्गलोक की अप्सरा रम्भा को वहां से गुजरता देखा. उसपर अनुरक्त रावणने उस के साथ रत होने की इच्छा प्रकट की. (व्हॉट्सअॅरप नकलची लोगों के लिए आसान शब्दों में:- उसके साथ सोने की इच्छा प्रकट की). लेकिन रम्भा ने उसे नकारते हुए कहा, “हे रावण महाराज, मैं आप के बन्धु कुबेर महाराज के पुत्र नलकुबेर से प्यार करती हूँ, और उसे मिलने जा रही हूँ. तस्मात् मैं आप की बहू लगती हूँ. इसलिए, ऐसा व्यवहार आप को शोभा नहीं देता!”

रम्भा के इस बात का रावण पर कुछ भी असर नहीं हुआ. कहते है, कि कामातुराणां न भयं न लज्जा! रावण बोला – “हे रम्भे, तुम स्वर्गलोक की अप्सरा हो. अप्सराएं किसी एक पुरुष से शादी कर के बस नहीं सकती. तुम किसी एक की हो ही नहीं सकती!” ऐसी दलील दे कर रावण ने रम्भा का बलात्कार किया. कुबेरपुत्र नलकुबेर को जब इस बात का पता चला, तब क्रोधित हो कर उसने रावण को शाप दिया, कि तुमने रम्भा की इच्छा के बगैर उस का बलात्कार किया है, इसलिए आगे से तुम किसी भी स्त्री से उस की अनुमति के बगैर सम्बन्ध नहीं बना पाओगे. अगर तुमने ऐसा किया, तो तुम्हारे मस्तक के सात टुकडे हो कर तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी.

इसी कारणवश सीता को प्रदीर्घ काल तक कारावास में रखने के बावजूद रावण उसे स्पर्श तक नहीं कर सका. इस बात में उसकी सात्त्विकता नहीं, बल्कि उसकी मजबूरी नजर आती है. ठीक वैसे ही, जैसे आप सिग्नल पर पुलिसवाला तैनात देख कर चुपचाप रुक, अपनी बाइक जेब्रा क्रासिंग के पीछे ले जा कर भोली सूरत बना लेते हो!

इसीलिए रावण सीता को सिर्फ जान लेने की धमकी दे सका. अनगिनत मिन्नतों के बावजूद सीता को जब वश कर न सका, तब अभिशप्त रावण ने सीता को एक साल की मोहलत दी, और कहा, की एक साल के भीतर अगर वह रावण से सम्बन्ध बनाने के लिए राज़ी न हुई तो वह उसकी हत्या कर देगा. जब हनुमान सीता से मिलने लंका गए, तब उन्होंने रावण ने सीता से “अगर तुम मुझसे अपनी मर्जी से सम्बन्ध बनाने के राज़ी न हुई तो दो महीनों के बाद मैं तुम्हारी हत्या कर दूँगा!” ऐसा कहते सुना था.

रावण सिर्फ चाटुकारिता भरी बातें सुनने का आदि था. बड़े-बुजुर्ग और हितचिंतकोंसे सलाह लेना वह हत्थक समझता था. इसलिए उसने सीतामाता को वापस भेजने और राम से शत्रुता न मोल लेने की सलाह देनेवाले अपने सगे भई बिभीषण को उसने देशनिकाला दे दिया. मंत्री शुक और खुद के दादा माल्यवान, दोनों की सही, लेकिन पसंद न आनेवाली सलाह ठुकरा कर उनको भी दूर कर दिया.

इसके ठीक विपरीत राम ने पिता के दिए वर का सम्मान करते हुए वनवास जाना पसंद किया. इतना ही नहीं, वापस बुलाने के लिए आए भाई भरत को उन्होंने राज्य की धुरा सौंप वापस भेज दिया था.

ऐसा कहा जाता कि बहन शूर्पनखा के अपमान का बदला लेने के लिए रावण ने राम से युद्ध किया. लेकिन उसी बहन के साथ रावण के बर्ताव पर कोई ध्यान नहीं देता. शूर्पनखा का वास्तविक नाम मीनाक्षी था. जवान होने पर उसने अपनी मर्जी से, रावण की अनुमति के बगैर दुष्टबुद्धि नाम के असुर के साथ विवाह तय कर लिया. दुष्टबुद्धि महत्वाकांक्षी था. रावण को ऐसा डर था कि इस शादी के पीछे दुष्टबुद्धि की मंशा रावण का राज्य हथियाने की थी. इसलिए रावण इस विवाह के खिलाफ था. लेकिन जब पत्नी मंदोदरी ने उस से प्रार्थना की, कि बहन की इच्छा मान ली जाए, रावण पसीज गया, और विवाह की अनुमति दे दी. लेकिन रावण के मन में गुस्सा अन्दर ही अन्दर सुलग रहा था. इसी के चलते बाद में उसने दुष्टबुद्धि पर हमला कर उसे मार डाला. इस बात को हम आज के समय में क्या कहते है? हां, सही पहचाना हॉनर किलिंग! क्या बहन के पति की हत्या करने वाला रावण आप को महात्मा और आदर्श भई प्रतीत होता है?

ज़ाहिर है कि इस बात से शूर्पनखा बड़ी व्यथित हो उठी. प्रतिशोध की भावना उसके मन में धधक उठी. अपने पति के हत्या के प्रतिशोध के लिए वह तड़पने लगी. ऐसे में इधर-उधर भटकते हुए उसे राम और लक्ष्मण इन रघुकुलके दो वीर पुरुष दिखाई दिए, और उस के मन में पनपती प्रतिशोध की भावना ने एक षडयंत्र पैदा हुआ. पहले राम और बादमें लक्ष्मण के प्रति अनुराग दिखाने वाली शूर्पनखा जब सीता पर झपटी, लक्ष्मण ने उसे रोक उस के नासिका और कर्ण छेद दिए. इस बात की शिकायत उसने पहले उसके भाई राक्षस खर से की. खर और दूषण दक्षिण भारत में रावण के राज्य की रखवाली करते थे. इन दो राक्षसों ने राम और लक्ष्मण पर हमला किया, और राम-लक्ष्मण ने उन का बड़ी आसानी से पारिपत्य किया. रावण का राज्य थोड़ा ही क्यों न हो, कुतरा गया, इस विचार से हर्षित शूर्पनखा रावण के सम्मुख राम और लक्ष्मण की शिकायत ले गई. अब रावण प्रचंड क्रोधित हुआ. क्यों कि राम-लक्ष्मण ने उसके राज्य में सेंध लगाकर उसकी बहन को विरूप किया, और उसके दो भाईयोंकी ह्त्या की थी. अब तक बहन के सम्मान के बारे में पूर्णतया उदासीन रावण अपने राज्य पर हमले की बात से आगबबूला हो गया, और प्रतिशोध स्वरुप उसने राम की पत्नी सीता का अपहरण किया. आगे का घटनाक्रम सर्वविदित है, मैं उसे दोहराना नहीं चाहूंगा!

रावण की हवस के बारे में और एक कथा है. एक दिन हिमालय में घूम रही रावण को ब्रह्मर्षी कुशध्वज की कन्या वेदवती दिखाई दी. स्वभाव से ही लंपट रावण का उस पर लट्टू हो जाना कोई आश्चर्य की बात न थी. उसे देखते ही रावण ने उस से बात करने की कोशिश की, और पूछा, कि वह अबतक अविवाहित क्यों थी. उसने रावण को बताया कि उसके पिता की इच्छा उसका विवाह भगवान विष्णु से करने की थी. इसका पता चलते ही वेदवती की चाहत पाने के इच्छुक एक दैत्यराज ने उनकी हत्या कर दी. पति की हत्या में ग़मगीन उस की माँ ने भी अपनी जान दे दी. तब से अपने पिता की इच्छा की पूर्ति के लिए वह श्री विष्णु की आराधना कर रही थी. अनाथ और जवान कन्या देख कर रावण का मन डोल गया और उस ने उससे उसे अपनाने की प्रार्थना की. लेकिन वेदवती का निश्चय अटल था. उसने रावण को मना कर दिया. रावण अपनी फितरत के अनुसार उसके बाल पकड़ कर उस पर जबरदस्ती करने की कोशिश करने लगा. वेदवती ने अपने बाल काट कर खुद को छुड़ा लिया और अग्निप्रवेश कर जान दे दी. मरते हुए उसने रावण को श्राप दिया कि “मैं तो अब मर जाऊंगी, लेकिन मैं फिर से जन्म ले कर तुम्हारे मृत्यु का कारण बनूँगी”!

इसके आगे की कहानी कई पर्यायों में है. एक में अग्निप्रवेश कर चुकी वेदवती को अग्निदेव बचा लेते है, और उसे अपनी पुत्री की तरह पालते है. बाद में जब रावण सीता का हरण कर ले जा रहा होता है, तब वे वेदवती और सीता को आपस में बदल देते है, और सीता को अपने पास रख लेते है. बाद में जब सीता राम को यह बात बता कर वेदवती का पत्नी के रूप में स्वीकार करने की बात कहती है, तो राम उसे एक पत्नीव्रत का हवाला दे कर मना कर देते है. तब वेदवती पुन: अग्निप्रवेश करती है. आगे पद्मावती के नाम से जन्म लेने पर वेदवती से विवाह कर श्रीनिवास के रूप में श्रीविष्णु वेदवती के पिता की इच्छा का आदर करते है.

ऐसा भी कहा जाता है कि वेदवती ही सीता के रूप में जन्म ले कर रावण के मृत्यु का कारण बनी. ऐसा है, कि मैं तो खुद उस काल में उपस्थित नहीं था. लेकिन राम पर मनगढ़ंत आरोप करनेवाले हिन्दू द्वेषी भी वहाँ थे नहीं, और उनके अनर्गल संदेशोंको सच मान नक़लचेप करनेवाले बेअक्ल लोग भी तो नहीं थे.

अत: सगी बहन के पति की शक के बिनाह पर हत्या करने वाला और दिखाई पड़ने वाली हर सुन्दर स्त्री का बलात्कार, या वैसी कोशिश करनेवाला रावण आजके बहन का आदर्श कैसे हो सकता है, यह बात मेरे समझ के परे है!

रावण की अगर तुलना करनी ही है, तो वह आज के बिल क्लिंटन, टायगर वुड्स या वैसे ही लंपट बलात्कारी से हो सकती है. सत्ता के लिए, कुर्सी बचाकर रखने के लिए जी-जान की कोशिश करने वाले आधुनिक स्वयंघोषित कमीने राजनेताओं से हो सकती है. अनेक प्रलोभनों का सामना कर आखिर तक एक-पत्नि-व्रत का पालन करने वाले राम से तो हरगिज नहीं हो सकती.

पाठकों, आप एक बड़े षडयंत्र का शिकार हो रहे है. कई तरीकोंसे हमारे मानसपटल पर यह अंकित करने की कोशिश हो रही है कि हर भारतीय चीज बेकार है. हर त्यौहार के बारे में वह त्यौहार कैसे प्रदूषण फैलाता है, कैसे प्राकृतिक संसाधनों का नाश करता है, ऐसी बाते फैलानेवाले सन्देश सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे है. भारतीयोंके श्रद्धास्थान राम, कृष्ण, इनपर छींटाकशी के प्रयास होते है, इतना ही नहीं, डाक्टर ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसे ऋषितुल्य व्यक्तित्व को “Bomb Daddy” और संघ का लड़ाकू अजेंडा आगे ले जाने वाले भारतीय पुरुषसत्ताक पद्धति का पुरस्कर्ता कहा जाना वगैरह इसमें शामिल है. अगर यकीन न हो तो राजदीप सरदेसाई की पत्नि सागरिका घोष के लेख आन्तरजाल पर खोज कर देखें.

दुर्भाग्यवश हम भारतीयों की एक बुरी आदत है – आत्मक्लेश, आत्मपीडा! इस बारे में डाक्टर सुबोध नाइक का लिखा हुआ एक परिच्छेद उद्धृत करना चाहता हूँ: “खुद में अपना परीक्षक होना अपनी प्रगति के लिए बड़ी अच्छी बात है. लेकिन आप के अन्दर का यह समीक्षक कब आप का मूल्यमापन करने से आप का अवमूल्यन करने पर उतरता है, इसका आप को कई बार पता ही नहीं चलता. खुद के हर बात पर आप खुद को सिर्फ गरियाते है. “मेरे पास कुछ भी मूल्यवान नहीं है, मैं कभी अच्छा था ही नहीं” ऐसा आप का विश्वास बनता जाता है. खुद को गरियाए बगैर आप को अच्छा ही नहीं लगता. एक तरह से आप आत्मक्लेशक (masochist) बनते हो, और इसी में आप खप जाते हो. तब साक्षात ब्रह्मदेव भी आप की सहायता नहीं कर सकते.

जैसे यह निजी स्तर पर होता है, वैसे ही राष्ट्रीय स्तर पर भे होता है.”

प्रभु रामचंद्र साक्षात मर्यादा पुरुषोत्तम थे. उनके पैर के नाखून तक की हमारी औकात नहीं है. इसलिए इस तरह की आत्मक्लेश सहाय्यक अलगाववादी ताकतोंको प्रोत्साहन न दें. राम की आड़ में हिन्दुओं के श्रद्धास्थानों पर निशाना लगाने वाली ताकतों को बल न दें!

जाते जाते बता दूँ, शम्बूक वध की कहानी भी मूल रामायण में नहीं है!

संदर्भः
१) वाल्मीकी रामायण
२) **वैद्य परीक्षित शेवडे, डोंबिवली
३) डॉ सुबोध नाई़क
४) रामायण संबंधीत अनेक स्त्रोत

मूल लेखकः श्री मंदार दिलीप जोशी
हिंदी भाषांतर/रूपांतरः श्री कृष्णा धारासुरकर

https://goo.gl/L6L32z

Wednesday, February 21, 2018

कोमलप्रीत कौर - एक सक्षम महिला

कोमलप्रीत कौर हे नाव किती जणांना माहित आहे?

बरं, गुरमेहर कौर हे नाव माहित आहे? हो, ती माहित असेलच. महिला सक्षमीकरण ही संज्ञा नक्की ठावूक असेल तुम्हाला. तर गुरमेहर कौरच्या आणि डाव्यांच्या मते गुरमेहर ही ट्रोल्सशी 'लढून' अधिकच 'सक्षम महिला' म्हणून उभी राहिलेली आहे. अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचा तथाकथित झेंडा फडकवत ठेवणारी मिडियाचं लाडकं गोग्गोड बाळ असलेली गुरमेहर कौर सगळ्यांना आठवते आणि तिला महिला सक्षमीकरणाचं उदाहरण म्हणून आपल्यासमोर सतत नाचवलं जातं.

आता कोमलप्रीत कौर कोण ते सांगतो. कोमलप्रीत कौर ही कारगिलमधे लढताना हुतात्मा झालेल्या शिपाई बूटा सिंग यांची मुलगी. गरिबीशी झुंजत शिक्षण घेणारी, पंजाब मेडिकल प्रवेश परीक्षेत अव्वल क्रमांक पटकावणारी आणि आता एम.बी.बी.एसचे शिक्षण घेत असलेली खर्या अर्थाने सक्षम मुलगी.

वयाच्या वीसाव्या वर्षी सैन्यात दाखल झालेले बूटा सिंग चार महिन्याच्या कोमलप्रीतला आणि अवघ्या वीस वर्षांच्या आपल्या पत्नीला मागे ठेऊन वयाच्या फक्त सव्वीसाव्या वर्षी कारगिलमध्ये हुतात्मा झाले. स्वतःचं दु:ख बाजूला ठेवून तिच्या आईने म्हणजे अमृतपाल कौर हिने कोमलला मोठं करण्याकडे सगळं लक्ष केन्द्रित केलं आणि आज आईचे कष्ट आणि स्वतःची मेहनत यांच्या बळावर कोमलप्रीत वैद्यकीय शिक्षण घेते आहे.

मात्र कोमलप्रीतला आज कुणीही ओळखत नाही. कारण ती आपल्या परिस्थितीचा बागुलबुवा न करता, अभिव्यक्तीच्या नावाखाली विकृती स्वातंत्र्याची कास न धरता, सोशल मिडियावर पडीक राहून आपल्या परिस्थितीबद्दल गळे न काढता, अपार कष्ट करत अभ्यासाच्या माध्यमातून स्वतःच्या पायावर उभं राहण्याकडे अग्रेसर आहे. आयुष्याची लढाई, झगडत जगणं हे शब्द आजकाल फार स्वस्त झाले आहेत कारण सोशल मिडियावरच्या ट्रोल्सशी लढणं या चिल्लर गोष्टींना आज मिडियाने आणि डाव्यांनी ग्लॅमर प्राप्त करुन दिलेलं आहे. पण हेच शब्द, हीच आयुष्याची लढाई कोमलप्रीत अक्षरशः जगत आहे.

गरीबीतून वर आलेल्या पण आपल्या हातचं बाहुलं न बनलेल्या कुणाचंही कौतुक करण्याची दानत आजच्या मिडीयात आणि साम्यवादी विचारसरणीत नाही, किंबहुना कधीच नव्हती. काँग्रेसने त्यांना पोषक ठरण्यासाठी उभ्या केलेल्या व्यवस्थेचे हे वैशिष्ट्य आहे की गुरमेहर सारख्या हास्यास्पद व्यक्तींना आज आदर्श व्यक्तिमत्व म्हणून लोकांसमोर आणलं जातं आणि कोमलप्रीत कौर सारखे महिला सक्षमीकरणाचं प्रतीक म्हणावं अशी उदाहरणे समोर असतांना त्यांना मात्र अशा प्रकारे अज्ञातवासात घालवतं.

तर अशा या कोमलप्रीतला पुढील आयुष्याकरता अनेक शुभेच्छा.

©️ मंदार दिलीप जोशी
फाल्गुन शु. ६, शके १९३९

कोमलप्रीत कौर - एक सक्षम महिला



कोमलप्रीत कौर इस नाम से क्या आप परिचित है? नहीं?

चलिये ठीक है, गुरमेहर कौर यह नाम तो आपको ज्ञात होगा ?  महिला सक्षमीकरण इस संज्ञा से भी आप अवश्य परिचित . वामपंथीयों तथा पोषित मिडिया एवं स्वयं गुरमेहर कौर की माने तो वह सोशल मिडिया के ट्रोल्स से 'लडने' के बाद  एक अत्यधिक 'सक्षम महिला' के रूप में खडी है. इस लडाई को लडकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का झंडा फडकता हुआ रखने का श्रेय ले चुकी मिडिया की लाडली बच्ची गुरमेहर कौर का सबको स्मरण है और उसे महिला सक्षमीकरण के उदाहरण के तौर पर हमारे सामने अनगिनत बार नचाया जाता है.

अब आपको बतलाता हूं कोमलप्रीत कौर कौन है. कोमलप्रीत कौर कारगिल के युद्ध के हुतात्मा सिपाही बूटा सिंग की बेटी है. गरिबी से झगडते हुए कोमलप्रीतने अपनी पढाई पूरी की, पंजाब मेडिकल एन्ट्रन्स एग्झाम में अव्वल नंबरों से उत्तिर्ण हुई, और अब एम.बी.बी.एस.की शिक्षा ले रही वास्तविक रूप में सक्षम लडकी है कोमलप्रीत.

केवल बीस साल कि आयु में सेना में दाखिल हुए कोमल के पिता बूटा सिंगने जब कारगिल में लडते लडते अपनी जान देश के लिये न्योछावर कर दी, तब वे केवल छब्बीस वर्ष के थे. वे पीछे छोड गये अपनी केवल चार महीने की बेटी कोमलप्रीत एवं केवल बीस वर्ष की पत्नी अमृतपाल कौर को. केवल दो बार दो महिनों के छुट्टी पर आये अपने पती बूटा सिंग की अमृतपाल कौरजी के मन में केवल कुल चार महिनों की स्मृतियां हैं. अपने पती के इस जग से चले जाने के दुख को अपने मन मे रख अमृतपाल कौरजीने अपनी बेटी के भरणपोषण एवं शिक्षा पर ध्यान देने का निश्चय किया, जिसके फलस्वरूप आज कोमलप्रीत आज एक चिकित्सक (डॉक्टर) होने के पथ पर अग्रेसर है.

परंतु आज कोमलप्रीत को कोई नहीं जानता. क्योंकि कोमलने अपने हाल के लिये न तो युद्ध को उत्तरदायी ठहराया, न वो अभिव्यक्ती की स्वतंत्रता का झंडा उठाकर नाची. न उसने सोशल मिडिया पर रोनाधोना किया. आज कोमलप्रीत अपनी मां के एवं स्वयं अपने कष्टों के आधार पर एक डॉक्टर होने की राह पर है,

जिंदगी की लडाई, संघर्षपूर्ण जीवन यह शब्द आजकल बहुत सस्ते हो गये है, क्योंकि आजकल मिडिया तथा वामपंथी कुबुद्धीवादीयों ने सोशल मिडिया पर ट्रोल्स से लडना इस बात को ग्लॅमर एवं महत्त्वपूर्ण बना दिया है जैसे कुछ अक्षर टाईप करना या किसी को म्युट या ब्लॉक करना यह कोई शौर्य का प्रतीक हो. परंतु जिंदगी की लडाई, जीवन का संघर्ष इन्हीं शब्दों का जीवित उदाहरण है कोमलप्रीत का जन्म से लेकर आजतक का जीवन.

गरिबीसे उभरकर परंतु किसी घातक विचारधारा की कठपुतली न बनकर जीवन में यशस्विता प्राप्त करनेवाले किसी के प्रति न तो आजकलके मिडीया एवं वामपंथीयों को कोई ममत्व है न भूतकाल में कभी था.

काँग्रेसने उनके खडे किये गये पोषक व्यवस्था का यही वैशिष्ट्य है कि जहां आज गुरमेहर जैसी जोकरछाप अपरिपक्व व्यक्ती को आज लोगों के सामने आदर्श व्यक्तिमत्व के रूप में देश के सामने प्रस्तुत किया जाता है, वहीं कोमलप्रीत कौर जैसे सही मायने में सक्षम महिलाओं को गुमनामी के अंधेरे मे रखा जाता है.

ऐसी सक्षम कोमलप्रीत कौर को आगे की मेडीकल शिक्षा के लिये अनेक शुभकामनाएं एवं उनकी माताजी अमृतपालजी को शत शत नमन.

© मंदार दिलीप जोशी
फाल्गुन शु. ६, शके १९३९

Monday, February 5, 2018

यंटम - एक प्रगल्भ प्रेमकथा

कथा तीच. घासून गुळगुळीत झालेली. प्रेम तेच. अडनिड्या वयातलं, कॉलेजातलं. धडपडही तीच. तिचं नाव पत्ता शोधून काढण्याची. होकारही तसाच. वाट बघत असल्यासारखा.  अंहं, समीर आशा पाटील यांचा यंटम हा चित्रपट हा सैराटच्या पठडीतला नक्कीच नाही. प्रतिसाद देण्याची आणि प्रेम करण्याची, आणाभाका घेण्याची पद्धत मात्र संयमी, पोक्त, आणि विचार करण्याचीही. चित्रपटाची सुरवात होताच "अरे देवा, कुठे आलो या सिनेमाला" हे उद्गार सिनेमा संपेपर्यंत "मस्त होता, खूप आवडला" इतके बदलले होते.

चित्रपटाच्या रंगा (वैभव कदम) या नायकाचे रंगाचे वडील रावसाहेब (सयाजी शिंदे) हे सनईवादक, आपल्या दोन साथीदारांबरोबर 'सुपारी' घेऊन लग्नात सनईवादन करुन आपलं आणि आपल्या कुटुंबाचं पोट . एकेकाळी आपल्या सनईवादनाने अनेक लग्नसमारंभ आणि कदाचित काही मैफिली गाजवलेले रावसाहेब आता वयोमानपरत्वे थकत चालले आहेत. तरीही हातावर पोट असल्याने आणि घरच्या जबाबदार्‍यामुळे काम करत राहणं हे त्यांना भाग आहे. हल्ली डीजेचा काळ असल्याने फारसं कुणी सनईवादकांना आमंत्रण देत नाही, त्यामुळे आताशा त्यांना फारशा 'तारखा' मिळत नाहीत. ढोल, ताशे, आणि डीजेच्या गदारोळात ऐकूही न जाणारी सनई यामुळे होणारा अपमान त्यांच्यातल्या हाडाच्या कलाकाराचं काळीज चिरत जातो. तरीही लग्नात ताशा वाजवणारा आपला मुलगा रंगा हाताशी यावा, त्याने सनई शिकून आपली जागा घ्यावी अशी त्यांची इच्छा असते. पण रंगाला सनई वाजवणं आवडत नाही, त्याला अजून आयुष्याची दिशा सापडलेली नाही. असेच दिवस ढकलत असताना तो त्याच्याच कॉलेजातल्या मीराच्या (अपूर्वा शेलगावकर) प्रथम तुज पाहता न्यायाने 'प्रेमात' पडतो. त्यावेळी ती कॉलेजच्या केमिस्ट्री लॅबमधे असल्याने त्यांची केमिस्ट्री लवकर जुळली असावी असा एक पाणचट विनोद करायची हुक्की शेजारच्या वटारलेल्या डोळ्यांच्या कल्पनेनेच मनातच राहिली. तर ते असो.

कमीतकमी संवादात प्रेमाची कबूली, आपल्या मित्रांच्या मदतीने त्यांच्याच बरोबर रंगा आणि मीराने पहिल्यांदा फिरायला जाणं, मीराने तिच्या आईचा उल्लेख करण आणि तिच्या काळजातला सल रंगापुढे मांडणं, आणि रंगाने तिची साथ देण्याचं वचन देणं हे ज्या पद्धतीने दिग्दर्शक समीर आशा पाटील आपल्यापुढे मांडतात त्याबद्दल त्यांचं कौतुक करायलाच हवं. टीनएज प्रेमकथा हा या चित्रपटाचा गाभा असला तरी चित्रपट फक्त याच मर्यादित परिघात हा फिरत राहत नाही. टीनएज मधलं प्रेम दाखवायचं म्हणजे एखादं काही विशिष्ठ मानसिकतेच्या प्रेक्षकांना डोळ्यांसमोर ठेऊन दाखवलेलं आचकटविचकट गाणं, धुसमुसळे उत्तान प्रणयप्रसंग, कथेला असलेली जातीय किनार, नायिकेच्या बापाचा थयथयाट, आणि सगळ्यात प्रमुख म्हणजे नायकाने खांद्याच्या वर असलेल्या अवयवाचा उपयोग करण्यापेक्षा कमरेखालच्या अवयवाच्या इच्छा पुरवण्याच्या मागे लागणे यांपैकी कशाचाही उपयोग करुन घेण्याच्या आहारी न जाता लेखक-दिग्दर्शक समीर आपल्यापुढे एक सकस कथा सादर करतात.

आपल्या दोन इरसाल आणि टग्या मित्रांच्या मदतीने कॉलेजच्या ऑफिसातून मीराचा पत्ता धडपड करुन रंगा मिळवतो आणि मग सुरु होते त्यांची लवशिप अर्थात प्रेमकथा. सुरवातीला वडिलांनी आग्रह करुनही सनई शिकण्याला टाळाटाळ करणर्‍या रंगाची मीराला सनई ऐकायला आवडते हे ऐकून विकेट पडते. मग तो वडिलांकडून रीतसर सनईवादनाच प्रशिक्षण घ्यायला सुरवात करतो. दुर्दैवाने घरातली भिंत दादासाहेबांच्याच अंगावर पडून ते जखमी झाल्याने त्यांच्या निवृत्तीची प्रक्रिया वेग घेऊन रंगाच्या अंगावर त्याची पहिली 'तारीख' लवकरच येऊन पडते. रंगाला मिळालेल्या पहिल्या 'तारखेला' तो साथीदारांसोबत सनई कशी वाजवतो, मीरा आणि रंगाच्या प्रेमाचं पुढे काय होतं हे इथे सांगण्यात मजा नाही. ते चित्रपटगृहातच जाऊन पहा. दादासाहेबांच्या अंगावर पडलेली भिंत ही त्यांच्या निवृत्तीचं रूपक म्हणून आणि रंगाने एक जबाबदार मुलगा म्हणून दादासाहेबांची गादी पुढे चालवण्याचं, सनईवादक होण्याचं स्वप्न पूर्ण करण्याचं रूपक म्हणून डागडूजी केलेली, पुन्हा उभी राहिलेली भिंत वापरण्याची कल्पना खूप आवडली. आणखी काही लिहीलं तर चित्रपटाची कथाच लिहील्यासारखं होईल. इथे स्पॉयलर देणार नाही.

चित्रपटातल्या सर्वांचंच काम चांगलं झालेलं आहे. यात रंगाच्या रम्या आणि जेड्या या मित्रांचं काम करणारे अनुक्रमे अक्षय थोरात आणि ऋषिकेश झगडे यांचंही काम उत्तम झालेलं आहे. सयाजी शिंदे यांच्या अभिनयाबद्दल मज पामाराने काय बोलावं, तो उत्तमच आहे. सयाजी शिंदे यांनी इतक्या वर्षांनंतरही स्वतःचा नाना पाटेकर होण्यापासून स्वतःला वाचवलेलं आहे त्याबद्दल ते अभिनंदनास पात्र ठरतात.

हा चित्रपट बघताना ठायी ठायी सैराटशी तूलना करण्याचाही मोह आवरत नाही. टिनएज प्रेमकथा या जॉनरचे असंख्य चित्रपट आले आणि गेले. मात्र या जॉनरची इतकी उत्तम हाताळणी समीर यांच्याइतक्या चांगल्या पद्धतीने क्वचितच कुणी केली असेल. अडनिड्या वयात मुलामुलींना एकमेकांबद्दल वाटणारं आकर्षण, मग त्याला इन्फॅच्यूएशन म्हणा किंवा प्रेम, यांचं काय करायचं, पुढे काय इत्यादी प्रश्नांना फारसा विचार न करता बहुतेक अशा चित्रपटांत उथळपणाची फोडणी दिलेली आढळते. आता चित्रपट हा चित्रपटासारखा बघावा अशी प्रवचने देणार्‍यांनी जुगनू हा धर्मेन्द्रचा चित्रपट दोन डझन वेळा पाहून बँकेत तशाच पद्धतीने चोरी केल्याची कबूली एका गुन्हेगाराने दिली होती हे सोयीस्कररित्या विसरतात आणि सैराट प्रदर्शित झाल्यानंतर सिनेमा बघून अंगात विशेष काहीही कर्तृत्व नसताना तशाच पद्धतीने पळून गेल्याच्या आणि मग पश्चात्ताप पावल्याच्या  बातम्यांकडे दुर्लक्षही करतात. चित्रपट या माध्यमाची ताकद कमी लेखणारे तरुणांना जबाबदारीची जाणीव आणि आयुष्याकडे प्रगल्भपणे बघण्याची दिशा देण्याचं काम क्वचितच करताना दिसतात. या पार्श्वभूमीवर यंटम हा चित्रपट वैशिष्ठ्यपूर्ण ठरतो आणि कदाचित म्हणूनही समीर आशा पाटील यांना पाठीवर प्रेक्षकांच्या शाबासकीची थाप पडावी असा रास्त हक्कही पोहोचतो.

तर, या सिनेमाला मी किती तारे देईन? पूर्वार्धात बोअर केल्याबद्दल अर्धा आणि साधारण पंधरा मिनीटे लांबी कमी ठेऊ न शकल्याबद्दल अर्धा असा उगाचच एक गुण कापून ५ पैकी ४ तारे मी यंटमला देईन. ते पण मी एखाद्या चित्रपटाची इतकी स्तुती करतो आहे हे पाहून जनतेस झीट येऊ नये म्हणून. नाहीतर साडेचार तारे दिले असते. तर ते असो. यंटम बघायला चित्रपटगृहाच्या क्षमतेच्या एक पंचमांश सुद्धा प्रेक्षक नव्हते तेव्हा तो कधी जाईल सांगता येत नाही तेव्हा लवकर पाहून घ्या.

टळटीप (म्हणे लेख किंवा टीपा आवडल्या नाहीत तर टळा या अर्थाने):
(१) हा चित्रपट बघायचा की नाही याबद्दल लेखन वाचूनही शंका असेल तर एक टीप देतो. मला कुठल्याही चित्रपटाबद्दल इतकं चांगलं बोलताना बघितलंय? आता ठरवा.
(२) ही चित्रपट समीक्षा नव्हे. माझी वैय्यक्तिक मतं आहेत. मी चित्रपट आवडला तर त्याबद्दलची माझी मतं लिहीतो, आवडला नाही तर चित्रपटाची सालटी काढायला कमी करत नाही. तेव्हा यात व्यक्त झालेल्या मतांवर ठाम आहे. ती मला बदलायला सांगू नये. बदलणार नाहीत.

© मंदार दिलीप जोशी
माघ कृ. ४, शके १९३९