Tuesday, December 13, 2016

ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी | यह सब है ताडन के अधिकारी ||

बुद्धिभेद किस तरह किया जाता है, ये दिखाने हेतू आदरणीय श्री सच्चिदानंद शेवडे गुरुजी ने कुछ दिन पहले रामायण से एक श्लोक उसके संदर्भ एवं अर्थ के साथ दिया था.

यः स्वपक्षं परित्यज्य परपक्षं निषेवते।
स स्वपक्षे क्षयं याते पश्चात् तैरेव हन्यते॥ [वाल्मीकि रामायण, युद्धकांड, ८७|१६]

जो व्यक्ती स्वपक्ष को छोड दूसरे पक्ष मे जाता है, उसके पहले वाले पक्ष का नाश होने पर, स्वयं उस व्यक्ती का नाश, वह व्यक्ती जिस नये पक्ष मे शामिल होता है, उस हे हातों होता है.

चूंकि शेवडे गुरुजी धर्म तथा आध्यात्म क्षेत्र में मानी हुई हस्ती हैं, अनेक लोगों ने बहुत अच्छी टिप्पणीया कीं. कुछ लोगों ने उसका संबंध आजकल के राजनिती से जोडकर देखा और उन्हे लगा की यह आज के दलबदलू लोगों के लिये रामायणीय चांटा है. कुछ लोगों ने प्रश्न किया की दल तो बिभीषण ने बदला था परंतु उसका क्या बुरा हुआ, और कुछ लोगों मे पूछा की सत्य एवं न्याय के पक्ष मे जाना क्या बुरा है? व्हॉट्सॅप और फेसबुक के माध्यम से ऐसे अनेक प्रश्न पूछे गये. बहुत कम लोगों ने इसका सटीक संदर्भ  पूछा. तथापि केवल चंद्रशेखर व.वि. नामक एक महाशय ने इस श्लोक पर संशोधन कर यह प्रतिपादन किया की यह श्लोक रामायण की सीख का भाग नहीं है. और यही अपेक्षित था.

यह है रामायण का वह भाग है जिसमें रावणपुत्र इंद्रजीत तथा बिभीषण इन चाचा-भतीजा के बीच का संवाद है. उपर दिये हुए श्लोक वह वाक्य है जो इंद्रजीत अपने चाचा बिभीषणसे कहता है.

अपने भतीजे की इस आलोचना का उत्तर देते हुए बिभीषण कहते हैं:

राक्षसेन्द्रसुतासाधो पारुष्यं त्यज गौरवात् ।
कुले यद्यप्यहं जातो रक्षसां क्रूरकर्मणाम् ।
गुणो यः प्रथमो नृणां तन्मे शीलमराक्षसम् |

हे अधम राक्षसकुमार! अपने से आयु मे बडों का सन्मान ध्यान मे रखकर तुम इस कठोरता का त्याग करो. यद्यपि मेरा जन्म राक्षसकुल में अवश्य हुआ है परंतु मेरा शील एवं स्वभाव राक्षसों जैसा नहीं है. सत्पुरुषों का जो प्रमुख गुण होता है, सत्त्व, उसी का मैनें अंगीकार किया है.

परस्वहरणे युक्तं परदाराभिमर्शनम् ।
त्याज्यं आहुः दुरात्मानं वेश्म प्रज्वलितं यथा | [युद्धकांड ८७-२१ ते २३]

(हे इंद्रजीत) जिस प्रकार हम अग्नि मे लिप्त घर को त्याग देते हैं, उसी प्रकार जो दूसरे का धन लूटता है तथा परस्त्री को स्पर्श करता है ऐसे दुष्ट आत्मा धारण करने वाले को त्यागना ही उचित है.

उपर लिखे हुए दो श्लोकों से यह सीधा सीधा अर्थ निकलता है की बिभीषण ने को किया, उचित ही किया.

कई बार कुछ भारत विखंडन वाले हिंदूविरोधी तथा जातीवादी 'प्रबुद्ध जन' हिंदू धर्म को नीचा दिखाने हेतू पुस्तके लिखते हैं और उन में ऐसे ही संदर्भहीन श्लोक छाप देते हैं. हिंदू तो संदर्भ के साथ अपने ही ग्रंथ पढने से रहे. तो जब ये पुस्तके पढते हैं तब स्तब्ध रह जाते है, और धीरे धीरे हमारे धर्म के प्रती इन्फिरिओरिटी कॉम्प्लेक्स होने लगता है. लेकिन कोई भी मूल ग्रंथ पढकर उसका सटीक संदर्भ नहीं देखता. बुद्धीभेद करने वालों को सफलता ऐसे ही मिलती है. मूल संदर्भ, उसका हेतू, घटनाएं, वह शब्द कहने वाला पात्र, उस सारे प्रसंग का कार्यकारणभाव और ग्रंथ रचयिता का हेतू ये सारी चीजें ध्यान मे रखकर श्लोक तथा संवादों को पढा जाए तब जाकर हमें उसका सत्यार्थ समझ में आता है.

इसका सर्वपरिचित एक उत्तम उदाहरण संत तुलसीदासजी पर किया गया एक आरोप है. जानते है इस आरोप के विषय में.

ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी |
यह सब है ताडन के अधिकारी ||  [सुन्दरकाण्ड]

यह उदाहरण देते हुए कुछ लिबरल फिबरल लोग हिंदू धर्म महिलाओं का किस प्रकार दमन करता है ऐसे ढोल पीटते रहते हैं. परंतु सत्य कथा यह है की यह ना तो रामचरितमानस की सीख है न तो यह संत तुलसीदासजी का कहना है. किस्सा कुछ इस प्रकार है कि प्रभू राम ने जब लंका पहुंचने हेतू समुद्र देवता से विनती की, की आप पीछे हट जाईये, तब उन्होंने प्रभू श्री राम की बात नहीं मानी. बहुत मिन्नतें करने के पश्चात भी जब समुद्र देवता ने बात नहीं मानी तो प्रभू राम को क्रोध आ गया और उन्होंने अपने धनुष्य पर बाण चढाकर प्रत्यंचा तान ली. जब तक प्रभू राम केवल विनतीयां कर रहे थे, तब तक समुद्र देवता ध्यान नहीं दे रहे थे. परंतु जब प्रभू राम नें शस्त्र उठाया, तब समुद्र देवता कांप गये और इसी भयभीत एवं लाचार मनस्थिती में कुछ भी अनापशनाप बकने लगे. उसी अनर्गल बकवास का एक भाग यह दो लाईने हैं.

आज के जमाने में कहा जाए तो अगर किसी फिल्म का एक छोटा कलाकार या व्हिलैन अगर कहे की "औरत होती ही है भोगने के लिए" तो इसका मतलब यह तो नहीं की यह वाक्य फिल्म के हीरो के माथे मढ कर इसे फिल्म का संदेश मान लिया जाए या फिर इस वाक्य को निर्देशक या लेखक का प्रतिपादन. इस का एक ही अर्थ होता है की यह वाक्य उस फिल्म मे किसीने किसी से कहा है. ठीक उसी प्रकार यह दो लाईने हैं.

कुछ व्हॉट्सॅप तथा फेसबुकीय विद्वान ऐसे होते हैं जिन्हें हिंदू धर्म पर उंगली उठाने हेतू ऐसी ही कुछ लाईने चिपकाने की आदत होती है. अगर कोई ऐसा करे, तो कृपया उसे सटीक संदर्भ पूछना मत भूलीयेगा.

सत्य, तर्क, एवं सटीक संदर्भ से वे डरा करते हैं.

मूल मराठी पोस्ट लेखकः © Dr Satchidanand Shevde 
हिंदी भावानुवादः © मंदार दिलीप जोशी

मार्गशीर्ष शु. १४, शके १९३८, श्री दत्त जयंती

Friday, December 9, 2016

घरवापसी के शत्रू

इस विषय में मैं बहुत आगे की सोच रहा हूं. परंतु इतिहास में की गयी मूर्खतापूर्ण गलतीयों से अगर हम आज नहीं सीखेंगे तो पहले जो संकट आये थे उस की तूलना में कई अधिक तीव्रता के संकटों का हमको सामना करना पडेगा. और इस बार जो होगा वह सर्वनाश की ओर ले जाने वाला संकट होगा.

इस्लाम किस तरह से धर्म परिवर्तन करता है यह हम कई सालों से देखते आ रहे हैं. इतिहास में दीन के बंदों ने तलवार की जोर से कईं धर्म परिवर्तन किए. आज तलवार का जोर शायद न चले इसी लिए लव्ह जिहाद जैसे शातिर तरीके अपनाए जा रहे हैं. इसाई धर्मपरिवर्तन करने वालोंने इनसे अधिक बुद्धिमान एवं संयमी होने के कारण तलवार से साथ साथ शांतीपूर्ण मार्ग भी अपनाये. परंतु हमें सिर्फ तलवार का मार्ग दिखाई देता है, दिमाग का नहीं. तलवार से किए हुए धर्मपरिवर्तन की घरवापसी हमें शिवाजी महाराज के सरदार नेताजी पालकर के उदाहरण के रूप मे दिखती है (फिर भी वह घरवापसी महाराज ने की थी, और महाराज के सामने बोलने की किसकी हिंमत हो सकती है? जाने दीजीए, यह विषय परिवर्तन हुआ.) लेकिन दिमाग से किए हुए धर्मपरिवर्तन की घरवापसी पर हमनें अपनें ही कर्मों तथा वचनों से ताला लगा दिया.

हमारे महाराष्ट्र में हुए कुछ घटनाओं को सुनकर मेरा खून खौल उठता है. भारतवर्ष में ब्रेड यानी की पाव लाया अंग्रेजों ने. जब अंग्रेजों का राज आया तो यहां कोई भी ब्रेड नहीं खाता था क्युंकि वह तो गोरे लोगों का यानी की इसाईयों का खाना था. हमारे शत्रू का खाना था. लोगों ने यह ठान लिया की जो भी व्यक्तिविशेष ब्रेड खाता है वह हमारा शत्रू है. इस बात का शातिर दिमाग अंग्रेज फायदा न उठाते तो ही आश्चर्य की बात थी. उन्होंने एक बडी जबरदस्त कल्पना को अंजाम दिया जिससे कम से कम कष्ट में धर्मपरिवर्तन का कार्य बडी आसानी से कर सकते थे. किसी तरह बहला फुसला के ब्रेड खिलाना, और फिर यह बात फैलाना की फलाना आदमी ने ब्रेड खाया है यह बात उस ब्रेड खाने वाले व्यक्ती का सामाजिक बहिष्कार कराने के लिए पर्याप्त थी. इसका परिणाम आगे बताता हूं. लेकिन इस उपाय से भी एक बडा आसान उपाय था. जब लोग ब्रेड खाने से मना करने लगे तो अंग्रेज ब्रेड या उसके टुकडे गांव के किसी चहल पहल वाले कुए में फेका करते थे जहां बहुत लोग पानी पीने आते हों. ऐसे जगह हुई घटनाएं गांव में ऐसे फैल जातीं जैसे गर्मी के मौसम में किसी वन में अग्नि का फैल जाना. जैसे की पहले लिखा है, ऐसे व्यक्ती या व्यक्तीयों का सामाजिक बहिष्कार किया जाता यह समझकर की वह व्यक्ती ब्रेड से 'दूषित' जल को प्राशन करके इसाई बन चुका/के हैं. यह हमारी ऐतिहासिक मूर्खता नहीं तो और क्या है? अजि ब्रेड को फेंक दिजीये और पानी पी कर काम पे लग जाईये. लेकिन ऐसी सूझबूझ उस समय के बहुतांश लोग नहीं दिखा पाये और लगभग शून्य कष्ट करके इव्हॅन्जलिस्ट लोगों ने कईयों को अपनी गिरोह में सम्मिलित किया. हां गिरोह में. क्युंकि जो धार्मिक पुस्तक यह कहता है कि अगर तुम हमारे भगवान को नहीं मानते हो तो तुम जीवित होते समय आध्यात्मिक दृष्टीसे एवं मरणोपरांत नर्क में कयामत तक आग में झुलसोगे, तो ऐसे लोगों को धर्म नही गिरोह ही कहना उचित होगा.

तो मैं यह कह रहा था, कि उस समय के पुरोहितों ने या समाज के बडे बूढों ने क्या यह कहना उचित नहीं था की अरे ब्रेड खा लिया तो क्या हुआ? चलिये ब्रेड को फेंकिये और एक स्नान कर लिजीये, और कुछ अधिक की अशुद्धता का आभास हो तो एक दिन का उपवास रख लिजीए, तो आप हो गये शुद्ध. या फिर अगर ऐसा मानना हो की आप ब्रेड खाने से इसाई हो गये हैं तो चलिये एक पूजा रखते हैं जिससे की आप फिरसे आपने आर्य सनातन धर्म में आ जायेंगे. या फिर एक यज्ञ का आयोजन करते हैं जिससे आप पुनः शुद्ध बनकर हिंदू हो जायेंगे.

परंतु बाकी विषयों मे पारंगत हमारे गुरुजनों तथा समाज के प्रबुद्ध नागरिकों ने इसमें से कोई भी उपाय नहीं किया. अगर किया तो बताईए, क्युंकि मुझे नहीं पता. ब्रेड खाने वाले व्यक्ती एवं ब्रेड या ब्रेड का टुकडा पडे हुए कुए में से पानी पीने वाले का तत्काल बहिष्कार किया गया और उसे अपने हिंदू धर्म में वापसी करने के सारे मार्ग बंद कर दिये गये.

ऐसी अनेक कल्पनाएं होंगी जिससे धर्मपरिवर्तन कर दिया गया होगा. तो अब आप सोचेंगे इसका ट्रिपल तलाक तथा कॉमल सिव्हिल कोड से क्या संबंध?

यह रामायण बताने का उद्देश यह है कि अगर कम इस इतिहास से सीख लें तो इस्लाम से घरवापसी करने वाले लोगों को हिंदू समाज मे सहजतापूर्वक सम्मिलित (assimilate) कर सकेंगे. मान लिजीये की कोई मुस्लीम युवती हिंदू हो जाती है. लेकिन उसके भविष्य का उसे सोचना ही होगा. अगर उसे विवाह करना है तो उसे हिंदू वर कैसे मिलेंगे? इसके दो पहलू हैं. एक तो सामाजिक स्तर पर जैसे जातीयों से संबंधित विवाह मॅरेज ब्युरो होते हैं, उसी तरह दूसरे धर्म से हिंदू धर्म में आने वाले युवाओं के लिये विवाह मार्गदर्शन संस्थाओं का होना आवश्यक है. यह आवश्यक नहीं की ऐसी संस्थाएं रजिस्टर्ड हों. यह भी आवश्यक नहीं है की संस्थाएं ही हों, उन के साथ साथ अनौपचारिक गुटों का भी योगदान हो सकता है. अकेले व्यक्ती भी मार्गदर्शक हो सकते हैं. लेकिन अधिक परिणाम के हेतू संस्थाओं का होना आवश्यक होगा.

हमारे हिंदू समाज से कोई आगे आकर उसे धर्मपत्नी के रूप मे स्वीकार करने का साहस कर सकेगा? क्या उसके घरवाले, कल्पना किजीये की आप ही ऐसे युवक के माता पिता हैं, क्या आप ऐसी मुस्लीम अथवा इसाई युवती को अपने घर की लक्ष्मी, अपनी बहू बनाके का ढाढस बंधा पाएंगे? उसे बहू बनाकर अपने संस्कारों मे ढालने का कष्ट उठा पायेंगे? अगर आपका उत्तर 'नहीं' है, तो घर में पंखे के नीचे या एसी में बैठे बैठे घरवापसी पर पोस्ट पेलना व्यर्थ है.

मुझे यह ज्ञात है कि जैसे कपडे बदलते हैं वैसे इस्लाम को छोडना संभव नहीं. दमन क्या होता है यह इस्लाम में रहने से ही समझ में आता हैं. हिंसा भी होगी अगर ऐसे लोग इस्लाम छोडने लगे.

इस हिंसात्मक प्रतिक्रिया का मुझे पूर्ण रूप से ज्ञान है. लेकिन मेरा उद्देश्य कुछ अलग है. मुझे हिंदूओं की उस मानसिकता पर उंगली उठानी है, जिससे हम जीते हुए युद्ध हमारे ही तकियानूसी खयालातों के कारण हार जाते हैं, जबकि बाकी सारे कारण हमारे पक्ष में होते हैं. जैसे की अर्थशास्त्र में हर सिद्धांत "Other things being equal..." इन शब्दों से शुरुवात होती है.

बहुत बोल चुका, लेकिन एक और उदाहरण देना आवश्यक समझता हूं. टेनिस खिलाडी विजय अमृतराज आपको याद होंगे ही. १९७३ में वह विम्बलडन सिंगल्स विजेता बनते बनते रह गये थे. क्वार्टर फाइनल मे जॅन कोड्स के सामने खेलेते हुए विजय के सामने ऐसा क्षण आया की कोड्स के शॉट पर उन्हे सिर्फ एक आसान सा स्मॅश मारना था. अगर वह स्मॅश सफलतापूर्वक मारते, तो उनके लिये वह मॅच जीतना तय था. लेकिन ऐन समय पर हिंमत हार कर उन्होंने यह मौका गवां दिया और मॅच हार गये. कोड्स आगे जाकर विम्बलडन का किताब जीत गये.

कुछ समझ में आया? अगर आया तो ठीक, वरना जो है, सो हयई है!

© मंदार दिलीप जोशी
मार्गशीर्ष शु. १०, शके १९३८

ट्रिपल तलाक और घरवापसी

ट्रिपल तलाक और समान नागरी कायदे को लेकर मुझे एक बात बहुत दिनों से खाए जा रही है.

एक भी हिंदू नेता - हां - एक भी हिंदू नेता - ना राजनेता, ना योगीबाबाजी, ना कोई साधू महाराज - मुस्लीम महिलाओं तथा सामान्य मुसलमानों से यह नहीं कह रहे हैं की अगर ऑल इंडिया मुस्लीम पर्सनल लॉ बोर्ड आपके मानवाधिकारों का दमन कर रहा है, और आप इस बात को मान चुके हैं की इस्लाम में तीन बार तलाक और हलाला हो या और किसी अधिकार की बात, सुधार की कोई संभावना नहीं है, तो इस्लाम छोड हिंदू धर्म मे प्रवेश किजीए. यहां आपको न केवल समान अधिकार मिलेंगे बल्कि आपके अधिकार पुरुषों से भी अधिक होंगे तथा न्याय व्यवस्था भी आप के याने महिलाओं की तरफ पक्षपात करेगी.

हां, इस घोषणा या यह परिणाम संभव नहीं की हजारों की संख्या में मुस्लींम महिलाएं और कुछ मुस्लीम पुरुष बगावत करके हिंदू धर्म मे प्रवेश करें. इसके कारण अनेक हैं जिस विषय में मेरे फेसबुक मित्र Anand Rajadhyakshaजी ने बहुत समय पहले लिखा था. परंतु किसी प्रभावशाली नेता या साधूबाबा के केवल ऐसी घोषणा करने के सकारात्मक मनोवैज्ञानिक परिणाम संख्या तथा प्रभाव में बहुत बडे हो सकते हैं.

युद्ध केवल शस्त्रों से अर्थात शरीर से नहीं अपितु मनोवैज्ञानिक अस्त्रों से भी खेला जाता है. लेकिन हम इसमें पीछे छूट रहे हैं. इस विषय में मुझे पुरानी पडोसन फिल्म के एक सीन का स्मरण हो रहा है. संगीत शिक्षक मास्टर पिल्लई का किरदार निभाने वाले मेहमूद अपने प्रेम प्रतिस्पर्धी भोला याने सुनील दत्त से एक झगडे के दरम्यान कईं बार कहतें हैं, "तुम आगे नै आना", "तुम आगे नै आना". लेकिन भोला और आगे आता जाता है. आखिर में मास्टरजी के "तुम आगे आना?" इस प्रश्न पर भोला डटकर कहता है, "हां". इस पर हार मानते हुए मास्टरजी, "तुम आगे आना? अच्छा तो हम पीछे जाना" यह कहकर पीछे हट जाते हैं.

तो है कोई माई का लाल ऐसी घोषणा करने वाला? या फिर "तुम आगे आना?" इस प्रश्न पर हम ही "पीछे जाना" करेंगे? कुछ समझे? अगर समझे तो ठीक. वरना जो है, सो हयई है!

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अगला भाग: घरवापसी के शत्रू
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© मंदार दिलीप जोशी
मार्गशीर्ष शु. १०, शके १९३८

Wednesday, November 9, 2016

शबरीमला मधे स्त्रीयांना प्रवेश का नाही?

मूळ लेखकः © सुप्रिया पिल्लै
मराठी रुपांतर/भाषांतरः © मंदार दिलीप जोशी

मी एक हिंदू स्त्री आहे आणि देवभूमी म्हणून ओळखले जाणारे केरळ राज्य ही माझी जन्मभूमी. आणि मला शबरीमला मधे प्रवेश नको आहे. आणि हो, माझ्यासारख्या अनेक स्त्रीया तुम्हाला केरळात आणि इतरत्र भेटतील. उच्चशिक्षित, व्यवसायिक, लेखक, वगैरे अनेक माझ्या या मताशी सहमत आहेत. का? याचं कारण जाणून घ्यायचं असेल तर तुम्हाला केरळ आणि मल्याळी लोकांची संस्कृती जाणून घ्यावी लागेल.

आम्ही केरळी लोक मातृसत्ताक पद्धत पाळत होतो. लग्न झाल्यावर पुरुष बायकोच्या घरी रहायला जायचे, मुले आईचे आडनाव लावायची, घरातल्या संपत्तीवर स्त्रीयांचा पहिला अधिकार असायचा. केरळात एक देऊळ आहे ज्याचे पुजारी वर्षातून एकदा तिथे येणार्‍या प्रत्येक स्त्रीचे पाय धुवायचे, कारण स्त्री ही देवीचे प्रातिनिधिक रूप मानण्याची आमच्याकडे पद्धत आहे. मन्नारशाला इथल्या एका देवळात फक्त स्त्रीया पुजारी होऊ शकतात. आमच्याकडे फक्त स्त्रीयांसाठी असा एक उत्सव आहे ज्याचं नाव आहे थिरुवथिरा. तो साजरा होत असलेल्या ठिकाणीच नव्हे तर आसपासही पुरुषांना प्रवेश निषिद्ध आहे. थिरुअनंतपुरम् येथे पोंगल पूजेत लाखोंच्या संख्येने स्त्रीया भाग घेतात. थिरुअनंतपुरम् मधे देवळात इतक्या संख्येला पुरे पडू शकत नाही म्हणून रस्ते या गर्दीने ओसंडून जातात आणि थिरुअनंतपुरम् काही काळासाठी चक्क बंद होतं. ते सुद्धा फक्त स्त्रीयांच्या प्रचंड संख्येमुळे. अशी उदाहरणे कमी नाहीत, पण शितावरुन भाताची परीक्षा करण्याची क्षमता तुमच्यात आहे हे गृहित धरुन मी असं समजते की आता केरळची स्त्रीप्रधान संस्कृती तुमच्या लक्षात आली असेल.

अशा वातावरणात शबरीमला हे एकच ठिकाण फक्त पुरुषांसाठी राखीव आहे. महाराष्ट्रात हळदीकुंकू समारंभात जसं फक्त स्त्रीयांना प्रवेश असतो तसं शबरीमला मधे आमच्यातले पुरुष जातात. पुरुषांसाठी हे ठिकाण आपापसात भेटण्या-मिसळण्याचे एक धार्मिक अधिष्टान असलेले स्थान आहे. कुटुंबातले वडिल, मुले, भाऊ, काका, आजोबा, सगळ्या प्रकारचे व वयाचे पुरुष जातपात, सांपत्तिक स्थिती, इत्यादी कोणत्याही भेदभावाविना तिथे जमतात. हल्ली काही पुरुष उत्तर भारतात करवा चौथचा उपास ठेवतात, तसंच इथे घरातल्या स्त्रीया कुटुंबातील पुरुषांना मानसिक पाठींबा म्हणून त्यांच्या सोबत चाळीस दिवस उपास करतात.

इतर ठिकाणी फक्त पुरुष एकत्र आले की बाई, बाटली, आणि धिंगाणा घातला जातो तसं इथे अजिबात नाही. या चाळीस दिवसात पुरुषांना मद्यपान, संभोग, व मांसाहार करता येत नाही. आणि ही बंधनं ते आनंदाने स्वीकारतात. घरातले सगळे पहाटे चार वाजताच दिवसाची सुरवात करतात. स्नान करुन पूजा केली जाते आणि मग घरातले सगळे जवळच्या देवळात देवदर्शनासाठी जातात सगळं कुटुंब एकत्र येतं. नात्यांमधले बंध धृढ होतात.

हे चाळीस दिवस फक्त पुरुषांसाठीच नव्हे, तर कुटुंबातल्या स्त्रीयांसाठीही detox सारखे ठरतात. मद्यपान वर्ज्य करणार्‍यांमधे फक्त अधुनमधून मद्यपान करणारेच नव्हे तर अट्टल दारुडेही सामील असतात. कल्पना करा, रोज दारू पिऊन येणारा पुरुष चाळीस दिवस अगदी शहाण्या बाळासारखा वागतो आहे, याचा कुटुंबावर आणि पर्यायाने समाजावर किती सकारात्मक परिणाम होत असेल? संध्याकाळी 'टल्ली' होण्याऐवजी घरातले सगळे जवळच्या देवळात भजनकीर्तनात तल्लीन होतात. पुन्हा सगळा गोतावळा एकत्र येतो. घरातले स्त्री व पुरुष दोघांनी नोकरी व्यवसायानिमित्त अर्थार्जन करण्याच्या या काळात या सगळ्याचं महत्त्व कधी नव्हे तेवढं आज आहे.

या चाळीस दिवसानंतर पुरुष शबरीमलात जातात. त्यांच्या सोबत वयोवृद्ध स्त्रीया आणि घरातल्या 'वयात न आलेल्या' मुली असतात. या काळात घरावर घरातल्या इतर स्त्रीयांचं एकछत्री राज्य असतं. शबरीमलात राहण्याचा काल किमान तीन दिवस ते पुरुषांना हवा तितका असा असू शकतो. आजच्या काळात याला काय म्हणतात बरं? हं, पुरुषांना आणि स्त्रीयांना त्यांचं हक्काचं "स्पेस" मिळणं. पण कसं आहे ना, आम्ही हे फार पूर्वीपासून पाळत आलेलो आहोत, फक्त आम्ही हे पाळतो आमच्या परंपरा व प्रथांना पूर्ण मान देऊन.  

तेव्हा शबरीमलात स्त्रीयांना प्रवेश हवाच ही आमची मागणी नाही. कधीही असू शकत नाही. आणि तसं वाटलंच तर त्यासाठी आमची थांबायची तयारी आहे. सर्वोच्च न्यायालयाने त्यात नाक खुपसण्याची गरज नाही.

मूळ लेखकः © सुप्रिया पिल्लै
मराठी रुपांतर/भाषांतरः © मंदार दिलीप जोशी
कार्तिक शु. ९, शके १९३८

मूळ इंग्रजी लेखनः

Why are women not allowed in Sabarimala

- beautiful explanation by Supria Pillai

14 January at 09:49

I am a Hindu Woman from Kerala and I don't want to go to Sabarimala....You will find hundreds of thousands of us in Kerala and elsewhere...highly educated, professionals, writers etc who will agree with me.....Why?Because...Kerala Hindu women have Temples and festivals exclusively for themselves...ours was a Matriarchal society where only the women inherited. We have a Temple where once a year the Preists there will wash the feet of every woman devotee who comes there because a woman is the representation of the Godess....we have a Temple in MAnnarashala where the Priests are exclusively women, We have Thiruvathira.......which is an exclusively women's festival...no men allowed in the vicinity...we have Pongala a pooja where lakhs and lakhs of women take part....in Trivandrum.....since the Temple cannot hold all these vast numbers...Trivandrum literally shuts down and it's streets are full of women...yes exclusively women........

Contrary to that ....Sabarimala....is the one place in Kerala which is exclusively for men.... This is where our men go together...it's a male bonding... Thing.. Fathers and sons, brothers,uncles, grandfathers all the male members in a family or community or friends...The whole community irrespective of caste, wealth, creed joins in....including the women...Yes...many of us keep fast with the men in our family.

These forty days are a source of great joy and peace for us.....in many homes....it is the only time of the year when men don't drink.....no non-veg food, every one gets up very early in the morning around 4:00 a.m, bathe, do your pooja....visit the nearest Temple......the family gets together....it brings family members in together......

Our men don't do this bonding by drinking, drugs or whoring
Instead it is through 40 days of detox... Every one is in it.. The women as well.

There is peace in society cos many alcoholics are detoxing... There is a bond not only in the family but in the community.You go for bhajans in the evening....again the family goes together. The community gets together.....very important in this day and age when everyone is working especially in Kerala.

After 40 days the men go to Sabarimala, sometimes taking their aged mothers with them and maybe the older children including gals who haven't yet menstruated..

The women have the home to themselves... 3 days or until the men come back to do as they please. What do they call this is modern terms.....? Yes.... men having their own space and women their own space and time out ...Well....we have been doing this for a long time....keeping our cultural ethos and values in mind while doing so...

Monday, October 24, 2016

लिबरल

जब एक ज्ञानी हिंदू को एक लिबरल ने
मानवता का पाठ पढाया
तो हिंदू फरमाया
की मेरे लिबरल भाया
अपनी औकात न भूल

तेरे जैसे तो उस पानी के गिलास की तरह है
जो समंदर से पूछ रहा हो
"तू जानता ही क्या है मेरे बारे में?"
तो मेरे लिबरल भाया, अपनी औकात मे रह
बचकानी बाते ना कर
मैं तो हूं विशाल बोधीवृक्ष
और तू सिर्फ मोह माया.

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© मंदार दिलीप जोशी

Monday, October 17, 2016

दिसत जावं माणसानं

हल्ली मोबाईल आणि सोशल मिडियामुळे भेटीगाठी अधिकच दुर्मीळ होऊ लागल्या आहेत. किंबहुना असंही म्हणता येईल की असे इतकं भेटणं होतं की प्रत्यक्ष नाही भेटलं तरी चालेल अशीच मानसिकता तयार होऊ लागली आहे. याच विषयावर एका मित्राने आज एक सुंदर हिंदी कविता पाठवली आणि विषय जिव्हाळ्याचा असल्यानं चटकन मराठी रुपांतर/भाषांतर सुचलं. आधी मराठी आवृत्ती आणि मग त्याची मूळ हिंदी कविता असं देतो आहे. हिंदी कवी कोण ते मात्र समजू शकलं नाही. मराठीत रूपांतर करताना एक कडवं अधिकचं जोडलं आहे.

दिसत जावं माणसानं

कालगतीच्या तीव्र प्रवाही
पोहत जावं त्वेषानं
क्षणभंगुर जीवनात या पण
दिसत जावं माणसानं

आठवणींचा साठा मोठा
क्षणात विस्कटू नये कधी
मैत्र जीवांचे होऊन हृदयी
बोलत जावं माणसानं

हसर्‍या चेहर्‍यांमागे काही
दु:ख मानसी बाळगती
हात घेऊन हाती मित्राचा
बसत जावं माणसानं

प्रत्येकाचे शल्य वेगळे
आनंद निराळा असतो रे
मित्रांचंही जगणे थोडं
वाटून घ्यावं माणसानं

कोण कुठवर सोबत असतो
कोणा असते ठावूक ते
भेटण्याची कारणे नित्यनूतन
विणत जावी माणसानं

ओझरती कधी भेट घडावी
रंगवावी मैफिल कधी
कधी हाकेसरशी खिडकीत
दिसत जावं माणसानं

भेटीगाठीतून आठवणींचा
साठा ताजा ठेवावा
म्हणून म्हणतो उगाचच्या उगाच सुद्धा
दिसत जावं माणसानं

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© मंदार दिलीप जोशी
अश्विन कृ. २, शके १९३८
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मूळ हिंदी कविता:

मिलते जुलते रहा करो

धार वक़्त की बड़ी प्रबल है,
इसमें लय से बहा करो,
जीवन कितना क्षणभंगुर है,
मिलते जुलते रहा करो।

यादों की भरपूर पोटली,
क्षणभर में न बिखर जाए,
दोस्तों की अनकही कहानी,
तुम भी थोड़ी कहा करो।

हँसते चेहरों के पीछे भी,
दर्द भरा हो सकता है,
यही सोच मन में रखकर के,
हाथ दोस्त का गहा करो।

सबके अपने-अपने दुःख हैं,
अपनी-अपनी पीड़ा है,
यारों के संग थोड़े से दुःख,
मिलजुल कर के सहा करो।

किसका साथ कहाँ तक होगा,
कौन भला कह सकता है,
मिलने के कुछ नए बहाने,
रचते-बुनते रहा करो।

मिलने जुलने से कुछ यादें,
फिर ताज़ा हो उठती हैं,
इसीलिए यारों नाहक भी,
मिलते जुलते रहा करो।

- कवी अज्ञात