कुछ...या युं कहीये बहुत महिलाओं को लगता है की वह या दुनिया की अन्य विशिष्ठ समुदाय की महिलायें यदि अपने मर्जी से, बाय अवर चॉइस, आप को सर से पांव तक काले कपडे में अपने आप को ढककर और आपका नाखून भी बाहर न दिखे इस तरह ढकने वाले कपडे अगर पहनें तो उसपर टिप्पणी करने का हमें अधिकार नहीं है. ऐसी "ma life, ma choice" जैसे उच्च और उदात्त विचार की महिलाओं को यह निवेदन है कि निन्मलिखित विश्लेषण पढें.
स्टॉकहोम सिन्ड्रोम एक मनोवैज्ञानिक संज्ञा है जिसके अंतर्गत किसी अपहरण किये गये व्यक्ती को अगवा करने वाले व्यक्ती के प्रति अपनापन महसूस होता है. यह अपनापन इस हद तक होता है कि कईं बार बढकर प्यार तक पहूंच जाता है. इतना ही नहीं, अपहरण किये गये व्यक्ती अपहरण करने वाले व्यक्ती या व्यक्तीयों की अनेक प्रकार से पुलीस और जांच एजंसियों के खिलाफ और अपने खुद के परिवारजनो तथा मित्रों एवं सहेलियों के खिलाफ सहय्यता करने लगता है. अर्थात, अपहरण हुए व्यक्ती को अपहरण करने वाला व्यक्ती अपने हितचिंतकों से अधिक अपना मानने लगता है और अपने असली हितचिंतक उसे शत्रूसमान लगते हैं. सोचिये, ऐसा जबरदस्त मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालनेवाला व्यक्ती कितने चालाक मस्तिष्क का होता है.
यह तो बात हुई किसी भी उमर में अगवा किये गये व्यक्तीयों की.
अब कल्पना किजीये. आपके खुद के मां बाप, पडोसी, बहुसंख्य मित्रपरिवार, तथा रिश्तेदार ये सब आपको अपहरण करनेवाले हों तो? बात पल्ले नहीं पड रही? अब कल्पना कर रहे हों तो सोचिये की आप ऐसे किसी परिवार में लडकी बन के जन्म लेते हैं. आप को जन्म लेते ही, अर्थात आप आसपास की दुनिया के प्रति जैसे ही सचेत होने लगते है, आप के हाथ में एक पुस्तक थमाई जाती है और कहा जाता है कि बेटा यही पूरा सत्य है और इस किताब के बाहर कोई सत्य नहीं. इस किताब का हर शब्द हमारे भगवान ने हमारे प्रेषित को बताया है और सिवा हमारे भगवान और हमारे प्रेषित के किसी की बात सत्य नहीं हो सकती. हमारे भगवान और हमारे प्रेषित को न माननेवाला हर व्यक्ती हमारा शत्रू है और हमें उसे या तो किसी भी प्रकार की योजना से अपने जैसा बनाना है या उसे मृत्यूदंड देना है. दुसरी बात, हमारे भगवान ने जो हमारे प्रेषित को जो बताया है और हमारे प्रेषित ने जो कहा है उसके अनुसार तुम्हें अपना बदन काले रंग के कपडे से पूरी तरह ढक के रखना पडेगा ताकि तुमपर किसी पापी की नजर न पडे और इस तरह ढकना पडेगा कि तुम्हारा नाखून भी नजर न आये, और चुंकि महिलायें मर्दों से निम्न स्तर पर होती हैं और उनकी गुलाम होती हैं तुम्हे अपने पिता या भाई या आगे चलके अपने पती के अलावा कभी बाहर नहीं निकलना चाहिये.और हां, कपडा काला हो या रंगीन, ढकना तो आपको पडेगा ही. मनुष्य भी प्राणी ही होता है, लेकिन अनेक चीजों के साथ सुयोग्य संस्कार हमें मनुष्यप्राणी के प्राणी को त्याग कर मनुष्य बना देते है. किंतु क्या इस तरह के संस्कार आपको फिरसे प्राणी बनने पर बाध्य नहीं करते? एक अत्याचार करने वाला और दूसरा पूरे जीवन में उसे सहने वाली, दोनो केवल प्राणी बनके रह जाते है. किंतु अगर आपको बचपन से यही शिक्षा दी जाए, तो आपको यही योग्य लगने लगता है.
आप पाठशाला गयीं है, महाविद्यालय गयीं है तो आपको ज्ञात होगा ही की एक समय ऐसा आता है की हम अपने मित्रपरिवार की बात को आपके मातापिता की बात से बढकर मानने लगते हैं जिसके अंतर्गत आपके खानेपीने और कपडों का चुनाव भी मित्रपरिवार से प्रभावित होता है. ये गलत है या सही है, अथवा इस काल में याने के टीनएज तथा उसके बाद के कुछ वर्षों में कुछ युवा गलत मित्रपरिवार के चलते राह भटक भी अवश्य जाते हैं, लेकिन हम उस विश्लेषण में नहीं पडेंगे.
मुद्दा ये है की ऐसे काल मे जिसमे आप एक विशिष्ठ मानसिक अवस्था में होते है, इस समय में फिरभी एक स्वतंत्र व्यक्तिमत्व की होते हुए भी आप अपने मित्रपरिवार से इतने प्रभावित होते हैं, तो कल्पना किजीये उपरोक्त अनुच्छेद मे वर्णित परिस्थिती अनुसार जन्म से इस तरह का अगर प्रभाव हो और प्रभाव डालनेवाले आपके अपने जन्म देने वाले और अन्य लोग हों तो क्या परिणाम हो सकते हैं. आपको वह जो बताते है वही योग्य लगता है. आगे चलके आपकी स्वतंत्र सोच अगर जाग गयी और आपको अपने पती से सहकार्य मिलता है तो आप आझाद चिडिया की तरह विश्व में विहार करने मे सक्षम होंगी. अन्यथा आप आपके भगवान ने आपके प्रेषित को जो बताया है और आपके प्रेषित ने जो कहा है उसी के अनुसार सर से पांव तक काले कपडे में अपने आप को ढककर और आपका नाखून भी बाहर न दिखे इस तरह ढककर, घर से बाहर निकलने तक पिता या भाई या पती की सहाय्यता की आश्रित होकर गुलामी का जीवन व्यतीत करने पर बाध्य हो जायेंगी.
स्त्रीमुक्ती का अर्थ मर्दों के बराबर शराब और धूम्रपान करना नहीं है. स्त्रीमुक्ती का अर्थ यह भी है की इस मनोवैज्ञानिक खेल को समझकर स्वयं को मुक्त करना एवं विश्व की अन्य महिलाओं को मुक्त करने का प्रयास करना.
अब संभवतः आप को यह भी ज्ञात हो गया होगा की जिसे आप "अपनी मर्जी" कहती हैं वो वास्तविकता में आपकी या फिर अन्य समुदायों के महिलाओं की स्वयं को विकल्प चुनने की स्वतंत्रता नहीं अपितु आप के मस्तिष्क के साथ खेल कर आपको गुलामी कि जंजीरों को सुंदर पुष्पों का हार समान मानने एवं उसी के अनुसार वर्तन कराने का एक चतुर कल्पना भी को सकती है.
जागो महिलाओं जागो.
© मंदार दिलीप जोशी
माघ शु. ८, शके १९३८
स्टॉकहोम सिन्ड्रोम एक मनोवैज्ञानिक संज्ञा है जिसके अंतर्गत किसी अपहरण किये गये व्यक्ती को अगवा करने वाले व्यक्ती के प्रति अपनापन महसूस होता है. यह अपनापन इस हद तक होता है कि कईं बार बढकर प्यार तक पहूंच जाता है. इतना ही नहीं, अपहरण किये गये व्यक्ती अपहरण करने वाले व्यक्ती या व्यक्तीयों की अनेक प्रकार से पुलीस और जांच एजंसियों के खिलाफ और अपने खुद के परिवारजनो तथा मित्रों एवं सहेलियों के खिलाफ सहय्यता करने लगता है. अर्थात, अपहरण हुए व्यक्ती को अपहरण करने वाला व्यक्ती अपने हितचिंतकों से अधिक अपना मानने लगता है और अपने असली हितचिंतक उसे शत्रूसमान लगते हैं. सोचिये, ऐसा जबरदस्त मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालनेवाला व्यक्ती कितने चालाक मस्तिष्क का होता है.
यह तो बात हुई किसी भी उमर में अगवा किये गये व्यक्तीयों की.
अब कल्पना किजीये. आपके खुद के मां बाप, पडोसी, बहुसंख्य मित्रपरिवार, तथा रिश्तेदार ये सब आपको अपहरण करनेवाले हों तो? बात पल्ले नहीं पड रही? अब कल्पना कर रहे हों तो सोचिये की आप ऐसे किसी परिवार में लडकी बन के जन्म लेते हैं. आप को जन्म लेते ही, अर्थात आप आसपास की दुनिया के प्रति जैसे ही सचेत होने लगते है, आप के हाथ में एक पुस्तक थमाई जाती है और कहा जाता है कि बेटा यही पूरा सत्य है और इस किताब के बाहर कोई सत्य नहीं. इस किताब का हर शब्द हमारे भगवान ने हमारे प्रेषित को बताया है और सिवा हमारे भगवान और हमारे प्रेषित के किसी की बात सत्य नहीं हो सकती. हमारे भगवान और हमारे प्रेषित को न माननेवाला हर व्यक्ती हमारा शत्रू है और हमें उसे या तो किसी भी प्रकार की योजना से अपने जैसा बनाना है या उसे मृत्यूदंड देना है. दुसरी बात, हमारे भगवान ने जो हमारे प्रेषित को जो बताया है और हमारे प्रेषित ने जो कहा है उसके अनुसार तुम्हें अपना बदन काले रंग के कपडे से पूरी तरह ढक के रखना पडेगा ताकि तुमपर किसी पापी की नजर न पडे और इस तरह ढकना पडेगा कि तुम्हारा नाखून भी नजर न आये, और चुंकि महिलायें मर्दों से निम्न स्तर पर होती हैं और उनकी गुलाम होती हैं तुम्हे अपने पिता या भाई या आगे चलके अपने पती के अलावा कभी बाहर नहीं निकलना चाहिये.और हां, कपडा काला हो या रंगीन, ढकना तो आपको पडेगा ही. मनुष्य भी प्राणी ही होता है, लेकिन अनेक चीजों के साथ सुयोग्य संस्कार हमें मनुष्यप्राणी के प्राणी को त्याग कर मनुष्य बना देते है. किंतु क्या इस तरह के संस्कार आपको फिरसे प्राणी बनने पर बाध्य नहीं करते? एक अत्याचार करने वाला और दूसरा पूरे जीवन में उसे सहने वाली, दोनो केवल प्राणी बनके रह जाते है. किंतु अगर आपको बचपन से यही शिक्षा दी जाए, तो आपको यही योग्य लगने लगता है.
आप पाठशाला गयीं है, महाविद्यालय गयीं है तो आपको ज्ञात होगा ही की एक समय ऐसा आता है की हम अपने मित्रपरिवार की बात को आपके मातापिता की बात से बढकर मानने लगते हैं जिसके अंतर्गत आपके खानेपीने और कपडों का चुनाव भी मित्रपरिवार से प्रभावित होता है. ये गलत है या सही है, अथवा इस काल में याने के टीनएज तथा उसके बाद के कुछ वर्षों में कुछ युवा गलत मित्रपरिवार के चलते राह भटक भी अवश्य जाते हैं, लेकिन हम उस विश्लेषण में नहीं पडेंगे.
मुद्दा ये है की ऐसे काल मे जिसमे आप एक विशिष्ठ मानसिक अवस्था में होते है, इस समय में फिरभी एक स्वतंत्र व्यक्तिमत्व की होते हुए भी आप अपने मित्रपरिवार से इतने प्रभावित होते हैं, तो कल्पना किजीये उपरोक्त अनुच्छेद मे वर्णित परिस्थिती अनुसार जन्म से इस तरह का अगर प्रभाव हो और प्रभाव डालनेवाले आपके अपने जन्म देने वाले और अन्य लोग हों तो क्या परिणाम हो सकते हैं. आपको वह जो बताते है वही योग्य लगता है. आगे चलके आपकी स्वतंत्र सोच अगर जाग गयी और आपको अपने पती से सहकार्य मिलता है तो आप आझाद चिडिया की तरह विश्व में विहार करने मे सक्षम होंगी. अन्यथा आप आपके भगवान ने आपके प्रेषित को जो बताया है और आपके प्रेषित ने जो कहा है उसी के अनुसार सर से पांव तक काले कपडे में अपने आप को ढककर और आपका नाखून भी बाहर न दिखे इस तरह ढककर, घर से बाहर निकलने तक पिता या भाई या पती की सहाय्यता की आश्रित होकर गुलामी का जीवन व्यतीत करने पर बाध्य हो जायेंगी.
स्त्रीमुक्ती का अर्थ मर्दों के बराबर शराब और धूम्रपान करना नहीं है. स्त्रीमुक्ती का अर्थ यह भी है की इस मनोवैज्ञानिक खेल को समझकर स्वयं को मुक्त करना एवं विश्व की अन्य महिलाओं को मुक्त करने का प्रयास करना.
अब संभवतः आप को यह भी ज्ञात हो गया होगा की जिसे आप "अपनी मर्जी" कहती हैं वो वास्तविकता में आपकी या फिर अन्य समुदायों के महिलाओं की स्वयं को विकल्प चुनने की स्वतंत्रता नहीं अपितु आप के मस्तिष्क के साथ खेल कर आपको गुलामी कि जंजीरों को सुंदर पुष्पों का हार समान मानने एवं उसी के अनुसार वर्तन कराने का एक चतुर कल्पना भी को सकती है.
जागो महिलाओं जागो.
© मंदार दिलीप जोशी
माघ शु. ८, शके १९३८